यूपी में 62 से 33 सीटों पर कैसे सिमटी भाजपा:मोदी-योगी क्यों नहीं रोक पाए हार, सपा की ऐतिहासिक जीत के पीछे की क्या रही रणनीति

यूपी में 62 से 33 सीटों पर कैसे सिमटी भाजपा:मोदी-योगी क्यों नहीं रोक पाए हार, सपा की ऐतिहासिक जीत के पीछे की क्या रही रणनीति

उत्तर प्रदेश में भाजपा की बड़ी हार हुई है। 5 साल पहले 62 सीटें जितने वाली भाजपा इस बार 33 सीटों पर सिमट गई। वोट शेयर भी 50 फीसदी से घटकर 41.3 फीसदी रह गया। योगी-मोदी ने मिलकर पूरी ताकत लगाई। मोदी ने 32 और योगी ने 169 जनसभाएं कीं, फिर भी हार रोक नहीं पाए। सपा ने भाजपा को केंद्र में पूर्ण बहुमत से दूर कर दिया। इस चुनाव में सपा देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। 37 सीट जीती, पिछले लोकसभा चुनाव में 5 सीटें जीती थी। सपा का वोट शेयर भी 18% से बढ़कर 33% हो गया। यूपी का सियासी नक्शा देखेंगे तो सपा ने पूर्वांचल, वेस्ट यूपी और सेंट्रल यूपी में ‘लाल रंग‘ को गाढ़ा कर दिया। जानते हैं वो 5 वजह, जिनसे यूपी में भाजपा का खेल बिगड़ा… 1- ओबीसी वोटर को एकजुट नहीं कर सकी भाजपा
भाजपा ओबीसी वोटर को यूपी में एकजुट नहीं कर सकी। इसके पीछे बड़ी वजह अखिलेश का PDA कार्ड था। भाजपा जातीय समीकरण काे देखकर मजबूत उम्मीदवार भी नहीं उतार सकी। पूर्वांचल की कई सीटों पर कुर्मी वोटर इस बार पूरी तरह सपा की ओर शिफ्ट हो गया। राजभर और निषाद वोटर भी भाजपा के खाते में पूरी तरह नहीं आ पाया। 2- पुराने सांसदों को रिपीट करने से एंटी-इनकंबेंसी रही
यूपी में भाजपा की हार के पीछे पुराने सांसदों को टिकट रिपीट करना माना जा रहा है। चुनाव के दौरान ये सांसद जब जनता के बीच गए, तो कई जगहों पर विरोध देखने को मिला। पश्चिम यूपी में अलीगढ़, एटा, कैराना, मुजफ्फरनगर और पूर्वी यूपी में प्रतापगढ़, कौशांबी, बासगांव आदि सीटों पर विरोध का सामना करना पड़ा था। भाजपा ने यूपी की 48 सीटों पर पुराने सांसदों का टिकट रिपीट किया, जिनमें 20 चुनाव हार गए। स्पष्ट है भाजपा को एंटी-इनकंबेंसी का सामना करना पड़ा। 3- संघ के कैडर ने ग्राउंड से दूरी बनाई
चुनाव के दौरान ग्राउंड पर भाजपा प्रत्याशियों के लिए संघ के कार्यकर्ता कम एक्टिव रहे। इसके पीछे की वजह अंदरूनी नाराजगी बताई जा रही है। संघ के पदाधिकारी बैठकों में गए, लेकिन प्रत्याशियों की जिताने के लिए ताकत नहीं लगाई। संघ के कार्यकर्ता कैडर के लोगों को टिकट नहीं देने और संगठन की रीति-नीति से पार्टी के हटने की वजह से भी नाराज रहे। 4- संगठन और सरकार के तालमेल में कमी
यूपी में पूरे चुनाव संगठन और सरकार में तालमेल की कमी रही, चाहे वह प्रत्याशी उतारना हो या फिर प्रत्याशियों के कार्यक्रमों में मंत्रियों की गैरमौजूदगी। प्रदेश प्रभारी विजयंत पांड्या भी ज्यादा वक्त यूपी को नहीं दे सके, क्योंकि उन्हें खुद उड़ीसा से उतार दिया गया। ये भी कहा जाता है कि राज्य सरकार के लोग प्रत्याशियों के चयन में अपनी बात भी नहीं रख पाए, उन्होंने बैठकों में हिस्सा लिया, लेकिन उनकी राय नहीं ली गई। 5- अपनों के बजाय बाहरियों पर भरोसा
भाजपा में कार्यकर्ताओं का एक बड़ा तबका नाराज भी रहा, क्योंकि उनके यहां बाहरी को भाजपा ने प्रत्याशी बना दिया। कुछ बड़े पदाधिकारी और कार्यकर्ता जो 5 साल से तैयारी कर रहे थे, उन्हें टिकट नहीं मिला। इससे भी कई सीटों पर भाजपा में टकराव देखने को मिला। कई जगहों पर ऐसे प्रत्याशियों का भी अंदरखाने में विरोध हुआ, जिनका पार्टी से कोई वास्ता नहीं रहा, लेकिन उन्हें टिकट दिया गया। 4 पॉइंट जिनसे सपा इतनी मजबूत बनकर उभरी 1. 2 साल से PDA के मुद्दे को दे रहे थे धार
अखिलेश विधानसभा चुनाव हारने के बाद लगातार 2 साल से इस PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) को तराश रहे थे। उनकी शायद ही कोई ऐसी सभा या प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई हो, जिसमें उन्होंने PDA का जिक्र न किया हो। वक्त के साथ उन्होंने PDA की नई परिभाषाएं भी गढ़ीं। अखिलेश ने PDA के हिसाब से ही टिकटों का बंटवारा किया। जातीय और क्षेत्रीय समीकरण पर बहुत फोकस किया। कैंडिडेट के नाम समय से पहले जारी किए। कई सीटों पर उन्होंने आखिरी वक्त में PDA फॉर्मूले को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशी भी बदले, क्योंकि ग्राउंड पर कार्यकर्ता समीकरण के लिहाज से प्रत्याशी की डिमांड कर रहे थे। 2. यादव-मुस्लिमों (MY) के बजाय दूसरी जातियों पर फोकस किया
अखिलेश ने यूपी में अपनी 62 में से केवल 5 सीटों पर यादव और 4 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया। उन्हें पता था कि इन दो जातियों का वोट मिलता ही है, इसलिए बाकी जातियों को साथ रखा। अखिलेश के प्रयोग का रिफ्लेक्शन आज नतीजों में भी दिखाई दे रहा है। सपा ने इस बार 62 में से 17 प्रत्याशी दलित उतारे। इनमें से मेरठ से पूर्व मेयर सुनीता वर्मा और अयोध्या से अवधेश प्रसाद जैसे नेताओं को टिकट दिया। अवधेश प्रसाद ने राम मंदिर मुद्दे के बावजूद अयोध्या में भाजपा को हरा दिया। दलित बसपा के कोर वोटबैंक माने जाते हैं। अखिलेश ने इस बार परिवार के बाहर एक भी यादव को टिकट नहीं दिया। 2019 में 37 सीटों में से 10 यादवों को टिकट दिए थे। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण रोकने को सपा ने मुस्लिम आबादी वाली सीटों पर हिंदू उम्मीदवार उतारे। कुल 9 सवर्ण और 30 ओबीसी प्रत्याशी मैदान में उतारे। 3. 90% आबादी और ओबीसी में कुर्मी-पटेल के समीकरण को साधा
सपा ने इस बार सर्वाधिक 10 टिकट कुर्मी और पटेल बिरादरी को दिए। 2019 के चुनाव में सपा 37 सीटों पर लड़ी थी, लेकिन उसने केवल 3 टिकट इस बिरादरी को दिए थे। इस बार सपा ने गैर यादव पिछड़ी जातियों में निषाद और बिंद समाज के 3 प्रत्याशियों को भी टिकट दिया। यही वजह है, इन जातियों का वोट इस बार भाजपा से शिफ्ट हुआ। सपा ने जाट, गुर्जर, राजभर, पाल और लोधी समुदाय से एक-एक टिकट दिया। बागपत, कैसरगंज, डुमरियागंज और बलिया में ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया। धौरहरा और चंदौली में क्षत्रिय प्रत्याशियों को उतारा। अखिलेश ने पीडीए में 90 फीसदी आबादी की हिस्सेदारी की बात की थी। उनके प्रत्याशियों के बंटवारे में इस 90 फीसदी की हिस्सेदारी उन्होंने सुनिश्चित की। वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र प्रताप कहते हैं- अखिलेश के टिकट बंटवारे ने यूपी में एक नए तरीके की सोशल इंजीनियरिंग को पैदा किया। उन्होंने M-Y मिथ को तोड़ दिया। कुर्मियों को प्रत्याशी बनाया। यादव और कुर्मी एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाते हैं, लेकिन उन्होंने टिकट देकर इस खांचे को ब्रेक कर दिया। 4. सपा-कांग्रेस के एक साथ आने से मुस्लिम वोटर्स एकजुट हुए
यूपी में 20 फीसदी के करीब मुस्लिम मतदाता हैं। इस बार सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके मुस्लिमों की सारी दुविधा खत्म कर दी। इसके अलावा अखिलेश मुस्लिमों के मुद्दे पर हमेशा समुदाय के साथ रहे। बसपा प्रमुख मायावती बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के प्रत्याशी उतारे। इसके बावजूद मुस्लिमों के 90% वोट इंडी गठबंधन को ही गए। यही वजह है, इंडी गठबंधन ने बसपा के मुस्लिम कैंडिडेट के बावजूद मुस्लिम बहुल सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया, खासकर पश्चिम यूपी में। इस बार सपा ने 4 और कांग्रेस ने सिर्फ दो मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे। यही वजह है, जो वेस्ट यूपी में भाजपा काे नुकसान हुआ। वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र प्रताप कहते हैं- यूपी में सपा की जीत के पीछे सबसे बड़ी वजह अखिलेश और राहुल गांधी का साथ आना है। दोनों के हाथ मिलाने से जमीन पर वर्कर मजबूत हुआ। सपा और कांग्रेस के कैडर ने एक-दूसरे के लिए अच्छे से काम किया। मुस्लिम वोटरों ने एकमुश्त जीतने वाले प्रत्याशी को ही वोट दिया। ऐसे हुआ भाजपा को तगड़ा नुकसान पीएम का मार्जिन घटा, 7 केंद्रीय मंत्री हारे
भाजपा की तैयारी काशी से पीएम मोदी को रिकॉर्ड वोटों से जिताने की थी, लेकिन पीएम मोदी का मार्जिन 2014 और 2019 से कम रहा। मोदी 1 लाख 52 हजार 513 वोट से जीते। उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय को 4 लाख 60 हजार 457 वोट मिले। मोदी सरकार के 11 मंत्री यूपी से चुनाव मैदान में थे। इनमें से 7 चुनाव हार गए। सबसे बड़ा उलटफेर अमेठी में हुआ। यहां केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को केएल शर्मा ने करारी शिकस्त दी। 2019 में राहुल गांधी को स्मृति ईरानी ने 55 हजार वोट से हराया था। केएल शर्मा ने 1 लाख 67 हजार वोटों से स्मृति को हराया। मुजफ्फरनगर से संजीव बालियान, लखीमपुर खीरी से अजय मिश्र टेनी, चंदौली से महेंद्र नाथ पांडेय, जालौन से भानु प्रताप वर्मा, फतेहपुर से साध्वी निरंजन ज्योति और मोहनलालगंज से कौशल किशोर भी चुनाव हार गए। योगी सरकार के 2 मंत्री भी हारे
योगी सरकार के दो मंत्री भी चुनाव हार गए। रायबरेली से दिनेश प्रताप सिंह को राहुल गांधी ने 3 लाख 90 हजार वोट से हराया। मैनपुरी से जयवीर सिंह को डिंपल यादव ने 2 लाख 21 हजार वोट से हराया। भाजपा को सबसे ज्यादा पूर्वांचल में नुकसान कांग्रेस का वोट 3.06% बढ़ा, मगर सीटें 6 मिलीं
2024 के चुनाव में सबसे ज्यादा फायदे में कांग्रेस है। कांग्रेस को 2019 में सिर्फ 6.4% वोट मिला था। 2024 में पार्टी को 9.46% वोट मिले। 2009 के बाद यह कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन माना जा सकता है। कांग्रेस के 17 कैंडिडेट में से 6 जीते
राहुल-प्रियंका और अखिलेश के साथ ने कांग्रेस को 1 से 6 सीट पर पहुंचा दिया। 2019 में कांग्रेस सिर्फ रायबरेली की सीट जीती थी, यहां से सोनिया गांधी सांसद बनीं। एक वक्त पर कांग्रेस का गढ़ रही प्रयागराज (इलाहाबाद) में 40 साल बाद कांग्रेस ने जीत हासिल की है। 1984 के कांग्रेस के टिकट पर आखिरी बार अमिताभ बच्चन ने जीत हासिल की थी। सहारनपुर से इमरान मसूद, बाराबंकी से पूर्व केंद्रीय मंत्री पीएल पुनिया का बेटा तनुज पुनिया, सीतापुर से राकेश राठौर ने भी जीत हासिल की है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की बड़ी हार हुई है। 5 साल पहले 62 सीटें जितने वाली भाजपा इस बार 33 सीटों पर सिमट गई। वोट शेयर भी 50 फीसदी से घटकर 41.3 फीसदी रह गया। योगी-मोदी ने मिलकर पूरी ताकत लगाई। मोदी ने 32 और योगी ने 169 जनसभाएं कीं, फिर भी हार रोक नहीं पाए। सपा ने भाजपा को केंद्र में पूर्ण बहुमत से दूर कर दिया। इस चुनाव में सपा देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। 37 सीट जीती, पिछले लोकसभा चुनाव में 5 सीटें जीती थी। सपा का वोट शेयर भी 18% से बढ़कर 33% हो गया। यूपी का सियासी नक्शा देखेंगे तो सपा ने पूर्वांचल, वेस्ट यूपी और सेंट्रल यूपी में ‘लाल रंग‘ को गाढ़ा कर दिया। जानते हैं वो 5 वजह, जिनसे यूपी में भाजपा का खेल बिगड़ा… 1- ओबीसी वोटर को एकजुट नहीं कर सकी भाजपा
भाजपा ओबीसी वोटर को यूपी में एकजुट नहीं कर सकी। इसके पीछे बड़ी वजह अखिलेश का PDA कार्ड था। भाजपा जातीय समीकरण काे देखकर मजबूत उम्मीदवार भी नहीं उतार सकी। पूर्वांचल की कई सीटों पर कुर्मी वोटर इस बार पूरी तरह सपा की ओर शिफ्ट हो गया। राजभर और निषाद वोटर भी भाजपा के खाते में पूरी तरह नहीं आ पाया। 2- पुराने सांसदों को रिपीट करने से एंटी-इनकंबेंसी रही
यूपी में भाजपा की हार के पीछे पुराने सांसदों को टिकट रिपीट करना माना जा रहा है। चुनाव के दौरान ये सांसद जब जनता के बीच गए, तो कई जगहों पर विरोध देखने को मिला। पश्चिम यूपी में अलीगढ़, एटा, कैराना, मुजफ्फरनगर और पूर्वी यूपी में प्रतापगढ़, कौशांबी, बासगांव आदि सीटों पर विरोध का सामना करना पड़ा था। भाजपा ने यूपी की 48 सीटों पर पुराने सांसदों का टिकट रिपीट किया, जिनमें 20 चुनाव हार गए। स्पष्ट है भाजपा को एंटी-इनकंबेंसी का सामना करना पड़ा। 3- संघ के कैडर ने ग्राउंड से दूरी बनाई
चुनाव के दौरान ग्राउंड पर भाजपा प्रत्याशियों के लिए संघ के कार्यकर्ता कम एक्टिव रहे। इसके पीछे की वजह अंदरूनी नाराजगी बताई जा रही है। संघ के पदाधिकारी बैठकों में गए, लेकिन प्रत्याशियों की जिताने के लिए ताकत नहीं लगाई। संघ के कार्यकर्ता कैडर के लोगों को टिकट नहीं देने और संगठन की रीति-नीति से पार्टी के हटने की वजह से भी नाराज रहे। 4- संगठन और सरकार के तालमेल में कमी
यूपी में पूरे चुनाव संगठन और सरकार में तालमेल की कमी रही, चाहे वह प्रत्याशी उतारना हो या फिर प्रत्याशियों के कार्यक्रमों में मंत्रियों की गैरमौजूदगी। प्रदेश प्रभारी विजयंत पांड्या भी ज्यादा वक्त यूपी को नहीं दे सके, क्योंकि उन्हें खुद उड़ीसा से उतार दिया गया। ये भी कहा जाता है कि राज्य सरकार के लोग प्रत्याशियों के चयन में अपनी बात भी नहीं रख पाए, उन्होंने बैठकों में हिस्सा लिया, लेकिन उनकी राय नहीं ली गई। 5- अपनों के बजाय बाहरियों पर भरोसा
भाजपा में कार्यकर्ताओं का एक बड़ा तबका नाराज भी रहा, क्योंकि उनके यहां बाहरी को भाजपा ने प्रत्याशी बना दिया। कुछ बड़े पदाधिकारी और कार्यकर्ता जो 5 साल से तैयारी कर रहे थे, उन्हें टिकट नहीं मिला। इससे भी कई सीटों पर भाजपा में टकराव देखने को मिला। कई जगहों पर ऐसे प्रत्याशियों का भी अंदरखाने में विरोध हुआ, जिनका पार्टी से कोई वास्ता नहीं रहा, लेकिन उन्हें टिकट दिया गया। 4 पॉइंट जिनसे सपा इतनी मजबूत बनकर उभरी 1. 2 साल से PDA के मुद्दे को दे रहे थे धार
अखिलेश विधानसभा चुनाव हारने के बाद लगातार 2 साल से इस PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) को तराश रहे थे। उनकी शायद ही कोई ऐसी सभा या प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई हो, जिसमें उन्होंने PDA का जिक्र न किया हो। वक्त के साथ उन्होंने PDA की नई परिभाषाएं भी गढ़ीं। अखिलेश ने PDA के हिसाब से ही टिकटों का बंटवारा किया। जातीय और क्षेत्रीय समीकरण पर बहुत फोकस किया। कैंडिडेट के नाम समय से पहले जारी किए। कई सीटों पर उन्होंने आखिरी वक्त में PDA फॉर्मूले को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशी भी बदले, क्योंकि ग्राउंड पर कार्यकर्ता समीकरण के लिहाज से प्रत्याशी की डिमांड कर रहे थे। 2. यादव-मुस्लिमों (MY) के बजाय दूसरी जातियों पर फोकस किया
अखिलेश ने यूपी में अपनी 62 में से केवल 5 सीटों पर यादव और 4 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया। उन्हें पता था कि इन दो जातियों का वोट मिलता ही है, इसलिए बाकी जातियों को साथ रखा। अखिलेश के प्रयोग का रिफ्लेक्शन आज नतीजों में भी दिखाई दे रहा है। सपा ने इस बार 62 में से 17 प्रत्याशी दलित उतारे। इनमें से मेरठ से पूर्व मेयर सुनीता वर्मा और अयोध्या से अवधेश प्रसाद जैसे नेताओं को टिकट दिया। अवधेश प्रसाद ने राम मंदिर मुद्दे के बावजूद अयोध्या में भाजपा को हरा दिया। दलित बसपा के कोर वोटबैंक माने जाते हैं। अखिलेश ने इस बार परिवार के बाहर एक भी यादव को टिकट नहीं दिया। 2019 में 37 सीटों में से 10 यादवों को टिकट दिए थे। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण रोकने को सपा ने मुस्लिम आबादी वाली सीटों पर हिंदू उम्मीदवार उतारे। कुल 9 सवर्ण और 30 ओबीसी प्रत्याशी मैदान में उतारे। 3. 90% आबादी और ओबीसी में कुर्मी-पटेल के समीकरण को साधा
सपा ने इस बार सर्वाधिक 10 टिकट कुर्मी और पटेल बिरादरी को दिए। 2019 के चुनाव में सपा 37 सीटों पर लड़ी थी, लेकिन उसने केवल 3 टिकट इस बिरादरी को दिए थे। इस बार सपा ने गैर यादव पिछड़ी जातियों में निषाद और बिंद समाज के 3 प्रत्याशियों को भी टिकट दिया। यही वजह है, इन जातियों का वोट इस बार भाजपा से शिफ्ट हुआ। सपा ने जाट, गुर्जर, राजभर, पाल और लोधी समुदाय से एक-एक टिकट दिया। बागपत, कैसरगंज, डुमरियागंज और बलिया में ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया। धौरहरा और चंदौली में क्षत्रिय प्रत्याशियों को उतारा। अखिलेश ने पीडीए में 90 फीसदी आबादी की हिस्सेदारी की बात की थी। उनके प्रत्याशियों के बंटवारे में इस 90 फीसदी की हिस्सेदारी उन्होंने सुनिश्चित की। वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र प्रताप कहते हैं- अखिलेश के टिकट बंटवारे ने यूपी में एक नए तरीके की सोशल इंजीनियरिंग को पैदा किया। उन्होंने M-Y मिथ को तोड़ दिया। कुर्मियों को प्रत्याशी बनाया। यादव और कुर्मी एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाते हैं, लेकिन उन्होंने टिकट देकर इस खांचे को ब्रेक कर दिया। 4. सपा-कांग्रेस के एक साथ आने से मुस्लिम वोटर्स एकजुट हुए
यूपी में 20 फीसदी के करीब मुस्लिम मतदाता हैं। इस बार सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके मुस्लिमों की सारी दुविधा खत्म कर दी। इसके अलावा अखिलेश मुस्लिमों के मुद्दे पर हमेशा समुदाय के साथ रहे। बसपा प्रमुख मायावती बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के प्रत्याशी उतारे। इसके बावजूद मुस्लिमों के 90% वोट इंडी गठबंधन को ही गए। यही वजह है, इंडी गठबंधन ने बसपा के मुस्लिम कैंडिडेट के बावजूद मुस्लिम बहुल सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया, खासकर पश्चिम यूपी में। इस बार सपा ने 4 और कांग्रेस ने सिर्फ दो मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे। यही वजह है, जो वेस्ट यूपी में भाजपा काे नुकसान हुआ। वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र प्रताप कहते हैं- यूपी में सपा की जीत के पीछे सबसे बड़ी वजह अखिलेश और राहुल गांधी का साथ आना है। दोनों के हाथ मिलाने से जमीन पर वर्कर मजबूत हुआ। सपा और कांग्रेस के कैडर ने एक-दूसरे के लिए अच्छे से काम किया। मुस्लिम वोटरों ने एकमुश्त जीतने वाले प्रत्याशी को ही वोट दिया। ऐसे हुआ भाजपा को तगड़ा नुकसान पीएम का मार्जिन घटा, 7 केंद्रीय मंत्री हारे
भाजपा की तैयारी काशी से पीएम मोदी को रिकॉर्ड वोटों से जिताने की थी, लेकिन पीएम मोदी का मार्जिन 2014 और 2019 से कम रहा। मोदी 1 लाख 52 हजार 513 वोट से जीते। उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय को 4 लाख 60 हजार 457 वोट मिले। मोदी सरकार के 11 मंत्री यूपी से चुनाव मैदान में थे। इनमें से 7 चुनाव हार गए। सबसे बड़ा उलटफेर अमेठी में हुआ। यहां केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को केएल शर्मा ने करारी शिकस्त दी। 2019 में राहुल गांधी को स्मृति ईरानी ने 55 हजार वोट से हराया था। केएल शर्मा ने 1 लाख 67 हजार वोटों से स्मृति को हराया। मुजफ्फरनगर से संजीव बालियान, लखीमपुर खीरी से अजय मिश्र टेनी, चंदौली से महेंद्र नाथ पांडेय, जालौन से भानु प्रताप वर्मा, फतेहपुर से साध्वी निरंजन ज्योति और मोहनलालगंज से कौशल किशोर भी चुनाव हार गए। योगी सरकार के 2 मंत्री भी हारे
योगी सरकार के दो मंत्री भी चुनाव हार गए। रायबरेली से दिनेश प्रताप सिंह को राहुल गांधी ने 3 लाख 90 हजार वोट से हराया। मैनपुरी से जयवीर सिंह को डिंपल यादव ने 2 लाख 21 हजार वोट से हराया। भाजपा को सबसे ज्यादा पूर्वांचल में नुकसान कांग्रेस का वोट 3.06% बढ़ा, मगर सीटें 6 मिलीं
2024 के चुनाव में सबसे ज्यादा फायदे में कांग्रेस है। कांग्रेस को 2019 में सिर्फ 6.4% वोट मिला था। 2024 में पार्टी को 9.46% वोट मिले। 2009 के बाद यह कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन माना जा सकता है। कांग्रेस के 17 कैंडिडेट में से 6 जीते
राहुल-प्रियंका और अखिलेश के साथ ने कांग्रेस को 1 से 6 सीट पर पहुंचा दिया। 2019 में कांग्रेस सिर्फ रायबरेली की सीट जीती थी, यहां से सोनिया गांधी सांसद बनीं। एक वक्त पर कांग्रेस का गढ़ रही प्रयागराज (इलाहाबाद) में 40 साल बाद कांग्रेस ने जीत हासिल की है। 1984 के कांग्रेस के टिकट पर आखिरी बार अमिताभ बच्चन ने जीत हासिल की थी। सहारनपुर से इमरान मसूद, बाराबंकी से पूर्व केंद्रीय मंत्री पीएल पुनिया का बेटा तनुज पुनिया, सीतापुर से राकेश राठौर ने भी जीत हासिल की है।   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर