धर्म की नगरी काशी में सभी समुदाय मिलकर मोहर्रम मनाते हैं। ऐसे में वाराणसी की रांगे की ताजिया काशी के मोहर्रम की सबसे महत्वपूर्ण ताजिया है। 10 मोहर्रम को उठने वाली यह ताजिया काशी की सबसे आखरी ताजिया है जो दरगाह फातमान के लिए निकलती है। इसके पीछे शिया समुदाय के दुलदुल का जुलूस चलता है। लहंगपुरा के रहने वाले हाकिम नवाज अली शाह ने इस रांगे की ताजिया की शुरुआत की थी। तब से आज तक इसे हर साल पूरी शानों शौकत के साथ उठाया जा रहा है। इसमें लगने वाले रांगे को लकड़ी के सांचे पर रखकर हाथी दांत के कलम से उकेरा जाता है। यह देश का अकेला रांगे का ताजिया है जिसमें 70 किलो के आस-पास रांगे को गलाकर उसकी शीट बनाकर उससे डिजाइन बनाते हैं। यह ताजिया कैसे बनती है और इसे बनाने में कितना दिन लगता है साथ ही इसके इतिहास के बारे में दैनिक भास्कर ने इमामबाड़ा रांगे की ताजिया 14/09 काजीपुराखुर्द लल्लापुरा पहुंचकर इस ताजिया की कमेटी के लोगों से बातचीत की… लकड़ी के 200 साल पुराने सांचे पर बनी बूटियों का इतिहास और कैसे रांगे पर आती है डिजाइन दो महीना पहले से शुरू हो जाती है तैयारी
रांगे की ताजिया लकड़ी की है जिसपर रांगे से डिजाइनिंग की जाती है। इसपर कैसे डिजाइन उकेरे जाती है। इस प्रोसेस को हमने समझा। रांगे पर डिजाइन करने वाले मोहम्मद शमीम ने बताया कि बकरीद का चांद दिखते ही ताजिया बनाने का काम शुरू हो जाता है। इसके लिए हमें पहले से प्रिपरेशन करनी पड़ी है। उसके बाद सारा रांगा निकालकर उसे गलाया जाता है और उससे गन्दगी हटाई जाती है। इसके बाद रांगे को खास टेक्निक से शीट में तब्दील किया जाता है। 200 साल पुराने सांचे से रांगे पर बनती है 70 तरीके की डिजाइन
शमीम ने बताया- रांगे की टेक्निक से शीट में बदले जाने के बाद उसे साखू की लकड़ी से बने 200 साल पुराने सांचे पर रखकर हांथी के दांत की कलम से उकेरा जाता है। उसके बाद डिजाइन के अनुसार उसे ताजिये में चिपका दिया जाता है। ताजिये में 70 तरीके की डिजाइन का इस्तेमाल होता है। इन डिजाइन का अलग-अलग 70 के करीब सांचा भी है। बहुत सावधानी का है काम
इस काम के मुख्य कारीगर इश्तियाक अहमद दादे और गुलजार ने बताया – इस लकड़ी के सांचे से रांगे पर डिजाइन उकेरना बहुत टफ है और सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि रांगे की शीट अगर फट जाती है तो उसे फिर गलाना पड़ता है। फिर से उसे शीट का रूप देना पड़ता है। इसे बनाने में करीब 15 युवा लगे हुए हैं। जो रोज रात में 8 घंटे इस पर डिजाइन उकेरते हैं। जिसमें बूटी अधिक है। बाराबंकी के हैं मुख्य कारीगर
हाजी कय्यूम ने बताया कि इसके और इस सांचे के मुख्य कारीगर बाराबंकी के रहने वाले अजीमुद्दीन हाजी शफी मोहम्मद अकमल साहब थे। उन्होंने ने ही ये सांचे बनाए हैं जो अब ख़त्म होने की कगार पर हैं। अब जानिए इस ताजिया को बनवाया किसने और अब कौन इसकी देखरेख कर रहा है 1815 में सबसे पहले इसे बैठाया गया
इंतेजामिया कमेटी रांगे की ताजिया के प्रबंधक हाजी अब्दुल कय्यूम ने बताया- ‘यह ताजिया तकरीबन 200 साल पुरानी है। इसकी शुरुआत लहंगपुरा के रहने वाले हाकिम नवाज अली शाह ने की थी। उस वक्त बाराबंकी के कारीगरों ने इसे बनाया था। इसे 9 मोहर्रम की शाम इमाम चौक पर बैठाया जाता है। शहर का आखरी ताजिया का जुलूस
हाजी अब्दुल कय्यूम ने बताया – ‘यह ताजिया शहर बनारस का अंतिम ताजिया है। इस ताजिया के पीछे कोई ताजिया नहीं होता है। 10 मोहर्रम को इसके पीछे शिया समुदाय का दुलदुल का जुलूस चलता है। जो फातमान तक जाता है। यह ताजिया 9 मोहर्रम को दस्तारबंदी के बाद इमाम चौक पर रखा जाता है। उन्होंने बताया कि इस दौरान सैंकड़ों लोग यहां मौजूद रहते हैं। सरदार अली हसन ने बनाई कमेटी
उन्होंने बताया कि आजादी के बाद सरदार अली हसन ने 11 अक्टूबर सन 1968 में इसकी कमेटी बनाई और इसे पंचों का रांगा के ताजिया नाम दिया। तब से ही कमेटी चली आ रही है। अब इसके वजन और ऊंचाई की बात, आखिर किन रास्तों से गुजरता है यह ताजिया 3 कुंतल वजनी है साखू-सागवान-शीशम की लकड़ी से बना रांगे का ताजिया
ताजिया कमेटी के नायब सदर मुश्ताक अहमद अंसारी ने बताया – यह बारहों की ताजिया है। इसके सदर मुमताज अहमद अंसारी हैं। 121 मेम्बरों की यह ताजिया चंदे से बनती है। इसमें साखू-सागवान और शीशम की लकड़ी है। जिसका वजन दो से 3 कुंतल वजन है। जिस पर रांगा लगाया जाता है। रांगे को लकड़ी के सांचे पर उकेरते हैं डिजाइन
मुश्ताक ने बताया – लकड़ी की ताजिया परडिजाइन लगाईं जाती है। इसमें हर साल 60 से 70 किलो रांगा इस्तेमाल होता है। उसे बहुत ही बारीकी से लगाया जाता है। इसमें करीब 70 तरीके की डिजाइन है जिसे युवा लकड़ी के 200 साल पुराने सांचे पर हांथी के दांत से उकेरते हैं। इन रास्तों से होकर गुजरता है जुलूस
ताजिया औरंगाबाद, नई सड़क, खजूर वाली मस्जिद, नई सड़क, फाटक शेख सलीम, कालीमहल, पितरकुंडा होते हुए लल्लापुरा स्थित दरगाह फातमान पर ठंडी होती है। जिसे 60 लोग उठाते हैं। पहले 35 लोग इसे उठाते थे। धर्म की नगरी काशी में सभी समुदाय मिलकर मोहर्रम मनाते हैं। ऐसे में वाराणसी की रांगे की ताजिया काशी के मोहर्रम की सबसे महत्वपूर्ण ताजिया है। 10 मोहर्रम को उठने वाली यह ताजिया काशी की सबसे आखरी ताजिया है जो दरगाह फातमान के लिए निकलती है। इसके पीछे शिया समुदाय के दुलदुल का जुलूस चलता है। लहंगपुरा के रहने वाले हाकिम नवाज अली शाह ने इस रांगे की ताजिया की शुरुआत की थी। तब से आज तक इसे हर साल पूरी शानों शौकत के साथ उठाया जा रहा है। इसमें लगने वाले रांगे को लकड़ी के सांचे पर रखकर हाथी दांत के कलम से उकेरा जाता है। यह देश का अकेला रांगे का ताजिया है जिसमें 70 किलो के आस-पास रांगे को गलाकर उसकी शीट बनाकर उससे डिजाइन बनाते हैं। यह ताजिया कैसे बनती है और इसे बनाने में कितना दिन लगता है साथ ही इसके इतिहास के बारे में दैनिक भास्कर ने इमामबाड़ा रांगे की ताजिया 14/09 काजीपुराखुर्द लल्लापुरा पहुंचकर इस ताजिया की कमेटी के लोगों से बातचीत की… लकड़ी के 200 साल पुराने सांचे पर बनी बूटियों का इतिहास और कैसे रांगे पर आती है डिजाइन दो महीना पहले से शुरू हो जाती है तैयारी
रांगे की ताजिया लकड़ी की है जिसपर रांगे से डिजाइनिंग की जाती है। इसपर कैसे डिजाइन उकेरे जाती है। इस प्रोसेस को हमने समझा। रांगे पर डिजाइन करने वाले मोहम्मद शमीम ने बताया कि बकरीद का चांद दिखते ही ताजिया बनाने का काम शुरू हो जाता है। इसके लिए हमें पहले से प्रिपरेशन करनी पड़ी है। उसके बाद सारा रांगा निकालकर उसे गलाया जाता है और उससे गन्दगी हटाई जाती है। इसके बाद रांगे को खास टेक्निक से शीट में तब्दील किया जाता है। 200 साल पुराने सांचे से रांगे पर बनती है 70 तरीके की डिजाइन
शमीम ने बताया- रांगे की टेक्निक से शीट में बदले जाने के बाद उसे साखू की लकड़ी से बने 200 साल पुराने सांचे पर रखकर हांथी के दांत की कलम से उकेरा जाता है। उसके बाद डिजाइन के अनुसार उसे ताजिये में चिपका दिया जाता है। ताजिये में 70 तरीके की डिजाइन का इस्तेमाल होता है। इन डिजाइन का अलग-अलग 70 के करीब सांचा भी है। बहुत सावधानी का है काम
इस काम के मुख्य कारीगर इश्तियाक अहमद दादे और गुलजार ने बताया – इस लकड़ी के सांचे से रांगे पर डिजाइन उकेरना बहुत टफ है और सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि रांगे की शीट अगर फट जाती है तो उसे फिर गलाना पड़ता है। फिर से उसे शीट का रूप देना पड़ता है। इसे बनाने में करीब 15 युवा लगे हुए हैं। जो रोज रात में 8 घंटे इस पर डिजाइन उकेरते हैं। जिसमें बूटी अधिक है। बाराबंकी के हैं मुख्य कारीगर
हाजी कय्यूम ने बताया कि इसके और इस सांचे के मुख्य कारीगर बाराबंकी के रहने वाले अजीमुद्दीन हाजी शफी मोहम्मद अकमल साहब थे। उन्होंने ने ही ये सांचे बनाए हैं जो अब ख़त्म होने की कगार पर हैं। अब जानिए इस ताजिया को बनवाया किसने और अब कौन इसकी देखरेख कर रहा है 1815 में सबसे पहले इसे बैठाया गया
इंतेजामिया कमेटी रांगे की ताजिया के प्रबंधक हाजी अब्दुल कय्यूम ने बताया- ‘यह ताजिया तकरीबन 200 साल पुरानी है। इसकी शुरुआत लहंगपुरा के रहने वाले हाकिम नवाज अली शाह ने की थी। उस वक्त बाराबंकी के कारीगरों ने इसे बनाया था। इसे 9 मोहर्रम की शाम इमाम चौक पर बैठाया जाता है। शहर का आखरी ताजिया का जुलूस
हाजी अब्दुल कय्यूम ने बताया – ‘यह ताजिया शहर बनारस का अंतिम ताजिया है। इस ताजिया के पीछे कोई ताजिया नहीं होता है। 10 मोहर्रम को इसके पीछे शिया समुदाय का दुलदुल का जुलूस चलता है। जो फातमान तक जाता है। यह ताजिया 9 मोहर्रम को दस्तारबंदी के बाद इमाम चौक पर रखा जाता है। उन्होंने बताया कि इस दौरान सैंकड़ों लोग यहां मौजूद रहते हैं। सरदार अली हसन ने बनाई कमेटी
उन्होंने बताया कि आजादी के बाद सरदार अली हसन ने 11 अक्टूबर सन 1968 में इसकी कमेटी बनाई और इसे पंचों का रांगा के ताजिया नाम दिया। तब से ही कमेटी चली आ रही है। अब इसके वजन और ऊंचाई की बात, आखिर किन रास्तों से गुजरता है यह ताजिया 3 कुंतल वजनी है साखू-सागवान-शीशम की लकड़ी से बना रांगे का ताजिया
ताजिया कमेटी के नायब सदर मुश्ताक अहमद अंसारी ने बताया – यह बारहों की ताजिया है। इसके सदर मुमताज अहमद अंसारी हैं। 121 मेम्बरों की यह ताजिया चंदे से बनती है। इसमें साखू-सागवान और शीशम की लकड़ी है। जिसका वजन दो से 3 कुंतल वजन है। जिस पर रांगा लगाया जाता है। रांगे को लकड़ी के सांचे पर उकेरते हैं डिजाइन
मुश्ताक ने बताया – लकड़ी की ताजिया परडिजाइन लगाईं जाती है। इसमें हर साल 60 से 70 किलो रांगा इस्तेमाल होता है। उसे बहुत ही बारीकी से लगाया जाता है। इसमें करीब 70 तरीके की डिजाइन है जिसे युवा लकड़ी के 200 साल पुराने सांचे पर हांथी के दांत से उकेरते हैं। इन रास्तों से होकर गुजरता है जुलूस
ताजिया औरंगाबाद, नई सड़क, खजूर वाली मस्जिद, नई सड़क, फाटक शेख सलीम, कालीमहल, पितरकुंडा होते हुए लल्लापुरा स्थित दरगाह फातमान पर ठंडी होती है। जिसे 60 लोग उठाते हैं। पहले 35 लोग इसे उठाते थे। उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर