हाशिमपुरा नरसंहार- 31 साल में सजा, 6 साल में छूटे:पीड़ित बोले- इस सरकार में इंसाफ नहीं; PAC जवानों ने मार डाले थे 38 लोग

हाशिमपुरा नरसंहार- 31 साल में सजा, 6 साल में छूटे:पीड़ित बोले- इस सरकार में इंसाफ नहीं; PAC जवानों ने मार डाले थे 38 लोग

मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार में दोषी 10 PAC जवानों को सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर, 2024 को जमानत दे दी। इन्हें नरसंहार के 31 साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट से उम्रकैद की सजा मिली थी। लेकिन, सिर्फ 6 साल में जेल से बाहर आ गए। इन PAC जवानों ने 22 मई, 1987 को मेरठ में 38 मुस्लिमों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके बाद शव गंगनहर में बहा दिए थे। ज्यादातर की लाश भी नहीं मिल पाई थी। सुप्रीम कोर्ट से जैसे ही दोषी जवानों की जमानत हुई, तो हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों के जख्म फिर से हरे हो गए। बोले- आज भी इंसाफ का इंतजार है। इस हुकूमत से इंसाफ पाने की अब कोई उम्मीद नहीं बची। दैनिक भास्कर हाशिमपुरा पहुंचा। नरसंहार पीड़ित परिवारों का दर्द जाना। अब वो इस केस में क्या करने जा रहे हैं, इसके लीगल पहलुओं को समझा। पढ़िए पूरी रिपोर्ट… क्या था हाशिमपुरा नरसंहार, पहले यह जानिए
साल 1987 में पश्चिमी यूपी के मेरठ में बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर सांप्रदायिक तनाव चल रहा था। इसे लेकर PAC और सेना ने शहर के हाशिमपुरा इलाके में सर्च ऑपरेशन चलाया। इस दौरान PAC की दो राइफलें लूट ली गईं। एक मेजर के रिश्तेदार की हत्या कर दी गई। 22 मई, 1987 को PAC ने 42-45 जवान और बूढ़े लोगों को पकड़ा। उन्हें पूछताछ के बहाने 41वीं बटालियन की C-कंपनी के पीले रंग के ट्रक में भरकर ले गए। उन्हें थाने ले जाने की जगह गाजियाबाद के पास एक नहर पर ले जाया गया। वहां PAC जवानों ने उन लोगों को गोली मार दी। कुछ शवों को गंगनहर और बाकी को हिंडन नदी में फेंक दिया। इसमें 38 लोग मारे गए। ज्यादातर के शव तक नहीं मिले। सिर्फ 11 शवों की पहचान उनके रिश्तेदारों ने की। 5 लोग जुल्फिकार, बाबुद्दीन, मुजीबुर्रहमान, मोहम्मद उस्मान और नईम बच गए। गोलीबारी के दौरान उन्होंने मरने का नाटक किया और तैर कर बाहर निकल गए। ट्रायल कोर्ट ने बरी किया, हाईकोर्ट ने उम्रकैद की सजा दी
जिंदा बचे 5 लोगों की गवाही पर दिल्ली हाईकोर्ट ने PAC के 16 जवानों को 31 अक्टूबर, 2018 को उम्रकैद की सजा सुनाई। कुल 19 जवान दोषी करार दिए। इसमें 3 की पहले ही मौत हो चुकी थी। इन्हीं 16 में से 10 जवानों को सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर, 2024 को जमानत दे दी। सीनियर एडवोकेट अमित आनंद तिवारी ने दलील दी कि ट्रायल कोर्ट ने सबूतों के अभाव में PAC जवानों को बरी कर दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने गलत तथ्यों के आधार पर ट्रायल कोर्ट का फैसला पलटा था। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लेकिन सभी 2018 से जेल में हैं। इस वजह से उन्हें जमानत दी जाए। हाशिमपुरा में छोटी-छोटी गलियां, घरों में खुले कारखाने
दोषियों को SC से जमानत मिलने पर नरसंहार पीड़ित परिवारों का दर्द जानने हम सीधे हाशिमपुरा पहुंचे। मेरठ शहर में हापुड़ अड्डा चौराहा से करीब 300 मीटर दूर हाशिमपुरा इलाका है। यहां छोटी-छोटी गलियां हैं। लंबे अरसे बाद यहां सीमेंटेड सड़क बन रही है, जो ये बताती है कि हाशिमपुरा अब बदल रहा है। मकान पक्के और ऊंचे-ऊंचे बन गए हैं। तंग गलियों में कारखाने लग गए हैं। इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग मेहनत-मजदूरी से जुड़े हैं। वो सुबह 8 बजे घर से मजदूरी पर निकल जाते हैं और शाम को ही लौटते हैं। इस कांड के बाद हाशिमपुरा के ठीक बाहर पुलिस चौकी बना दी गई। इसका नाम हाशिमपुरा पुलिस चौकी है। यहां पर पुलिस के जवान हर वक्त तैनात रहते हैं। अब पीड़ित परिवारों का दर्द समझिए नसीम बानो बोलीं- आरोपी छूट गए और हम वहीं के वहीं रह गए
इस नरसंहार में अपने भाई सिराज को गंवाने वाली नसीम बानो बताती हैं- अलविदा जुमे का दिन था। नमाज पढ़ने का वक्त हो रहा था। तभी PAC मोहल्ले में आ गई। हमारे 21 साल के भाई सिराज को उठाकर ले गई। मोहल्ले से और भी लोग उठाए गए। तब पुलिसवालों ने हमसे ये कहा कि पूछताछ के लिए लेकर जा रहे हैं। तीन-चार दिन बाद हमें पता चला कि पुलिसवालों ने सभी की नहर पर गोली मारकर हत्या कर दी है। आज तक हमारे भाई की बॉडी भी नहीं मिली। इस घटना के बाद हमारा घर बरबाद हो गया। पिता शब्बीर 2 साल बाद ही गुजर गए। इस गम में मां रश्केजहां पागल हो गईं। वो भी 6 साल बाद गुजर गईं। सुप्रीम कोर्ट से आरोपियों को जमानत मिलने के सवाल पर नसीम बानो कहती हैं- इतने साल से लड़ते-लड़ते भी इंसाफ नहीं मिल रहा। हम सिर्फ इंसाफ ही तो चाहते हैं। हमारी लड़ने की औकात नहीं थी, लेकिन अपने बच्चों को इंसाफ दिलाने के लिए हम फिर भी आज तक लड़ ही रहे हैं। इस्लामुद्दीन बोले- मुसलमानों को कभी-कहीं इंसाफ नहीं मिला
रिक्शा चलाने वाले इस्लामुद्दीन बताते हैं- मेरे 16 साल के भाई निजामुद्दीन को मकामी पुलिस, पीएसी और मिलिट्री उठाकर ले गई और हत्या कर दी। CBCID ने जिन 16 मृतकों के फोटो जारी किए थे, उसमें मेरा भाई भी था। डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी ने पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए मुरादनगर गंगनहर से हिंडन नदी तक पदयात्रा निकाली थी। इंसाफ की स्थिति ये है कि आज तक नहीं मिला। आर्थिक मदद भी नहीं मिली। इस्लामुद्दीन बताते हैं- मुलायम सरकार ने मृतकों के परिवारों को 5-5 लाख रुपए जारी किए थे। डीएम के पास जाता हूं तो कभी वारिसान सर्टिफिकेट मांगते हैं, कभी कुछ। मुझे परेशान कर रखा है। मैं आज तक परेशान हूं। दबंगई दिखाकर कहते हैं कि आपके भाई को तो मार दिया, आपको भी मार देंगे। तहसील जाता हूं तो वहां भी दबंगई दिखाते हैं। ऐसे में सिर्फ रोना ही आता है। इस्लामुद्दीन ये सब बताते-बताते रोने लगते हैं। वो कहते हैं- हमें कोर्ट भी इंसाफ नहीं दे रहा। वो भी इन्हीं की हुकूमत है। मुसलमानों को कभी कहीं इंसाफ नहीं मिला। हिंदू होते तो उनके लिए क्या-क्या कर देते? याकूब ने कहा- हमें नहीं लगता इस सरकार में इंसाफ मिलेगा
टेलर की दुकान करने वाले मोहम्मद याकूब बताते हैं- 22 मई को मुझे, छोटे भाई और पापा को पुलिसवाले घर से उठाकर ले गए। गली से बाहर ले जाने के बाद पुलिस ने मुझे और भाई को बच्चों वाले समूह में बैठा दिया। पापा नजर बचाकर बगल में आरा मशीन में छिप गए। मुझे तो जेल भेज दिया, लेकिन भाई को पूछताछ करके छोड़ देने की बात कही। मगर, ऐसा नहीं हुआ। याकूब बताते हैं- उस बच्चा पार्क पर हमारी टेलर की दुकान थी, वो भी जला दी गई। हमारा घर बरबाद हो गया। 30 साल तक हम दुकान भी नहीं कर पाए। अब 3 साल पहले जैसे-तैसे टेलर की दुकान खोली है। ऐसा कोई इंसाफ होता है क्या? 30 साल बाद पीएसी जवानों को उम्रकैद की सजा हुई। इसके बावजूद अब कुछ ही दिन में जमानत दे दी गई। ये इंसाफ हुआ क्या? अदालत ने पीड़ित परिवारों को डेवलप करने का आदेश दिया था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमें नौकरी तक नहीं मिली। हमें तो लगता नहीं कि इस सरकार में कोई इंसाफ मिलेगा। आज जिस तरह के हालात हैं, उसमें कोई उम्मीद नहीं दिखती। ये ले जाओ ईद का तोहफा…
मोहम्मद याकूब की पत्नी ने बताया- पुलिस ने उस वक्त कई लोगों को जेल भेज दिया था। जेल के अंदर उनको पीट-पीटकर मार दिया गया था। उन दिनों ईद आने वाली थी। पुलिस-प्रशासन ने जब मृतकों के परिजनों को लाश देने के लिए बुलाया तो कहा- ये ले जाओ ईद का तोहफा…। आंखों देखी…बाबुद्दीन को 2 गोलियां लगीं, पानी में छिपकर जान बचाई, इन्हीं की गवाही पर PAC जवानों को हुई थी सजा
इस नरसंहार में कुल 5 लोग ऐसे थे, जो पुलिस की गोली लगने के बावजूद बच गए थे और जिंदा लौटने में कामयाब रहे। इन्हीं में से एक बाबुद्दीन हैं। मूलरूप से बिहार के दरभंगा में रहने वाले बाबुद्दीन हाशिमपुरा के एक कारखाने में मजदूरी करते हैं। हम इनसे बातचीत करने के लिए सीधे कारखाने पर पहुंच गए। बाबुद्दीन बताते हैं- 22 मई, 1987 का ये वाकया है। दिन के 2 बज रहे होंगे। हम और वालिद साहब एक मकान के अंदर बैठे थे। अंदर से दरवाजा लॉक था। बाहर से कुंडी खटखटाने की आवाज आई। बोले कि हम पुलिस के आदमी हैं, दरवाजा खोले। बाहर आए तो देखा कि पुलिस, मिलिट्री और पीएसी के जवान खड़े थे। उन्होंने घरों से सभी पुरुषों को बाहर निकाल लिया। हम सभी से हाथ ऊपर करवाए और कहा कि पूछताछ के लिए साथ चलो। गली के बाहर जाकर देखा तो पुलिस ने 300-400 और लोगों को भी इकट्ठा किया हुआ था। वो लोग भी इसी इलाके के रहने वाले थे। उन्हें भी पूछताछ के बहाने इकट्ठा किया गया था। उन सभी को गाड़ी में बैठाकर कहीं लेकर जाया जा रहा था। हम जैसे जिन लड़कों की उम्र 20 साल से कम थी, उन्हें अलग कर दिया गया। फिर शाम हुई तो पुलिसवालों ने हमसे कहा कि अपने घर चले जाओ। घर जाने के लिए हम जैसे ही लाइन लगाकर खड़े हुए, उनमें से 50-54 लोगों को छांटकर अलग बैठा लिया। फिर हमें एक पुलिस ट्रक में बैठाया और कहीं ले जाया गया। रास्ते में गंगनहर आई। वहां पटरी पर ट्रक को अंदर ले जाया गया। पुलिसवालों ने ट्रक से उतार कर एक लड़के को गोली मार दी। यह देख ट्रक में बैठे बाकी लड़कों में चीख-पुकार मच गई। इस पर पुलिसवाले घबरा गए और उन्होंने पूरे ट्रक पर गोलियां चला दीं। मुझे भी बाईं पसली के पास एक गोली लगी। जो लोग बच गए, उन्हें नीचे उतार कर गोली मारी गई। एक पुलिसवाले ने मेरे दोनों हाथ पकड़े, दूसरे ने मेरे सीने में गोली मारी। इसके बाद लाशों को वहीं फेंककर PAC का ट्रक चला गया। कुछ देर बाद लोकल पुलिस आई। वो नहर की झाड़ियों में टॉर्च मारकर देख रही थी। मुझे लगा कि वो पुलिसवाले दोबारा आ गए हैं। मैं डर की वजह से नहर के अंदर पानी में छिप गया और भागता रहा। कुछ दूर तक पुलिसवालों ने मेरा पीछा किया और गोली मारने की धमकी दी। इसके बाद मैं नहर से बाहर निकला। फिर उन्होंने मुझसे पूछताछ की और हॉस्पिटल में भर्ती कराया। मैं करीब 21 दिन तक गाजियाबाद के हॉस्पिटल में भर्ती रहा, तब घर लौट सका। बाबुद्दीन कहते हैं- हमें दिल्ली हाईकोर्ट से इंसाफ मिला। PAC जवानों को सजा हुई। मेरी गवाही पर उन सबको सजा हुई। मैंने कोर्ट को वही सब बताया था, जो हम लोगों के साथ हुआ था। मेरठ में 24 घंटे में हुए थे दो दंगे, हाशिमपुरा और मलियाना
मई, 1987 में मेरठ शहर में एक दिन के अंतराल पर दो ऐसे दंगे हुए, जिन्होंने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। इसकी शुरुआत फरवरी, 1986 में हुई। केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दिया तो वेस्ट यूपी में माहौल गरमा उठा। 14 अप्रैल, 1987 से ये विवाद मेरठ में धार्मिक उन्माद का रूप ले बैठा। कई दुकान-मकान जला दिए गए। लोगों की सरेराह हत्या हुईं। ये घटनाक्रम मेरठ में इसी तरह महीनेभर तक चला। सेना तक लगा दी गई, लेकिन हालात काबू में नहीं आए। 22 मई, 1987 को PAC जवानों ने 38 मुसलमानों का सामूहिक नरसंहार कर दिया। इस वारदात के 24 घंटे बाद ही 23 मई, 1987 को हाशिमपुरा से सात किलोमीटर दूर मलियाना भी दंगे की चपेट में आ गया। 106 घर आग के हवाले कर दिए गए। हाशिमपुरा नरसंहार से कितनी बदली सियासत?
मेरठ में PAC जवानों ने जब 38 मुसलमानों की हत्या करके लाश नहर में डाली तो वो बहते हुए गाजियाबाद तक पहुंच गईं। उस वक्त गाजियाबाद के SSP विभूति नारायण राय थे। उन्होंने PAC जवानों पर थाना मुरादनगर और लिंक रोड में हत्या के दो मुकदमे दर्ज कराए। विभूति नारायण राय ने ‘हाशिमपुरा 22 मई : द फॉरगॉटन स्टोरी ऑफ इंडियाज बिगेस्ट कस्टोडियल’ किताब लिखी है। इसमें उन्होंने बताया है कि 1987 के दंगों के दौरान मोहसिना किदवई मेरठ से सांसद थीं। वो शहरी विकास मंत्री और कांग्रेस में प्रमुख मुस्लिम चेहरा थीं। हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों ने दिल्ली में मोहसिना किदवई के घर पहुंचकर उनसे संपर्क किया, लेकिन उन्हें कोई मदद नहीं मिली। हालांकि घर से किसी ने पीड़ित परिवारों को सलाह दी कि वो सांसद सैयद शहाबुद्दीन से संपर्क करें। इस दंगे के विरोध में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के प्रमुख चेहरे और केंद्रीय मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। कहा जाता है कि 30 मई, 1987 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी मेरठ आए, लेकिन हाशिमपुरा नहीं गए। इस कांड के बाद कांग्रेस से मुस्लिम वोट छिटकता गया। UP में 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 269 विधायक थे, जो 1989 में घटकर 94 रह गए। कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोट सपा को ट्रांसफर हो गए। 1989 में मुलायम सिंह यादव पहली बार UP के मुख्यमंत्री बने। मौजूदा परिदृश्य में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सिर्फ 2 विधायक रह गए हैं। हाशिमपुरा नरसंहार के वक्त सुब्रमण्यम स्वामी जनता पार्टी में हुआ करते थे। उन्होंने मेरठ गंगनहर से गाजियाबाद हिंडन नदी तक पदयात्रा की। बोट क्लब पर आमरण अनशन पर बैठे। पीड़ितों को न्याय देने की मांग की। नरसंहार के लिए तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री पी. चिदंबरम को दोषी ठहराते हुए उन पर मुकदमा चलाने की भी मांग की थी। साल, 2006 में सुब्रमण्यम स्वामी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को एक चिट्ठी भी लिखी और इस मामले को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (IJC) में ले जाने की मांग की थी। आज तक भी ये मांग पूरी नहीं हो सकी है। पीड़ित पक्ष के वकील बोले-जमानत के खिलाफ अपील करेंगे
दोषी PAC जवानों को जमानत मिलने के बाद अब पीड़ित पक्ष का रुख क्या रहेगा? यह जानने के लिए हमने पीड़ित पक्ष के अधिवक्ता जुनैद से बात की। उन्होंने बताया- दिल्ली हाईकोर्ट ने पीएसी जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। अब सुप्रीम कोर्ट से इनको जमानत मिल गई है। हम जमानत रद कराने के लिए अपील दायर करेंगे। अपना पक्ष मजबूती से रखेंगे। ————————- ये भी पढ़ें… PAC जवानों ने 38 हत्याएं कर लाशें नदी में बहाईं, 37 साल बाद 10 को जमानत, यूपी के सबसे बड़े नरसंहार की कहानी यूपी का हाशिमपुरा नरसंहार फिर चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर को इस मामले में 10 दोषियों को जमानत दे दी। 1987 में राममंदिर आंदोलन के समय मेरठ में भड़की हिंसा के दौरान यह नरसंहार हुआ था। UP के प्रॉविंशियल आर्म्ड कॉन्स्टब्युलरी (PAC) के अफसरों और जवानों ने 42 से 45 मुस्लिम युवकों को गोली मारी थी। इसमें 38 लोगों की मौत हो गई थी। पढ़ें पूरी खबर… मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार में दोषी 10 PAC जवानों को सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर, 2024 को जमानत दे दी। इन्हें नरसंहार के 31 साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट से उम्रकैद की सजा मिली थी। लेकिन, सिर्फ 6 साल में जेल से बाहर आ गए। इन PAC जवानों ने 22 मई, 1987 को मेरठ में 38 मुस्लिमों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके बाद शव गंगनहर में बहा दिए थे। ज्यादातर की लाश भी नहीं मिल पाई थी। सुप्रीम कोर्ट से जैसे ही दोषी जवानों की जमानत हुई, तो हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों के जख्म फिर से हरे हो गए। बोले- आज भी इंसाफ का इंतजार है। इस हुकूमत से इंसाफ पाने की अब कोई उम्मीद नहीं बची। दैनिक भास्कर हाशिमपुरा पहुंचा। नरसंहार पीड़ित परिवारों का दर्द जाना। अब वो इस केस में क्या करने जा रहे हैं, इसके लीगल पहलुओं को समझा। पढ़िए पूरी रिपोर्ट… क्या था हाशिमपुरा नरसंहार, पहले यह जानिए
साल 1987 में पश्चिमी यूपी के मेरठ में बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर सांप्रदायिक तनाव चल रहा था। इसे लेकर PAC और सेना ने शहर के हाशिमपुरा इलाके में सर्च ऑपरेशन चलाया। इस दौरान PAC की दो राइफलें लूट ली गईं। एक मेजर के रिश्तेदार की हत्या कर दी गई। 22 मई, 1987 को PAC ने 42-45 जवान और बूढ़े लोगों को पकड़ा। उन्हें पूछताछ के बहाने 41वीं बटालियन की C-कंपनी के पीले रंग के ट्रक में भरकर ले गए। उन्हें थाने ले जाने की जगह गाजियाबाद के पास एक नहर पर ले जाया गया। वहां PAC जवानों ने उन लोगों को गोली मार दी। कुछ शवों को गंगनहर और बाकी को हिंडन नदी में फेंक दिया। इसमें 38 लोग मारे गए। ज्यादातर के शव तक नहीं मिले। सिर्फ 11 शवों की पहचान उनके रिश्तेदारों ने की। 5 लोग जुल्फिकार, बाबुद्दीन, मुजीबुर्रहमान, मोहम्मद उस्मान और नईम बच गए। गोलीबारी के दौरान उन्होंने मरने का नाटक किया और तैर कर बाहर निकल गए। ट्रायल कोर्ट ने बरी किया, हाईकोर्ट ने उम्रकैद की सजा दी
जिंदा बचे 5 लोगों की गवाही पर दिल्ली हाईकोर्ट ने PAC के 16 जवानों को 31 अक्टूबर, 2018 को उम्रकैद की सजा सुनाई। कुल 19 जवान दोषी करार दिए। इसमें 3 की पहले ही मौत हो चुकी थी। इन्हीं 16 में से 10 जवानों को सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर, 2024 को जमानत दे दी। सीनियर एडवोकेट अमित आनंद तिवारी ने दलील दी कि ट्रायल कोर्ट ने सबूतों के अभाव में PAC जवानों को बरी कर दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने गलत तथ्यों के आधार पर ट्रायल कोर्ट का फैसला पलटा था। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लेकिन सभी 2018 से जेल में हैं। इस वजह से उन्हें जमानत दी जाए। हाशिमपुरा में छोटी-छोटी गलियां, घरों में खुले कारखाने
दोषियों को SC से जमानत मिलने पर नरसंहार पीड़ित परिवारों का दर्द जानने हम सीधे हाशिमपुरा पहुंचे। मेरठ शहर में हापुड़ अड्डा चौराहा से करीब 300 मीटर दूर हाशिमपुरा इलाका है। यहां छोटी-छोटी गलियां हैं। लंबे अरसे बाद यहां सीमेंटेड सड़क बन रही है, जो ये बताती है कि हाशिमपुरा अब बदल रहा है। मकान पक्के और ऊंचे-ऊंचे बन गए हैं। तंग गलियों में कारखाने लग गए हैं। इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग मेहनत-मजदूरी से जुड़े हैं। वो सुबह 8 बजे घर से मजदूरी पर निकल जाते हैं और शाम को ही लौटते हैं। इस कांड के बाद हाशिमपुरा के ठीक बाहर पुलिस चौकी बना दी गई। इसका नाम हाशिमपुरा पुलिस चौकी है। यहां पर पुलिस के जवान हर वक्त तैनात रहते हैं। अब पीड़ित परिवारों का दर्द समझिए नसीम बानो बोलीं- आरोपी छूट गए और हम वहीं के वहीं रह गए
इस नरसंहार में अपने भाई सिराज को गंवाने वाली नसीम बानो बताती हैं- अलविदा जुमे का दिन था। नमाज पढ़ने का वक्त हो रहा था। तभी PAC मोहल्ले में आ गई। हमारे 21 साल के भाई सिराज को उठाकर ले गई। मोहल्ले से और भी लोग उठाए गए। तब पुलिसवालों ने हमसे ये कहा कि पूछताछ के लिए लेकर जा रहे हैं। तीन-चार दिन बाद हमें पता चला कि पुलिसवालों ने सभी की नहर पर गोली मारकर हत्या कर दी है। आज तक हमारे भाई की बॉडी भी नहीं मिली। इस घटना के बाद हमारा घर बरबाद हो गया। पिता शब्बीर 2 साल बाद ही गुजर गए। इस गम में मां रश्केजहां पागल हो गईं। वो भी 6 साल बाद गुजर गईं। सुप्रीम कोर्ट से आरोपियों को जमानत मिलने के सवाल पर नसीम बानो कहती हैं- इतने साल से लड़ते-लड़ते भी इंसाफ नहीं मिल रहा। हम सिर्फ इंसाफ ही तो चाहते हैं। हमारी लड़ने की औकात नहीं थी, लेकिन अपने बच्चों को इंसाफ दिलाने के लिए हम फिर भी आज तक लड़ ही रहे हैं। इस्लामुद्दीन बोले- मुसलमानों को कभी-कहीं इंसाफ नहीं मिला
रिक्शा चलाने वाले इस्लामुद्दीन बताते हैं- मेरे 16 साल के भाई निजामुद्दीन को मकामी पुलिस, पीएसी और मिलिट्री उठाकर ले गई और हत्या कर दी। CBCID ने जिन 16 मृतकों के फोटो जारी किए थे, उसमें मेरा भाई भी था। डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी ने पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए मुरादनगर गंगनहर से हिंडन नदी तक पदयात्रा निकाली थी। इंसाफ की स्थिति ये है कि आज तक नहीं मिला। आर्थिक मदद भी नहीं मिली। इस्लामुद्दीन बताते हैं- मुलायम सरकार ने मृतकों के परिवारों को 5-5 लाख रुपए जारी किए थे। डीएम के पास जाता हूं तो कभी वारिसान सर्टिफिकेट मांगते हैं, कभी कुछ। मुझे परेशान कर रखा है। मैं आज तक परेशान हूं। दबंगई दिखाकर कहते हैं कि आपके भाई को तो मार दिया, आपको भी मार देंगे। तहसील जाता हूं तो वहां भी दबंगई दिखाते हैं। ऐसे में सिर्फ रोना ही आता है। इस्लामुद्दीन ये सब बताते-बताते रोने लगते हैं। वो कहते हैं- हमें कोर्ट भी इंसाफ नहीं दे रहा। वो भी इन्हीं की हुकूमत है। मुसलमानों को कभी कहीं इंसाफ नहीं मिला। हिंदू होते तो उनके लिए क्या-क्या कर देते? याकूब ने कहा- हमें नहीं लगता इस सरकार में इंसाफ मिलेगा
टेलर की दुकान करने वाले मोहम्मद याकूब बताते हैं- 22 मई को मुझे, छोटे भाई और पापा को पुलिसवाले घर से उठाकर ले गए। गली से बाहर ले जाने के बाद पुलिस ने मुझे और भाई को बच्चों वाले समूह में बैठा दिया। पापा नजर बचाकर बगल में आरा मशीन में छिप गए। मुझे तो जेल भेज दिया, लेकिन भाई को पूछताछ करके छोड़ देने की बात कही। मगर, ऐसा नहीं हुआ। याकूब बताते हैं- उस बच्चा पार्क पर हमारी टेलर की दुकान थी, वो भी जला दी गई। हमारा घर बरबाद हो गया। 30 साल तक हम दुकान भी नहीं कर पाए। अब 3 साल पहले जैसे-तैसे टेलर की दुकान खोली है। ऐसा कोई इंसाफ होता है क्या? 30 साल बाद पीएसी जवानों को उम्रकैद की सजा हुई। इसके बावजूद अब कुछ ही दिन में जमानत दे दी गई। ये इंसाफ हुआ क्या? अदालत ने पीड़ित परिवारों को डेवलप करने का आदेश दिया था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमें नौकरी तक नहीं मिली। हमें तो लगता नहीं कि इस सरकार में कोई इंसाफ मिलेगा। आज जिस तरह के हालात हैं, उसमें कोई उम्मीद नहीं दिखती। ये ले जाओ ईद का तोहफा…
मोहम्मद याकूब की पत्नी ने बताया- पुलिस ने उस वक्त कई लोगों को जेल भेज दिया था। जेल के अंदर उनको पीट-पीटकर मार दिया गया था। उन दिनों ईद आने वाली थी। पुलिस-प्रशासन ने जब मृतकों के परिजनों को लाश देने के लिए बुलाया तो कहा- ये ले जाओ ईद का तोहफा…। आंखों देखी…बाबुद्दीन को 2 गोलियां लगीं, पानी में छिपकर जान बचाई, इन्हीं की गवाही पर PAC जवानों को हुई थी सजा
इस नरसंहार में कुल 5 लोग ऐसे थे, जो पुलिस की गोली लगने के बावजूद बच गए थे और जिंदा लौटने में कामयाब रहे। इन्हीं में से एक बाबुद्दीन हैं। मूलरूप से बिहार के दरभंगा में रहने वाले बाबुद्दीन हाशिमपुरा के एक कारखाने में मजदूरी करते हैं। हम इनसे बातचीत करने के लिए सीधे कारखाने पर पहुंच गए। बाबुद्दीन बताते हैं- 22 मई, 1987 का ये वाकया है। दिन के 2 बज रहे होंगे। हम और वालिद साहब एक मकान के अंदर बैठे थे। अंदर से दरवाजा लॉक था। बाहर से कुंडी खटखटाने की आवाज आई। बोले कि हम पुलिस के आदमी हैं, दरवाजा खोले। बाहर आए तो देखा कि पुलिस, मिलिट्री और पीएसी के जवान खड़े थे। उन्होंने घरों से सभी पुरुषों को बाहर निकाल लिया। हम सभी से हाथ ऊपर करवाए और कहा कि पूछताछ के लिए साथ चलो। गली के बाहर जाकर देखा तो पुलिस ने 300-400 और लोगों को भी इकट्ठा किया हुआ था। वो लोग भी इसी इलाके के रहने वाले थे। उन्हें भी पूछताछ के बहाने इकट्ठा किया गया था। उन सभी को गाड़ी में बैठाकर कहीं लेकर जाया जा रहा था। हम जैसे जिन लड़कों की उम्र 20 साल से कम थी, उन्हें अलग कर दिया गया। फिर शाम हुई तो पुलिसवालों ने हमसे कहा कि अपने घर चले जाओ। घर जाने के लिए हम जैसे ही लाइन लगाकर खड़े हुए, उनमें से 50-54 लोगों को छांटकर अलग बैठा लिया। फिर हमें एक पुलिस ट्रक में बैठाया और कहीं ले जाया गया। रास्ते में गंगनहर आई। वहां पटरी पर ट्रक को अंदर ले जाया गया। पुलिसवालों ने ट्रक से उतार कर एक लड़के को गोली मार दी। यह देख ट्रक में बैठे बाकी लड़कों में चीख-पुकार मच गई। इस पर पुलिसवाले घबरा गए और उन्होंने पूरे ट्रक पर गोलियां चला दीं। मुझे भी बाईं पसली के पास एक गोली लगी। जो लोग बच गए, उन्हें नीचे उतार कर गोली मारी गई। एक पुलिसवाले ने मेरे दोनों हाथ पकड़े, दूसरे ने मेरे सीने में गोली मारी। इसके बाद लाशों को वहीं फेंककर PAC का ट्रक चला गया। कुछ देर बाद लोकल पुलिस आई। वो नहर की झाड़ियों में टॉर्च मारकर देख रही थी। मुझे लगा कि वो पुलिसवाले दोबारा आ गए हैं। मैं डर की वजह से नहर के अंदर पानी में छिप गया और भागता रहा। कुछ दूर तक पुलिसवालों ने मेरा पीछा किया और गोली मारने की धमकी दी। इसके बाद मैं नहर से बाहर निकला। फिर उन्होंने मुझसे पूछताछ की और हॉस्पिटल में भर्ती कराया। मैं करीब 21 दिन तक गाजियाबाद के हॉस्पिटल में भर्ती रहा, तब घर लौट सका। बाबुद्दीन कहते हैं- हमें दिल्ली हाईकोर्ट से इंसाफ मिला। PAC जवानों को सजा हुई। मेरी गवाही पर उन सबको सजा हुई। मैंने कोर्ट को वही सब बताया था, जो हम लोगों के साथ हुआ था। मेरठ में 24 घंटे में हुए थे दो दंगे, हाशिमपुरा और मलियाना
मई, 1987 में मेरठ शहर में एक दिन के अंतराल पर दो ऐसे दंगे हुए, जिन्होंने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। इसकी शुरुआत फरवरी, 1986 में हुई। केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दिया तो वेस्ट यूपी में माहौल गरमा उठा। 14 अप्रैल, 1987 से ये विवाद मेरठ में धार्मिक उन्माद का रूप ले बैठा। कई दुकान-मकान जला दिए गए। लोगों की सरेराह हत्या हुईं। ये घटनाक्रम मेरठ में इसी तरह महीनेभर तक चला। सेना तक लगा दी गई, लेकिन हालात काबू में नहीं आए। 22 मई, 1987 को PAC जवानों ने 38 मुसलमानों का सामूहिक नरसंहार कर दिया। इस वारदात के 24 घंटे बाद ही 23 मई, 1987 को हाशिमपुरा से सात किलोमीटर दूर मलियाना भी दंगे की चपेट में आ गया। 106 घर आग के हवाले कर दिए गए। हाशिमपुरा नरसंहार से कितनी बदली सियासत?
मेरठ में PAC जवानों ने जब 38 मुसलमानों की हत्या करके लाश नहर में डाली तो वो बहते हुए गाजियाबाद तक पहुंच गईं। उस वक्त गाजियाबाद के SSP विभूति नारायण राय थे। उन्होंने PAC जवानों पर थाना मुरादनगर और लिंक रोड में हत्या के दो मुकदमे दर्ज कराए। विभूति नारायण राय ने ‘हाशिमपुरा 22 मई : द फॉरगॉटन स्टोरी ऑफ इंडियाज बिगेस्ट कस्टोडियल’ किताब लिखी है। इसमें उन्होंने बताया है कि 1987 के दंगों के दौरान मोहसिना किदवई मेरठ से सांसद थीं। वो शहरी विकास मंत्री और कांग्रेस में प्रमुख मुस्लिम चेहरा थीं। हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों ने दिल्ली में मोहसिना किदवई के घर पहुंचकर उनसे संपर्क किया, लेकिन उन्हें कोई मदद नहीं मिली। हालांकि घर से किसी ने पीड़ित परिवारों को सलाह दी कि वो सांसद सैयद शहाबुद्दीन से संपर्क करें। इस दंगे के विरोध में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के प्रमुख चेहरे और केंद्रीय मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। कहा जाता है कि 30 मई, 1987 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी मेरठ आए, लेकिन हाशिमपुरा नहीं गए। इस कांड के बाद कांग्रेस से मुस्लिम वोट छिटकता गया। UP में 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 269 विधायक थे, जो 1989 में घटकर 94 रह गए। कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोट सपा को ट्रांसफर हो गए। 1989 में मुलायम सिंह यादव पहली बार UP के मुख्यमंत्री बने। मौजूदा परिदृश्य में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सिर्फ 2 विधायक रह गए हैं। हाशिमपुरा नरसंहार के वक्त सुब्रमण्यम स्वामी जनता पार्टी में हुआ करते थे। उन्होंने मेरठ गंगनहर से गाजियाबाद हिंडन नदी तक पदयात्रा की। बोट क्लब पर आमरण अनशन पर बैठे। पीड़ितों को न्याय देने की मांग की। नरसंहार के लिए तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री पी. चिदंबरम को दोषी ठहराते हुए उन पर मुकदमा चलाने की भी मांग की थी। साल, 2006 में सुब्रमण्यम स्वामी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को एक चिट्ठी भी लिखी और इस मामले को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (IJC) में ले जाने की मांग की थी। आज तक भी ये मांग पूरी नहीं हो सकी है। पीड़ित पक्ष के वकील बोले-जमानत के खिलाफ अपील करेंगे
दोषी PAC जवानों को जमानत मिलने के बाद अब पीड़ित पक्ष का रुख क्या रहेगा? यह जानने के लिए हमने पीड़ित पक्ष के अधिवक्ता जुनैद से बात की। उन्होंने बताया- दिल्ली हाईकोर्ट ने पीएसी जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। अब सुप्रीम कोर्ट से इनको जमानत मिल गई है। हम जमानत रद कराने के लिए अपील दायर करेंगे। अपना पक्ष मजबूती से रखेंगे। ————————- ये भी पढ़ें… PAC जवानों ने 38 हत्याएं कर लाशें नदी में बहाईं, 37 साल बाद 10 को जमानत, यूपी के सबसे बड़े नरसंहार की कहानी यूपी का हाशिमपुरा नरसंहार फिर चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर को इस मामले में 10 दोषियों को जमानत दे दी। 1987 में राममंदिर आंदोलन के समय मेरठ में भड़की हिंसा के दौरान यह नरसंहार हुआ था। UP के प्रॉविंशियल आर्म्ड कॉन्स्टब्युलरी (PAC) के अफसरों और जवानों ने 42 से 45 मुस्लिम युवकों को गोली मारी थी। इसमें 38 लोगों की मौत हो गई थी। पढ़ें पूरी खबर…   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर