ठगी में सिद्धहस्त प्रतिभाशाली लोग हमारे समाज के रत्न हैं!:हमारा यही अपराध रहा है कि हमने उनके टैलेंट की कभी कद्र नहीं की!

ठगी में सिद्धहस्त प्रतिभाशाली लोग हमारे समाज के रत्न हैं!:हमारा यही अपराध रहा है कि हमने उनके टैलेंट की कभी कद्र नहीं की!

उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था। मेरे पिताजी बहुत सख्त थे और उन्हें हर सप्ताह गांव जाने की आदत थी। उधर वे गांव के लिए निकलते और इधर मैं दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने निकल जाता था। एक बार वे मुझे दो दिन के ढेर सारे काम समझाकर खुद गांव के लिए रवाना हो गए। ऑफिस के स्टाफ के लोग उन्हें छोड़ने पुरानी दिल्ली स्टेशन तक गए। जैसे ही स्टाफ के लोग लौटे, मैं दोस्तों के साथ फिल्म देखने चल दिया। उधर मेरे पिताजी दिल्ली जंक्शन से ट्रेन में बैठे और सराय रोहिल्ला पर उतरकर वापस घर आ गए। मैं फिल्म देखकर घर लौटा तो देखा कि पिताजी भी घर पर ही थे। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘कहां गया था?’ मैंने कहा, ‘जी एक दोस्त के पिताजी की डेथ हो गई थी, वहीं गया था।’ मेरा जवाब सुनकर पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया। मेरी जेब में हाथ डाला तो उसमें से फिल्म की टिकट बरामद हुई। पिताजी ने ध्यान से शो का टाइम और डेट चैक की और फिर मुझसे बोले, ‘दोस्त के पिताजी सिनेमा हॉल में मरे हुए मिले थे क्या?’ पिताजी को ठगने का मेरा कोई प्रयास जिंदगी में कभी सफल नहीं हो पाया। लेकिन ऐसा नहीं है कि ठगने की सबकी ही कोशिशें नाकामयाब होती हों। हमारे एक परिचित महान कवि थे। वे इस कला में सबके उस्ताद थे। उनके शहर में एक पंडित जी रहते थे, जिनका नाम था जवाहर लाल। कवि जी ने उन पंडित जी के नाम का बेहतरीन सदुपयोग किया। उन्होंने एक संस्था रजिस्टर्ड कराई और उस संस्था के समर्थन में अपने शहर के लोकल जवाहरलाल जी से एक पत्र लिखवा लिया। बाद में अपनी संस्था के नीचे लिखने लगे ‘पण्डित जवाहरलाल द्वारा समर्थित संस्था’। इस तरह उन्होंने लोकल का ग्लोबल इस्तेमाल कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक पत्रिका रजिस्टर कराई और अखबार में विज्ञापन दिया, ‘सौ रुपए भेजो और हजार रुपए महीना पाओ।’ लोगों ने विज्ञापन से प्रभावित होकर सौ-सौ रुपए भेजने शुरू कर दिए। तीन महीने बाद सभी के घर पर दो पेज की एक पत्रिका पहुंची, जिसका शीर्षक था, ‘हजार रुपए महीना’। कवि जी निर्भय होकर लोगों को ठगते रहे। तंत्र, भभूत जैसे सभी पाखंड उन्हें सिद्ध थे। और फिर एक दिन इस साधना के बल पर वे जेल जैसी पवित्र जगह तक की यात्रा करने में सफल हुए। ठगी के ऐसे-ऐसे नायाब तरीके खोजे गए हैं कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। पुराने समय की बात है। एक व्यक्ति ने अखबार में विज्ञापन दिया कि मैंने एक ऐसी तकनीक खोज ली है, जिसे पहनकर आप सब लोगों को देख सकेंगे लेकिन आपको कोई नहीं देख सकेगा। केवल पांच सौ रुपए में यह उपकरण आपको डाक द्वारा भेज दिया जाएगा। जनता ने विज्ञापन पढ़ा और रुपए भिजवाने लगे। विज्ञापन देने वाला ईमानदार था। जिसने भी रुपए भेजे, उसके घर डाक से एक-एक बुर्का भिजवा दिया। ऐसे प्रतिभाशाली लोग हमारे समाज के रत्न हैं। हमारा यही अपराध रहा है कि हमने उनके टैलेंट की कभी कद्र नहीं की। हम इस कला को अपराध मानते रहे, वर्ना आज हमारा देश ठगविद्या में विश्वगुरु बन चुका होता और हमें नटवरलाल जैसी प्रतिभाओं पर फख्र होता। ——————– ये कॉलम भी पढ़ें… दिल्ली में सीएम का सस्पेंस बरकरार, कुर्सी एक-कई बेकरार !:डर ये कि कहीं बाहर से कोई मनोहर दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर दुल्हन न ले जाए! उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था। मेरे पिताजी बहुत सख्त थे और उन्हें हर सप्ताह गांव जाने की आदत थी। उधर वे गांव के लिए निकलते और इधर मैं दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने निकल जाता था। एक बार वे मुझे दो दिन के ढेर सारे काम समझाकर खुद गांव के लिए रवाना हो गए। ऑफिस के स्टाफ के लोग उन्हें छोड़ने पुरानी दिल्ली स्टेशन तक गए। जैसे ही स्टाफ के लोग लौटे, मैं दोस्तों के साथ फिल्म देखने चल दिया। उधर मेरे पिताजी दिल्ली जंक्शन से ट्रेन में बैठे और सराय रोहिल्ला पर उतरकर वापस घर आ गए। मैं फिल्म देखकर घर लौटा तो देखा कि पिताजी भी घर पर ही थे। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘कहां गया था?’ मैंने कहा, ‘जी एक दोस्त के पिताजी की डेथ हो गई थी, वहीं गया था।’ मेरा जवाब सुनकर पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया। मेरी जेब में हाथ डाला तो उसमें से फिल्म की टिकट बरामद हुई। पिताजी ने ध्यान से शो का टाइम और डेट चैक की और फिर मुझसे बोले, ‘दोस्त के पिताजी सिनेमा हॉल में मरे हुए मिले थे क्या?’ पिताजी को ठगने का मेरा कोई प्रयास जिंदगी में कभी सफल नहीं हो पाया। लेकिन ऐसा नहीं है कि ठगने की सबकी ही कोशिशें नाकामयाब होती हों। हमारे एक परिचित महान कवि थे। वे इस कला में सबके उस्ताद थे। उनके शहर में एक पंडित जी रहते थे, जिनका नाम था जवाहर लाल। कवि जी ने उन पंडित जी के नाम का बेहतरीन सदुपयोग किया। उन्होंने एक संस्था रजिस्टर्ड कराई और उस संस्था के समर्थन में अपने शहर के लोकल जवाहरलाल जी से एक पत्र लिखवा लिया। बाद में अपनी संस्था के नीचे लिखने लगे ‘पण्डित जवाहरलाल द्वारा समर्थित संस्था’। इस तरह उन्होंने लोकल का ग्लोबल इस्तेमाल कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक पत्रिका रजिस्टर कराई और अखबार में विज्ञापन दिया, ‘सौ रुपए भेजो और हजार रुपए महीना पाओ।’ लोगों ने विज्ञापन से प्रभावित होकर सौ-सौ रुपए भेजने शुरू कर दिए। तीन महीने बाद सभी के घर पर दो पेज की एक पत्रिका पहुंची, जिसका शीर्षक था, ‘हजार रुपए महीना’। कवि जी निर्भय होकर लोगों को ठगते रहे। तंत्र, भभूत जैसे सभी पाखंड उन्हें सिद्ध थे। और फिर एक दिन इस साधना के बल पर वे जेल जैसी पवित्र जगह तक की यात्रा करने में सफल हुए। ठगी के ऐसे-ऐसे नायाब तरीके खोजे गए हैं कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। पुराने समय की बात है। एक व्यक्ति ने अखबार में विज्ञापन दिया कि मैंने एक ऐसी तकनीक खोज ली है, जिसे पहनकर आप सब लोगों को देख सकेंगे लेकिन आपको कोई नहीं देख सकेगा। केवल पांच सौ रुपए में यह उपकरण आपको डाक द्वारा भेज दिया जाएगा। जनता ने विज्ञापन पढ़ा और रुपए भिजवाने लगे। विज्ञापन देने वाला ईमानदार था। जिसने भी रुपए भेजे, उसके घर डाक से एक-एक बुर्का भिजवा दिया। ऐसे प्रतिभाशाली लोग हमारे समाज के रत्न हैं। हमारा यही अपराध रहा है कि हमने उनके टैलेंट की कभी कद्र नहीं की। हम इस कला को अपराध मानते रहे, वर्ना आज हमारा देश ठगविद्या में विश्वगुरु बन चुका होता और हमें नटवरलाल जैसी प्रतिभाओं पर फख्र होता। ——————– ये कॉलम भी पढ़ें… दिल्ली में सीएम का सस्पेंस बरकरार, कुर्सी एक-कई बेकरार !:डर ये कि कहीं बाहर से कोई मनोहर दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर दुल्हन न ले जाए!   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर