छात्र आंदोलन से चमके, राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री बने:6 नेताओं ने संभाली प्रदेश की सत्ता; इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के ऐसे छात्रों की कहानी स्टूडेंट्स के प्रदर्शन को लेकर प्रयागराज एक बार फिर सुर्खियों में है। ये वही प्रयागराज (तब इलाहाबाद) है, जहां की छात्र राजनीति ने देश को कई नामी चेहरे दिए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकले नेताओं ने देश के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का पद भी संभाला। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ऐसे 6 नाम हैं जो स्टूडेंट पॉलिटिक्स से चमके और आगे चल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। संडे बिग स्टोरी में पढ़िए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से निकले कुछ नेताओं की चर्चित और दिलचस्प कहानियां… इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से निकले 6 सीएम
इलाहाबाद विवि से पढ़ने वालों में यूपी के पूर्व सीएम पंडित गोविंद बल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी समेत 6 सीएम का नाम शामिल है। दिल्ली के सीएम रहे मदन लाल खुराना ने भी यहीं से पढ़ाई की। उत्तराखंड के सीएम रहे विजय बहुगुणा और एमपी के सीएम डॉ. अर्जुन सिंह ने भी यहीं से पढ़ाई की है। बहुगुणा ने किया ‘करो या मरो’ आंदोलन का नेतृत्व
इलाहाबाद की पूर्व सांसद और इलाहाबाद विवि की पूर्व प्रोफेसर रीता बहुगुणा जोशी के पिता और यूपी के पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा की राजनीतिक यात्रा भी इलाहाबाद विवि से शुरू हुई। रीता बहुगुणा जोशी बताती हैं कि 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी सहित अन्य नेता मुंबई में गिरफ्तार हुए थे। जेल जाने से पहले महात्मा गांधी ने नारा दिया अंग्रेजों भारत छोड़ो, करो या मरो। आमतौर पर महात्मा गांधी युवाओं की शिक्षा पर ही जोर देते थे। लेकिन पहली बार उन्होंने आजादी आंदोलन में युवाओं की भागीदारी का आह्वान किया। रीता बहुगुणा ने बताया कि उस दौरान इलाहाबाद विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष अंडरग्राउंड हो गए थे। इसलिए छात्रों ने हेमवती नंदन बहुगुणा को विवि छात्रसंघ का डिक्टेटर चुना। हेमवंती नंदन के नेतृत्व में 12 अगस्त 1942 को इलाहाबाद में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के तहत जुलूस निकाला गया। जुलूस जब कचहरी होते हुए चौक तक जाने लगा तो तत्कालीन डीएम और पुलिस कोतवाल ने उन्हें रोका। पुलिस ने धमकी दी की यदि छात्र नहीं लौटे तो फायरिंग होगी। इतने में डीएम ने आकर बहुगुणा से कहा कि तुम क्या आंदोलन करोगे, तुम्हारे साथ कोई नहीं है। इतने में ही एक लड़का लालपद्मधर आया, उसने बहुगुणा के हाथ से तिरंगा झंडा लेते हुए कहा कि ये अकेले नहीं हैं इनके साथ हजारों छात्र हैं। यह कहते हुए लालपद्मधर आगे बढ़े तो पुलिस ने उन्हें गोली मार दी, उनकी मौके पर ही मौत हो गई। इसके बाद पूरे इलाहाबाद में बड़ा आंदोलन हुआ। वहां से बहुगुणा राजनीति में आगे बढ़े। चंद्रशेखर की दाढ़ी की भी है दिलचस्प कहानी
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ही एक चेहरा निकलकर आया चंद्रशेखर का, जिन्होंने बाद में पीएम का पद संभाला। बलिया में जन्म लेने वाले चंद्रशेखर जब छात्र नेता थे, तभी से दाढ़ी रखते थे। इसके पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। चंद्रशेखर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदू हॉस्टल में रहते थे। हॉस्टल में उनके एक दोस्त को टीबी की बीमारी हो गई थी। उसे एक इंटरव्यू के लिए जयपुर जाना था। उसने चंद्रशेखर से साथ चलने को कहा। चंद्रशेखर चल दिए। चंद्रशेखर को क्लीनशेव रहने की आदत थी। वहां जयपुर में वह कई दिनों तक दाढ़ी नहीं बनवा पाए। वापस लौटे तो साथ के स्टूडेंट्स ने कहा दाढ़ी आप पर अच्छी लग रही है। तभी से चंद्रशेखर दाढ़ी रखने लगे। चंद्रशेखर निडर और बेखौफ नेता थे। जब वह राजनीति का बड़ा चेहरा बन गए तो कुछ लोगों ने उन्हें शेव करने की सलाह दी। चंद्रशेखर हमेशा एक ही बात दोहराते कि मेरी दाढ़ी का मेरी राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। रामबहादुर राय की किताब ‘रहबरी के सवाल’ में चंद्रशेखर बताते हैं, 1951 में राजनीति शास्त्र से एमए करने फिर से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पहुंचा। हिन्दू हॉस्टल को ठिकाना बनाया। शुरू में थोड़ी बहुत दिक्कत हुई लेकिन जल्द ही वहां के माहौल में रम गया। इसी साल मैं सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गया और समाजवाद के लिए काम करने लगा। छात्र राजनीति से निकलकर राजनीति के कद्दावर नेता बने वीपी सिंह
यूपी के सीएम और फिर पीएम बनने वाले वीपी सिंह की राजनीति भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से चमकी। वीपी सिंह ने छात्र जीवन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष चुने जाने के बाद विधायक, यूपी के मुख्यमंत्री, देश के वित्तमंत्री, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया। 25 जून 1931 को इलाहाबाद के राजपूत परिवार में जन्म लेने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने शुरुआती पढ़ाई के बाद 1947 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। छात्रसंघ के उपाध्यक्ष होने के दौरान हुए आंदोलनों में वह सक्रिय हो गए। 1957 में भूदान आंदोलन के दौरान उनके नेतृत्व में बड़ी संख्या में युवा जुटे। युवाओं की संख्या देखने के बाद राजनीति के जानकारों ने कह दिया था कि देश में एक बड़ा नेता उभर रहा है। इस आंदोलन के दौरान वीपी सिंह ने भी जमीन दान की थी। बाद में यूपी की राजनीति के ताकतवर नेता बने। 1980 में राज्य की कमान संभाली। 1984 में केंद्रीय मंत्री बने। बाद में प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया। नाटकीय ढंग से PM बने थे वीपी सिंह
1 दिसंबर, 1989 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में जनता दल की संसदीय बैठक आयोजित हुई। जैसे ही बैठक शुरू हुई मधु दंडवते ने वीपी सिंह से प्रस्ताव रखने के लिए कहा। वीपी सिंह ने ताऊ देवीलाल को पीएम बनाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन देवीलाल बोले, ‘मुझे हरियाणा में ताऊ कहते हैं। यहां भी ताऊ ही बना रहना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनें। मैं अपना नाम वापस लेता हूं। अजीत सिंह ने इस प्रस्ताव को अनुमोदित किया और दंडवते ने वीपी के निर्वाचन की घोषणा कर दी। वीपी सिंह कुछ फैसलों को लेकर कंट्रोवर्सी में रहे। मंडल कमीशन लागू करने पर उनका विरोध भी हुआ। दिल्ली यूनिवर्सिटी से लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उनके फैसले के खिलाफ आंदोलन हुआ। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ही लोकप्रिय हुए थे एनडी तिवारी
इलाहाबाद विवि के पूर्व छात्रसंघ उपाध्यक्ष अभय अवस्थी बताते हैं कि एनडी तिवारी 1942 से लेकर 47 तक विवि के छात्र रहे। सन 1947 में जब देश आजाद हुआ, तो एनडी तिवारी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के निर्वाचित छात्रसंघ अध्यक्ष थे। एनडी तिवारी का इलाहाबाद से गहरा लगाव रहा है। केंद्रीय मंत्री और तीन बार यूपी का सीएम बनने के बाद भी वह इलाहाबाद आने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के बाद भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनाव में लम्बे अरसे तक उनका दखल हुआ करता था। वजह भी खास थी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का अध्यक्ष बनकर ही उन्होंने न सिर्फ यूपी बल्कि पूरे देश में अपनी अलग पहचान बना ली थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष रहने के बाद मिली लोकप्रियता के बूते उन्होंने पहले विधानसभा चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के बैनर पर चुनाव लड़कर कांग्रेस उम्मीदवार को बुरी तरह हराया था। तिवारी के अध्यक्ष बनने के बाद नेहरू बतौर देश के पहले प्रधानमंत्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में आए और विश्वविद्यालय को संबोधित किया। तिवारी क्रांतिकारी नेता के रूप में जाने जाते थे, जिन्होंने कई बड़े आंदोलनों की अगुवाई की। मुरली मनोहर जोशी की कुर्सी पर वर्षों तक कोई नहीं बैठा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और विवि के प्रोफेसर के.एन.उत्तम बताते हैं कि पूर्व पीएम वीपी सिंह भी मुरली मनोहर जोशी के शिष्य रहे हैं। उन्हें पीएचडी के दौरान ही विवि में नियुक्ति मिली थी। मुरली मनोहर जोशी ने इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय (इविवि) के भौतिक विज्ञान विभाग में 26 साल तक शिक्षण कार्य किया। डॉ. जोशी जिस कुर्सी पर बैठा करते थे वह कुर्सी सालों तक खाली रही। उनकी कुर्सी पर कोई शिक्षक नहीं बैठा। विभाग के शिक्षक और अध्यक्ष शोध कक्ष में उसके बगल दूसरी कुर्सी लगाकर बैठते हैं। वह कुर्सी और टेबल आज भी संदेश देने के लिए सुरक्षित है कि साधारण कुर्सी पर बैठकर वह पढ़ाया करते थे। उनकी ओर से प्रयोगशाला के लिए बनाए गए उपकरण भी सुरक्षित है। एमएससी की उपाधि लेने के बाद डॉ. जोशी बतौर नॉन पीएचडी कैंडिडेट वर्ष 1956 में इविवि में अस्थायी लेक्चरर बने और अध्यापन शुरू किया। फिर प्रो. देवेंद्र शर्मा के निर्देशन में पीएचडी की डिग्री हासिल की। वर्ष 1972 में रीडर और फिर 1984 में पर्सनल प्रमोशन स्कीम के तहत प्रोफेसर नियुक्त हुए। वर्ष 1989 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (आटा) के अध्यक्ष रहे। फोटोग्राफी में गहरी रुचि रखने वाले डॉ. जोशी के निर्देशन में कुल 13 लोगों ने पीएचडी की जबकि एक ने डॉक्टर ऑफ साइंस (डीएससी) की उपाधि। वर्ष 1963 में उनके पहले शोधार्थी राघवेंद्र एमदागनी रहे। वह बाद में कनाडा चले गए। 1960 में पहला शोध पत्र विज्ञान अनुसंधान पत्रिका में हिंदी में प्रकाशित हुआ था। इसी साल दिल्ली में प्रदर्शनी लगी थी। डॉ. जोशी इसमें बतौर प्रतिभागी शामिल हुए। वहां उनके निर्देशन में तैयार मॉडल रखा गया था, जिसे सराहना मिली थी, ईंट और पत्थर से बने रंगेपासन (स्पेक्ट्रोग्राफ) को उन्होंने बाद में इविवि को सौंप दिया। यूनिवर्सिटी का ये किस्सा भी मशहूर… पंचर वाले की बेटी के लिए शुरू हुई पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ पदाधिकारी अनुग्रह नारायण सिंह बताते हैं कि यूपी के विश्वविद्यालयों में पूनर्मूल्यांकन और यूपीएससी में स्कैलिंग की व्यवस्था इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के आंदोलन के बाद ही लागू हुई। 1974 में विश्वविद्यालय की छात्रा पार्वती गुप्ता विश्वविद्यालय में भूगोल विषय की मेधावी छात्रा थीं। वह बहुत गरीब परिवार से थीं, उनके पिता विवि के बाहर ही साइकिल का पंचर जोड़ने का काम करते थे। बीए प्रथम वर्ष में वह विवि में द्वितीय स्थान पर रहीं लेकिन द्वितीय वर्ष में उनका नाम सूची से ही गायब कर दिया गया। इसके बाद छात्रों ने आंदोलन किया, आंदोलन इतना बड़ा हुआ कि विवि के तत्कालीन कुलपति रामसहाय ने पूनर्मूल्यांकन व्यवस्था लागू की। इससे शिक्षकों की ओर से छात्रों का शोषण बंद हुआ। उन्होंने कहा कि 1980-81 में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में स्केलिंग की मांग उठी। छात्रों ने इसकी मांग की तो उन्होंने विश्वविद्यालय के छात्रों को लेकर आंदोलन खड़ा किया। छात्रों की मांग के आगे आयोग और सरकार को स्केलिंग की व्यवस्था लागू करनी पड़ी। उसके बाद ही प्रदेश के अन्य विवि में पूनर्मूल्यांकन की व्यवस्था शुरू हुई। हिंदी आंदोलन को भी दी थी धार
अनुग्रह नारायण सिंह बताते हैं कि 1967-68 के दौर में जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने हिंदी आंदोलन चलाया तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय ही सबसे आगे रहा। विश्वविद्यालय के तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष मोहन सिंह ने कई महीनों तक आंदोलन कर अंग्रेजी के बोर्ड हटाए। हिंदी आंदोलन का केंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय रहा। —————————– ये भी पढ़ें… यूपी में बदले की तीन कहानियां:बाप का, दादा का, भाई का बदला लेने के लिए मर्डर; 28 साल से सीने में धधक रही थी आग बाप का, दादा का, भाई का…सबका बदला लेगा फैजल। गैंग्स ऑफ वासेपुर का ये डायलॉग सिर्फ फिल्म तक सीमित नहीं रह गया है। यूपी में 20 दिन में कुछ इसी तर्ज पर बदले में हत्या की तीन कहानियां सामने आई हैं। पीतल नगरी मुरादाबाद में 14 साल के बेटे की मौत का बदला लेने के लिए मां ही बेटों से कहती है- भाई का बदला नहीं लोगे क्या? बार-बार जोर देने पर बेटे ने दोस्त के साथ इस तरह वारदात को अंजाम दिया कि किसी की भी रूह कांप जाए। पढ़ें पूरी खबर…