गोवर्धन पर्वत को श्राप…तिल-तिल घट रहा:अब 30 मीटर बची ऊंचाई; गुरु पूर्णिमा पर परिक्रमा के लिए दो करोड़ लोग पहुंचेंगे

गोवर्धन पर्वत को श्राप…तिल-तिल घट रहा:अब 30 मीटर बची ऊंचाई; गुरु पूर्णिमा पर परिक्रमा के लिए दो करोड़ लोग पहुंचेंगे

मथुरा से 21 किमी और वृंदावन से 23 किमी की दूरी पर गोवर्धन पर्वत स्थित है। यहां गुरु पूर्णिमा से एक दिन पहले ही भक्तों की भीड़ उमड़ी है। एकादशी से पूर्णिमा तक, यानी 17 से 22 जुलाई तक करीब 2 करोड़ लोग परिक्रमा करने वाले हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां गिरिराज की परिक्रमा का खास महत्व है। यहां की परिक्रमा का इतना महत्व क्यों है? इंद्र ने इसकी दंडवत यानी लेट कर परिक्रमा क्यों की थी? श्रीकृष्ण ने खुद गोवर्धन को पहली बार क्यों पूजा? 102 किमी में फैला गोवर्धन 8 किमी में कैसे सिमट गया? ये सारे सवाल लेकर दैनिक भास्कर ग्राउंड जीरो यानी गोवर्धन पर्वत पर पहुंचा। दान घाटी मंदिर के सामने से बड़ी परिक्रमा की शुरुआत होती है, पढ़िए रिपोर्ट… ब्रज में नहीं, काशी में स्थापित होता गोवर्धन पर्वत
मान्यता है कि एक बार पुलस्त्य मुनि धरती की परिक्रमा कर रहे थे। भारत के पश्चिम में मुनि ने हरे-भरे सुंदर गोवर्धन पर्वत को देखा। फिर उसके पिता द्रोणाचल गिरी पर्वत से आग्रह किया कि मैं तुम्हारे बेटे को अपने साथ काशी ले जाना चाहता हूं। वहां सभी मुनि इस पर बैठ कर तपस्या करेंगे। श्राप के डर से द्रोणाचल मान गए और भारी मन से अपने बेटे को उनके साथ जाने को कहा। भागवत प्रवक्ता पूरण कौशिक ने बताया कि तब गोवर्धन ने मुनि से कहा – मैं 8 गज लंबा, 6 गज चौड़ा और 2 गज ऊंचा यानी 102 किमी लंबा, 76 किमी चौड़ा और 25 किमी ऊंचा हूं। आप मुझे कैसे ले जाएंगे? मुनि ने कहा- तपोबल से अपने हाथ पर रख कर ले जाऊंगा। फिर गोवर्धन ने एक शर्त रखी और कहा- आप मुझे बीच में कहीं भी नहीं रखेंगे। एक बार जहां भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। मुनि ने यह शर्त मान ली। पुलस्त्य के श्राप से तिल-तिल घट रहा पर्वत, 30 मीटर बची है ऊंचाई
गोवर्धन को हाथ में लिए पुलस्त्य मुनि ब्रज में पहुंचे। यहां राधा और कृष्ण जन्म लेने वाले थे। दरअसल गोवर्धन यहीं आने के लिए जन्मे थे। लंबी यात्रा के बाद ब्रज पहुंचते ही उन्होंने अपना वजन बढ़ा लिया। मुनि थक गए और पर्वत को नीचे रखकर लघुशंका करने चले गए। लौटकर आए और पर्वत उठाने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं उठा पाए। गुस्से में आकर मुनि ने उसे श्राप दे दिया कि तू हर रोज तिल-तिल कर घटेगा। तब से लेकर आज तक गोवर्धन पर्वत लगातार घट रहा है। पहली परिक्रमा कृष्ण ने की, अब हर दिन 2 हजार लोग करते हैं
द्वापर में यदुवंशियों के गुरु महामुनि गर्ग ने अपनी संहिता में लिखा है- जब पहली बार गोवर्धन पूजा हुई थी तब इसकी पहली परिक्रमा श्रीकृष्ण ने की थी। उनके पीछे पूरा ब्रज था। गोवर्धन श्रीकृष्ण का ही रूप हैं। गोवर्धन की परिक्रमा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसकी एक शिला के दर्शन करने से व्यक्ति का दोबारा धरती पर जन्म नहीं होता। उसे मोक्ष मिल जाता है। कृष्ण के समय से लेकर आज तक भक्त लगातार गोवर्धन की परिक्रमा करते आ रहे हैं। गोवर्धन पर्वत 7 कोस यानी 21 किमी में फैला है, लोग गोवर्धन परिक्रमा में मौजूद 3 प्रमुख मंदिरों में जरूर पहुंचते हैं, इनमें श्रीकृष्ण को शिला रूप में पूजा जाता है। आइए, इन मंदिरों से जुड़ी कहानी जानते हैं… 1. दान घाटी: आधिकारिक तौर पर परिक्रमा की शुरुआत यहीं से होती है। द्वापर युग में बरसाने की गोपियां माखन लेकर मथुरा जाया करती थीं। ये माखन कंस के लिए जाता था। श्रीकृष्ण को ये पसंद नहीं था। वो पर्वत की इसी जगह पर गोपियों की मटकियां तोड़ा करते थे और उनका माखन खा जाया करते थे। तब से इस जगह का नाम दान घाटी पड़ा। 2. जतीपुरा मुखारबिंद: ये मंदिर दान घाटी मंदिर से 9 किमी दूर पर्वत के बीच वाले हिस्से में मौजूद है। द्वापर में ब्रज के लोग अच्छी खेती के लिए इंद्र की पूजा करते थे। अनाज का चढ़ावा चढ़ाते थे। कृष्ण ने ब्रज वासियों से कहा- इंद्र भगवान नहीं, उसकी पूजा का कोई फल नहीं। आपको उसकी जगह भगवान विष्णु के हृदय से जन्मे गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। कृष्ण की बात मानकर सभी ने मिलकर गोवर्धन पूजा की। जब ये बात इंद्र को पता चली तो उन्होंने सबसे खतरनाक बादल सांवर्तक को ब्रज पर बरसने के लिए कहा। ये बादल प्रलय के वक्त बरसता है। ब्रज में उथल-पुथल मच गई। लोग भागते हुए कृष्ण के पिता नंद बाबा के पास गए। बिना देरी किए कृष्ण गोवर्धन पर्वत पर पहुंच गए। 7 साल के कृष्ण ने गोवर्धन को अपने दाएं हाथ की छोटी उंगली पर उठा लिया। सभी ब्रजवासी इस पर्वत के नीचे आ गए। शेषनाग पर्वत के चारों तरफ मेड़ बनकर बैठ गए। कृष्ण का सुदर्शन चारों तरफ का पानी सोखने लगा। हफ्ते भर बाद इंद्र ने वज्र चलाने की कोशिश की, लेकिन कृष्ण ने वज्र सहित उनका पूरा हाथ लकवा ग्रस्त कर दिया। बारिश बंद हुई फिर सभी सुरक्षित बाहर आए। जतीपुरा वाला मंदिर उसी जगह है, जहां कृष्ण ने ये लीला की थी। 3. मानसी गंगा: ये कुंड और मंदिर परिक्रमा समाप्ति से 2 किमी पहले मौजूद है। जब इंद्र को पता चला कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं। तब इंद्र उनसे क्षमा मांगने आए। अपने साथ सुरभि गाय, ऐरावत हाथी और आकाश गंगा से मानसी गंगा लेकर आए। कृष्ण से क्षमा मांगी। ऐरावत हाथी ने गंगा और गाय का दूध अपनी सूंड में भर कर भगवान का अभिषेक किया। तभी इंद्र ने गोवर्धन की दंडवत परिक्रमा भी की थी। मानसी गंगा और हरिहर मंदिर तब से ही यहां मौजूद हैं। अब बात मुड़िया पूर्णिमा मेला की…
गिरिराज नगरी में मुड़िया पूर्णिमा मेला की शुरुआत 1558 से हुई। उस समय दिल्ली में मुगल शासन था। तब चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्य रूप सनातन गोस्वामी को ब्रज भूमि भेजा। यहां जब सनातन गोस्वामी आए, तब उन्होंने भक्ति महसूस की और प्रण लिया कि जब तक शरीर में सांस है, तब तक वह गोवर्धन की परिक्रमा करेंगे। इस प्रण के साथ वह प्रतिदिन गोवर्धन की परिक्रमा करने लगे। 1488 में जन्मे सनातन गोस्वामी ने राजपाठ छोड़कर वृंदावन धाम में वास करना शुरू कर दिया। सनातन गोस्वामी जब बुजुर्ग हुए तो शरीर साथ नहीं देता था। जिसके कारण वह दुखी हो गए कि वह गिरिराज जी की परिक्रमा कैसे करेंगे? सनातन गोस्वामी कई बार परिक्रमा करते-करते बेहोश हुए। इस दौरान ग्वाला भेष में एक बालक आता और उनका उपचार करता, लेकिन जब शरीर अत्यधिक अस्वस्थ हो गया और वह फिर बेसुध हुए तो वही बालक आया और उनसे बोला- बाबा अब आप परिक्रमा मत किया करो। इस पर सनातन गोस्वामी ने कहा- चाहे शरीर में प्राण न रहें, लेकिन वह परिक्रमा नहीं छोड़ेंगे। इस पर बालक ने उनको भगवान श्रीकृष्ण के रूप में दर्शन दिए और गोवर्धन पर्वत की एक शिला पर अपने चरणों के चिह्न बनाकर देते हुए कहा कि इसकी 4 परिक्रमा देने से उनको गोवर्धन की 7 कोस की परिक्रमा का फल मिलेगा। यह शिला आज भी वृंदावन के राधा दामोदर मंदिर में स्थापित है। गुरु पूर्णिमा के दिन शरीर ने छोड़ा साथ
सनातन गोस्वामी ने गुरु पूर्णिमा के दिन अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद उनके शिष्यों ने सिर मुड़वाया और उनके पार्थिव शरीर को पालकी में विराजमान कर गोवर्धन की परिक्रमा लगाई। तभी से ब्रज में मुड़िया पूर्णिमा पर विशेष परिक्रमा लगाने का सिलसिला शुरू हो गया, जिसने धीरे-धीरे करोड़ी मेले का रूप ले लिया। 2009 में राजकीय मेला घोषित किया गया
गोवर्धन के मुड़िया पूर्णिमा मेला में भीड़ जब करोड़ों की संख्या में पहुंचने लगी तो उत्तर प्रदेश सरकार ने 2009 में मेले को राजकीय मेला घोषित कर दिया। यहां प्रतिवर्ष 2 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालु देव शयनी एकादशी से गुरु पूर्णिमा तक आते हैं और गोवर्धन की 21 किलोमीटर की पैदल परिक्रमा लगाते हैं। ये भी पढ़ें: एपिसोड-1 आखिर कब बसी थी अयोध्या:अथर्ववेद में अयोध्या का पहला जिक्र, मगर असल में उम्र कितनी कोई नहीं जानता राम नाम की गूंज आज अयोध्या से निकलकर पूरे देश में फैली है। लेकिन राम से पहले अयोध्या कैसी थी? किसने बसाया था अयोध्या को? क्यों ये स्थान इतिहास में इतना महत्वपूर्ण था? अयोध्या, राम और राम मंदिर का इतिहास खंगालती दैनिक भास्कर की खास सीरीज ‘राम जन्मभूमि का इतिहास’ के पहले एपिसोड में जानिए इतिहास में अयोध्या का जिक्र कहां-कहां मिलता है…(पढ़ें पूरी खबर) काशी विश्वनाथ मंदिर की कहानी:मुगलों की आंखों की किरकिरी था बाबा का धाम, एक हजार साल में तीन बार पूरी तरह तोड़ा गया पिछले करीब एक हजार साल में चार बार काशी विश्वनाथ मंदिर का नामो-निशान मिटाने की कोशिश की गई। आक्रांता तीन बार सफल भी हुए, लेकिन हर बार इसे फिर से बनाया और संवारा गया। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने आखिरी बार इस मंदिर को तोड़ने के आदेश जारी किए थे। इसके बाद करीब 111 साल तक वाराणसी में कोई काशी विश्वनाथ मंदिर ही नहीं था…(पढ़ें पूरी खबर) मथुरा से 21 किमी और वृंदावन से 23 किमी की दूरी पर गोवर्धन पर्वत स्थित है। यहां गुरु पूर्णिमा से एक दिन पहले ही भक्तों की भीड़ उमड़ी है। एकादशी से पूर्णिमा तक, यानी 17 से 22 जुलाई तक करीब 2 करोड़ लोग परिक्रमा करने वाले हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां गिरिराज की परिक्रमा का खास महत्व है। यहां की परिक्रमा का इतना महत्व क्यों है? इंद्र ने इसकी दंडवत यानी लेट कर परिक्रमा क्यों की थी? श्रीकृष्ण ने खुद गोवर्धन को पहली बार क्यों पूजा? 102 किमी में फैला गोवर्धन 8 किमी में कैसे सिमट गया? ये सारे सवाल लेकर दैनिक भास्कर ग्राउंड जीरो यानी गोवर्धन पर्वत पर पहुंचा। दान घाटी मंदिर के सामने से बड़ी परिक्रमा की शुरुआत होती है, पढ़िए रिपोर्ट… ब्रज में नहीं, काशी में स्थापित होता गोवर्धन पर्वत
मान्यता है कि एक बार पुलस्त्य मुनि धरती की परिक्रमा कर रहे थे। भारत के पश्चिम में मुनि ने हरे-भरे सुंदर गोवर्धन पर्वत को देखा। फिर उसके पिता द्रोणाचल गिरी पर्वत से आग्रह किया कि मैं तुम्हारे बेटे को अपने साथ काशी ले जाना चाहता हूं। वहां सभी मुनि इस पर बैठ कर तपस्या करेंगे। श्राप के डर से द्रोणाचल मान गए और भारी मन से अपने बेटे को उनके साथ जाने को कहा। भागवत प्रवक्ता पूरण कौशिक ने बताया कि तब गोवर्धन ने मुनि से कहा – मैं 8 गज लंबा, 6 गज चौड़ा और 2 गज ऊंचा यानी 102 किमी लंबा, 76 किमी चौड़ा और 25 किमी ऊंचा हूं। आप मुझे कैसे ले जाएंगे? मुनि ने कहा- तपोबल से अपने हाथ पर रख कर ले जाऊंगा। फिर गोवर्धन ने एक शर्त रखी और कहा- आप मुझे बीच में कहीं भी नहीं रखेंगे। एक बार जहां भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। मुनि ने यह शर्त मान ली। पुलस्त्य के श्राप से तिल-तिल घट रहा पर्वत, 30 मीटर बची है ऊंचाई
गोवर्धन को हाथ में लिए पुलस्त्य मुनि ब्रज में पहुंचे। यहां राधा और कृष्ण जन्म लेने वाले थे। दरअसल गोवर्धन यहीं आने के लिए जन्मे थे। लंबी यात्रा के बाद ब्रज पहुंचते ही उन्होंने अपना वजन बढ़ा लिया। मुनि थक गए और पर्वत को नीचे रखकर लघुशंका करने चले गए। लौटकर आए और पर्वत उठाने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं उठा पाए। गुस्से में आकर मुनि ने उसे श्राप दे दिया कि तू हर रोज तिल-तिल कर घटेगा। तब से लेकर आज तक गोवर्धन पर्वत लगातार घट रहा है। पहली परिक्रमा कृष्ण ने की, अब हर दिन 2 हजार लोग करते हैं
द्वापर में यदुवंशियों के गुरु महामुनि गर्ग ने अपनी संहिता में लिखा है- जब पहली बार गोवर्धन पूजा हुई थी तब इसकी पहली परिक्रमा श्रीकृष्ण ने की थी। उनके पीछे पूरा ब्रज था। गोवर्धन श्रीकृष्ण का ही रूप हैं। गोवर्धन की परिक्रमा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसकी एक शिला के दर्शन करने से व्यक्ति का दोबारा धरती पर जन्म नहीं होता। उसे मोक्ष मिल जाता है। कृष्ण के समय से लेकर आज तक भक्त लगातार गोवर्धन की परिक्रमा करते आ रहे हैं। गोवर्धन पर्वत 7 कोस यानी 21 किमी में फैला है, लोग गोवर्धन परिक्रमा में मौजूद 3 प्रमुख मंदिरों में जरूर पहुंचते हैं, इनमें श्रीकृष्ण को शिला रूप में पूजा जाता है। आइए, इन मंदिरों से जुड़ी कहानी जानते हैं… 1. दान घाटी: आधिकारिक तौर पर परिक्रमा की शुरुआत यहीं से होती है। द्वापर युग में बरसाने की गोपियां माखन लेकर मथुरा जाया करती थीं। ये माखन कंस के लिए जाता था। श्रीकृष्ण को ये पसंद नहीं था। वो पर्वत की इसी जगह पर गोपियों की मटकियां तोड़ा करते थे और उनका माखन खा जाया करते थे। तब से इस जगह का नाम दान घाटी पड़ा। 2. जतीपुरा मुखारबिंद: ये मंदिर दान घाटी मंदिर से 9 किमी दूर पर्वत के बीच वाले हिस्से में मौजूद है। द्वापर में ब्रज के लोग अच्छी खेती के लिए इंद्र की पूजा करते थे। अनाज का चढ़ावा चढ़ाते थे। कृष्ण ने ब्रज वासियों से कहा- इंद्र भगवान नहीं, उसकी पूजा का कोई फल नहीं। आपको उसकी जगह भगवान विष्णु के हृदय से जन्मे गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। कृष्ण की बात मानकर सभी ने मिलकर गोवर्धन पूजा की। जब ये बात इंद्र को पता चली तो उन्होंने सबसे खतरनाक बादल सांवर्तक को ब्रज पर बरसने के लिए कहा। ये बादल प्रलय के वक्त बरसता है। ब्रज में उथल-पुथल मच गई। लोग भागते हुए कृष्ण के पिता नंद बाबा के पास गए। बिना देरी किए कृष्ण गोवर्धन पर्वत पर पहुंच गए। 7 साल के कृष्ण ने गोवर्धन को अपने दाएं हाथ की छोटी उंगली पर उठा लिया। सभी ब्रजवासी इस पर्वत के नीचे आ गए। शेषनाग पर्वत के चारों तरफ मेड़ बनकर बैठ गए। कृष्ण का सुदर्शन चारों तरफ का पानी सोखने लगा। हफ्ते भर बाद इंद्र ने वज्र चलाने की कोशिश की, लेकिन कृष्ण ने वज्र सहित उनका पूरा हाथ लकवा ग्रस्त कर दिया। बारिश बंद हुई फिर सभी सुरक्षित बाहर आए। जतीपुरा वाला मंदिर उसी जगह है, जहां कृष्ण ने ये लीला की थी। 3. मानसी गंगा: ये कुंड और मंदिर परिक्रमा समाप्ति से 2 किमी पहले मौजूद है। जब इंद्र को पता चला कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं। तब इंद्र उनसे क्षमा मांगने आए। अपने साथ सुरभि गाय, ऐरावत हाथी और आकाश गंगा से मानसी गंगा लेकर आए। कृष्ण से क्षमा मांगी। ऐरावत हाथी ने गंगा और गाय का दूध अपनी सूंड में भर कर भगवान का अभिषेक किया। तभी इंद्र ने गोवर्धन की दंडवत परिक्रमा भी की थी। मानसी गंगा और हरिहर मंदिर तब से ही यहां मौजूद हैं। अब बात मुड़िया पूर्णिमा मेला की…
गिरिराज नगरी में मुड़िया पूर्णिमा मेला की शुरुआत 1558 से हुई। उस समय दिल्ली में मुगल शासन था। तब चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्य रूप सनातन गोस्वामी को ब्रज भूमि भेजा। यहां जब सनातन गोस्वामी आए, तब उन्होंने भक्ति महसूस की और प्रण लिया कि जब तक शरीर में सांस है, तब तक वह गोवर्धन की परिक्रमा करेंगे। इस प्रण के साथ वह प्रतिदिन गोवर्धन की परिक्रमा करने लगे। 1488 में जन्मे सनातन गोस्वामी ने राजपाठ छोड़कर वृंदावन धाम में वास करना शुरू कर दिया। सनातन गोस्वामी जब बुजुर्ग हुए तो शरीर साथ नहीं देता था। जिसके कारण वह दुखी हो गए कि वह गिरिराज जी की परिक्रमा कैसे करेंगे? सनातन गोस्वामी कई बार परिक्रमा करते-करते बेहोश हुए। इस दौरान ग्वाला भेष में एक बालक आता और उनका उपचार करता, लेकिन जब शरीर अत्यधिक अस्वस्थ हो गया और वह फिर बेसुध हुए तो वही बालक आया और उनसे बोला- बाबा अब आप परिक्रमा मत किया करो। इस पर सनातन गोस्वामी ने कहा- चाहे शरीर में प्राण न रहें, लेकिन वह परिक्रमा नहीं छोड़ेंगे। इस पर बालक ने उनको भगवान श्रीकृष्ण के रूप में दर्शन दिए और गोवर्धन पर्वत की एक शिला पर अपने चरणों के चिह्न बनाकर देते हुए कहा कि इसकी 4 परिक्रमा देने से उनको गोवर्धन की 7 कोस की परिक्रमा का फल मिलेगा। यह शिला आज भी वृंदावन के राधा दामोदर मंदिर में स्थापित है। गुरु पूर्णिमा के दिन शरीर ने छोड़ा साथ
सनातन गोस्वामी ने गुरु पूर्णिमा के दिन अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद उनके शिष्यों ने सिर मुड़वाया और उनके पार्थिव शरीर को पालकी में विराजमान कर गोवर्धन की परिक्रमा लगाई। तभी से ब्रज में मुड़िया पूर्णिमा पर विशेष परिक्रमा लगाने का सिलसिला शुरू हो गया, जिसने धीरे-धीरे करोड़ी मेले का रूप ले लिया। 2009 में राजकीय मेला घोषित किया गया
गोवर्धन के मुड़िया पूर्णिमा मेला में भीड़ जब करोड़ों की संख्या में पहुंचने लगी तो उत्तर प्रदेश सरकार ने 2009 में मेले को राजकीय मेला घोषित कर दिया। यहां प्रतिवर्ष 2 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालु देव शयनी एकादशी से गुरु पूर्णिमा तक आते हैं और गोवर्धन की 21 किलोमीटर की पैदल परिक्रमा लगाते हैं। ये भी पढ़ें: एपिसोड-1 आखिर कब बसी थी अयोध्या:अथर्ववेद में अयोध्या का पहला जिक्र, मगर असल में उम्र कितनी कोई नहीं जानता राम नाम की गूंज आज अयोध्या से निकलकर पूरे देश में फैली है। लेकिन राम से पहले अयोध्या कैसी थी? किसने बसाया था अयोध्या को? क्यों ये स्थान इतिहास में इतना महत्वपूर्ण था? अयोध्या, राम और राम मंदिर का इतिहास खंगालती दैनिक भास्कर की खास सीरीज ‘राम जन्मभूमि का इतिहास’ के पहले एपिसोड में जानिए इतिहास में अयोध्या का जिक्र कहां-कहां मिलता है…(पढ़ें पूरी खबर) काशी विश्वनाथ मंदिर की कहानी:मुगलों की आंखों की किरकिरी था बाबा का धाम, एक हजार साल में तीन बार पूरी तरह तोड़ा गया पिछले करीब एक हजार साल में चार बार काशी विश्वनाथ मंदिर का नामो-निशान मिटाने की कोशिश की गई। आक्रांता तीन बार सफल भी हुए, लेकिन हर बार इसे फिर से बनाया और संवारा गया। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने आखिरी बार इस मंदिर को तोड़ने के आदेश जारी किए थे। इसके बाद करीब 111 साल तक वाराणसी में कोई काशी विश्वनाथ मंदिर ही नहीं था…(पढ़ें पूरी खबर)   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर