श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद पर दाखिल हिंदू पक्ष की 18 याचिकाओं को हाईकोर्ट ने सुनने योग्य मान लिया। यह मुस्लिम पक्ष के लिए बड़ा झटका है। सवाल उठता है कि इन याचिकाओं में हिंदू पक्ष की ऐसी कौन-सी मांगे हैं, जिन पर मुस्लिम पक्ष को एतराज था। दैनिक भास्कर ने केस लड़ रहे वकीलों से यही सवाल पूछे, तो जवाब चौंकाने वाले मिले। 18 अलग-अलग याचिकाओं में 9 पॉइंट्स एक जैसे मिले। पहले उन्हें जानिए… अपने पक्ष को मजबूती देने के लिए हिंदू पक्ष की तरफ से जो दलीलें दी गईं। वो पढ़िए… जज ने कहा – ऐसे केस को न सुनना अनुचित होगा
कोर्ट ने फैसले के मुख्य अंश को पढ़ते हुए जज ने कहा- हिंदू उपासकों और देवताओं के वाद सुनवाई के योग्य माना जाता है। हिंदू उपासकों, देवता संबंधित वाद पर पूजा स्थल अधिनियम के तहत रोक नहीं है। ऐसे वाद न सुनना अनुचित होगा। इसके साथ ही कोर्ट ने प्रबंध समिति ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह (मथुरा) की दी गई दलील भी खारिज कर दी कि हाईकोर्ट में लंबित वादों पर पूजा स्थल अधिनियम 1991, परिसीमा अधिनियम 1963 और विशिष्ट राहत अधिनियम 1963 के तहत रोक है। 7 लोगों ने दाखिल की हैं 18 याचिकाएं
18 याचिकाएं भगवान श्री कृष्ण विराजमान और 7 अन्य लोगों ने वकील हरिशंकर जैन, विष्णु शंकर जैन, प्रभाष पांडेय और देवकी नंदन के जरिए दायर की गईं हैं। इस केस में हिन्दू वादियों का प्रतिनिधित्व एडवोकेट हरि शंकर जैन, विष्णु शंकर जैन, रीना एन सिंह, महेंद्र प्रताप सिंह, अजय कुमार सिंह, हरे राम त्रिपाठी, प्रभाष पांडे, विनय शर्मा, गौरव कुमार, राधेश्याम यादव, सौरभ तिवारी, सिद्धार्थ श्रीवास्तव, आशीष कुमार श्रीवास्तव, अश्विनी कुमार श्रीवास्तव और आशुतोष पांडे ने किया। अब श्रीकृष्ण जन्मस्थल और शाही ईदगाह मामले का पूरा विवाद समझिए… जिला कोर्ट में पहली याचिका, जिससे मथुरा विवाद ने पकड़ा तूल नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में फैसला सुनाया। इसके 10 महीने बाद ही एक और विवाद ने तूल पकड़ लिया। 25 सितंबर, 2020 को पहली बार इस मामले में मथुरा जिला अदालत में याचिका दायर की गई थी। 5 दिन बाद ही 30 सितंबर को एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज छाया शर्मा ने इस याचिका को ये कहकर खारिज कर दिया था कि भगवान श्रीकृष्ण के पूरी दुनिया में उनके असंख्य भक्त एवं श्रद्धालु हैं। अगर हर भक्त की याचिका पर सुनवाई की इजाजत देंगे तो न्यायिक एवं सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। साथ ही डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने कहा था कि याचिकाकर्ता न तो पक्षकार हैं और न ही ट्रस्टी, इसलिए ये याचिका खारिज की जाती है। बिना देर किए 30 सितंबर को ही इस मामले में पुनर्विचार याचिका दायर की गई। दोनों पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने याचिका को स्वीकार लिया। अभी लोअर कोर्ट में मामले की सुनवाई चल ही रही थी कि 26 मई 2023 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मथुरा विवाद से जुड़े सभी मामलों को अपने पास ट्रांसफर करा लिया। 4 महीने तक अलग-अलग मौकों पर हुई सुनवाई के बाद 16 नवंबर को आदेश सुरक्षित रख लिया गया था। 14 दिसंबर को हाईकोर्ट ने ईदगाह मस्जिद का सर्वे कराने की अनुमति दी। अगले ही दिन 15 दिसंबर को मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी सर्वे की इजाजत दे दी है। 2020 की जिस याचिका पर आदेश जारी हुआ, उसमें क्या मांग की गई?
2020 में लखनऊ की वकील रंजना अग्निहोत्री ने 6 अन्य लोगों के साथ मिलकर सिविल कोर्ट में एक याचिका डाली थी। याचिका में शाही ईदगाह मस्जिद को मंदिर परिसर से हटाने की मांग की गई थी। रंजना ने श्रीराम जन्म भूमि पर भी एक किताब लिखी थी। उन्होंने श्रीकृष्ण विराजमान के परिजन की ओर से यह मुकदमा करने का दावा किया था। याचिकाकर्ताओं में से एक महेंद्र सिंह अपने तर्क में कहा था कि जिस मूल कारागार, यानी जेल में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था, वह ईदगाह मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी की ओर से बनाए गए कंस्ट्रक्शन के नीचे है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि खुदाई के बाद कोर्ट के सामने सही तथ्य आ सकेंगे। सितंबर, 2020 में जज छाया शर्मा ने सुनवाई के आधार पर याचिका को खारिज कर दिया था। जज ने कहा था कि अग्निहोत्री और अन्य याचिकाकर्ताओं के पास ठिकाना नहीं था और जब मंदिर प्रबंधन प्राधिकरण पहले से मौजूद है, तो वे देवता के निकटतम परिजन नहीं हो सकते। कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर और शाही ईदगाह के बीच 1968 में समझौता हुआ था, जिसे बाद में अदालत के एक फरमान के जरिए औपचारिक रूप दिया गया था। विवादित भूमि पर है किसका अधिकार?
1965 में प्रकाशित काशी के एक गजट के अनुसार इस मस्जिद का निर्माण एक पुराने मंदिर की जगह कराया गया था। इस इलाके को नजूल भूमि यानी गैर-कृषि भूमि माना जाता है। इस पर पहले मराठों और बाद में अंग्रेजों का आधिपत्य था। 1815 में बनारस के राजा पटनी मल ने 13.37 एकड़ की यह भूमि ईस्ट इंडिया कंपनी से एक नीलामी में खरीदी थी, जिस पर ईदगाह मस्जिद बनी है और जिसे भगवान कृष्ण का जन्म स्थान माना जाता है। राजा पटनी मल के वंशजों ने ये भूमि जुगल किशोर बिड़ला को बेच दी थी और ये पंडित मदन मोहन मालवीय, गोस्वामी गणेश दत्त और भीकेन लालजी आत्रेय के नाम पर रजिस्टर्ड हुई थी। जुगल किशोर ने श्रीकृष्ण जन्म भूमि ट्रस्ट नाम से एक ट्रस्ट बनाया, जिसने कटरा केशव देव मंदिर के स्वामित्व का अधिकार हासिल कर लिया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि 1968 का यह समझौता धोखाधड़ी से किया गया था और कानूनी रूप से वैध नहीं है। 1968 में हुआ समझौता क्या था?
1946 में जुगल किशोर बिड़ला ने जमीन की देखरेख के लिए श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाया था। साल 1967 में जुगल किशोर की मृत्यु हो गई। कोर्ट के रिकॉर्ड के अनुसार, 1968 से पहले परिसर बहुत विकसित नहीं था। साथ ही 13.37 एकड़ भूमि पर कई लोग बसे हुए थे। 1968 में ट्रस्ट ने मुस्लिम पक्ष से एक समझौता कर लिया। इसके तहत शाही ईदगाह मस्जिद का पूरा मैनेजमेंट मुस्लिमों को सौंप दिया। 1968 में हुए समझौते के बाद परिसर में रह रहे मुस्लिमों को इसे खाली करने को कहा गया। मस्जिद और मंदिर को एक साथ संचालित करने के लिए बीच दीवार बना दी गई। समझौते में यह भी तय हुआ कि मस्जिद में मंदिर की ओर कोई खिड़की, दरवाजा या खुला नाला नहीं होगा। मतलब ये है कि यहां उपासना के दो स्थल एक दीवार से अलग होते हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी मामले में देवता के अधिकारों को समझौते से खत्म नहीं किया जा सकता है, क्योंकि देवता कार्यवाही का हिस्सा नहीं थे। श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद पर दाखिल हिंदू पक्ष की 18 याचिकाओं को हाईकोर्ट ने सुनने योग्य मान लिया। यह मुस्लिम पक्ष के लिए बड़ा झटका है। सवाल उठता है कि इन याचिकाओं में हिंदू पक्ष की ऐसी कौन-सी मांगे हैं, जिन पर मुस्लिम पक्ष को एतराज था। दैनिक भास्कर ने केस लड़ रहे वकीलों से यही सवाल पूछे, तो जवाब चौंकाने वाले मिले। 18 अलग-अलग याचिकाओं में 9 पॉइंट्स एक जैसे मिले। पहले उन्हें जानिए… अपने पक्ष को मजबूती देने के लिए हिंदू पक्ष की तरफ से जो दलीलें दी गईं। वो पढ़िए… जज ने कहा – ऐसे केस को न सुनना अनुचित होगा
कोर्ट ने फैसले के मुख्य अंश को पढ़ते हुए जज ने कहा- हिंदू उपासकों और देवताओं के वाद सुनवाई के योग्य माना जाता है। हिंदू उपासकों, देवता संबंधित वाद पर पूजा स्थल अधिनियम के तहत रोक नहीं है। ऐसे वाद न सुनना अनुचित होगा। इसके साथ ही कोर्ट ने प्रबंध समिति ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह (मथुरा) की दी गई दलील भी खारिज कर दी कि हाईकोर्ट में लंबित वादों पर पूजा स्थल अधिनियम 1991, परिसीमा अधिनियम 1963 और विशिष्ट राहत अधिनियम 1963 के तहत रोक है। 7 लोगों ने दाखिल की हैं 18 याचिकाएं
18 याचिकाएं भगवान श्री कृष्ण विराजमान और 7 अन्य लोगों ने वकील हरिशंकर जैन, विष्णु शंकर जैन, प्रभाष पांडेय और देवकी नंदन के जरिए दायर की गईं हैं। इस केस में हिन्दू वादियों का प्रतिनिधित्व एडवोकेट हरि शंकर जैन, विष्णु शंकर जैन, रीना एन सिंह, महेंद्र प्रताप सिंह, अजय कुमार सिंह, हरे राम त्रिपाठी, प्रभाष पांडे, विनय शर्मा, गौरव कुमार, राधेश्याम यादव, सौरभ तिवारी, सिद्धार्थ श्रीवास्तव, आशीष कुमार श्रीवास्तव, अश्विनी कुमार श्रीवास्तव और आशुतोष पांडे ने किया। अब श्रीकृष्ण जन्मस्थल और शाही ईदगाह मामले का पूरा विवाद समझिए… जिला कोर्ट में पहली याचिका, जिससे मथुरा विवाद ने पकड़ा तूल नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में फैसला सुनाया। इसके 10 महीने बाद ही एक और विवाद ने तूल पकड़ लिया। 25 सितंबर, 2020 को पहली बार इस मामले में मथुरा जिला अदालत में याचिका दायर की गई थी। 5 दिन बाद ही 30 सितंबर को एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज छाया शर्मा ने इस याचिका को ये कहकर खारिज कर दिया था कि भगवान श्रीकृष्ण के पूरी दुनिया में उनके असंख्य भक्त एवं श्रद्धालु हैं। अगर हर भक्त की याचिका पर सुनवाई की इजाजत देंगे तो न्यायिक एवं सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। साथ ही डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने कहा था कि याचिकाकर्ता न तो पक्षकार हैं और न ही ट्रस्टी, इसलिए ये याचिका खारिज की जाती है। बिना देर किए 30 सितंबर को ही इस मामले में पुनर्विचार याचिका दायर की गई। दोनों पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने याचिका को स्वीकार लिया। अभी लोअर कोर्ट में मामले की सुनवाई चल ही रही थी कि 26 मई 2023 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मथुरा विवाद से जुड़े सभी मामलों को अपने पास ट्रांसफर करा लिया। 4 महीने तक अलग-अलग मौकों पर हुई सुनवाई के बाद 16 नवंबर को आदेश सुरक्षित रख लिया गया था। 14 दिसंबर को हाईकोर्ट ने ईदगाह मस्जिद का सर्वे कराने की अनुमति दी। अगले ही दिन 15 दिसंबर को मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी सर्वे की इजाजत दे दी है। 2020 की जिस याचिका पर आदेश जारी हुआ, उसमें क्या मांग की गई?
2020 में लखनऊ की वकील रंजना अग्निहोत्री ने 6 अन्य लोगों के साथ मिलकर सिविल कोर्ट में एक याचिका डाली थी। याचिका में शाही ईदगाह मस्जिद को मंदिर परिसर से हटाने की मांग की गई थी। रंजना ने श्रीराम जन्म भूमि पर भी एक किताब लिखी थी। उन्होंने श्रीकृष्ण विराजमान के परिजन की ओर से यह मुकदमा करने का दावा किया था। याचिकाकर्ताओं में से एक महेंद्र सिंह अपने तर्क में कहा था कि जिस मूल कारागार, यानी जेल में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था, वह ईदगाह मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी की ओर से बनाए गए कंस्ट्रक्शन के नीचे है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि खुदाई के बाद कोर्ट के सामने सही तथ्य आ सकेंगे। सितंबर, 2020 में जज छाया शर्मा ने सुनवाई के आधार पर याचिका को खारिज कर दिया था। जज ने कहा था कि अग्निहोत्री और अन्य याचिकाकर्ताओं के पास ठिकाना नहीं था और जब मंदिर प्रबंधन प्राधिकरण पहले से मौजूद है, तो वे देवता के निकटतम परिजन नहीं हो सकते। कोर्ट ने यह भी कहा कि मंदिर और शाही ईदगाह के बीच 1968 में समझौता हुआ था, जिसे बाद में अदालत के एक फरमान के जरिए औपचारिक रूप दिया गया था। विवादित भूमि पर है किसका अधिकार?
1965 में प्रकाशित काशी के एक गजट के अनुसार इस मस्जिद का निर्माण एक पुराने मंदिर की जगह कराया गया था। इस इलाके को नजूल भूमि यानी गैर-कृषि भूमि माना जाता है। इस पर पहले मराठों और बाद में अंग्रेजों का आधिपत्य था। 1815 में बनारस के राजा पटनी मल ने 13.37 एकड़ की यह भूमि ईस्ट इंडिया कंपनी से एक नीलामी में खरीदी थी, जिस पर ईदगाह मस्जिद बनी है और जिसे भगवान कृष्ण का जन्म स्थान माना जाता है। राजा पटनी मल के वंशजों ने ये भूमि जुगल किशोर बिड़ला को बेच दी थी और ये पंडित मदन मोहन मालवीय, गोस्वामी गणेश दत्त और भीकेन लालजी आत्रेय के नाम पर रजिस्टर्ड हुई थी। जुगल किशोर ने श्रीकृष्ण जन्म भूमि ट्रस्ट नाम से एक ट्रस्ट बनाया, जिसने कटरा केशव देव मंदिर के स्वामित्व का अधिकार हासिल कर लिया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि 1968 का यह समझौता धोखाधड़ी से किया गया था और कानूनी रूप से वैध नहीं है। 1968 में हुआ समझौता क्या था?
1946 में जुगल किशोर बिड़ला ने जमीन की देखरेख के लिए श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाया था। साल 1967 में जुगल किशोर की मृत्यु हो गई। कोर्ट के रिकॉर्ड के अनुसार, 1968 से पहले परिसर बहुत विकसित नहीं था। साथ ही 13.37 एकड़ भूमि पर कई लोग बसे हुए थे। 1968 में ट्रस्ट ने मुस्लिम पक्ष से एक समझौता कर लिया। इसके तहत शाही ईदगाह मस्जिद का पूरा मैनेजमेंट मुस्लिमों को सौंप दिया। 1968 में हुए समझौते के बाद परिसर में रह रहे मुस्लिमों को इसे खाली करने को कहा गया। मस्जिद और मंदिर को एक साथ संचालित करने के लिए बीच दीवार बना दी गई। समझौते में यह भी तय हुआ कि मस्जिद में मंदिर की ओर कोई खिड़की, दरवाजा या खुला नाला नहीं होगा। मतलब ये है कि यहां उपासना के दो स्थल एक दीवार से अलग होते हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी मामले में देवता के अधिकारों को समझौते से खत्म नहीं किया जा सकता है, क्योंकि देवता कार्यवाही का हिस्सा नहीं थे। उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर