‘मैं पहले बहुत अच्छा हॉकी खेलता था। हॉकी खेलने के बाद बॉक्सिंग खेलने लगा। इसके बाद मैंने स्विमिंग करनी शुरू की। साल 1968 से 1982 तक बहुत सारे मेडल मिले। इस दौरान जनरल चैंपियनशिप और कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे कई इंटरनेशनल इवेंट्स में भी शिरकत किया।’ ‘1972 में नया वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाकर गोल्ड मेडल जीता। अब गांव में रहकर बच्चों को ट्रेनिंग देता हूं। दिव्यांग बच्चों को भी ट्रेनिंग देता हूं। इसके लिए एक छोटी सी एकेडमी भी बनाई है।’ – ये कहना है, पैरा ओलिंपिक में देश को पहला गोल्ड दिलाने वाले मुरलीकांत पेटकर का। इनकी जीवनी पर चंदू चैंपियन फिल्म भी बन चुकी है। डॉ.शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय में 11वें बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे पेटकर से दैनिक भास्कर ने एक्सक्लूसिव बातचीत की। सवाल: बचपन से लेकर अब 84 साल की उम्र तक के अपने सफर को कैसे देखते हैं? जवाब: 11 साल की उम्र से आर्मी की बॉयज बटालियन में भर्ती हुआ था। 1965 की लड़ाई में मुझे 9 गोली लगी। रिकवरी तो नहीं हुई, पर डॉक्टर और फिजियोथेरेपिस्ट ने बोला कि स्विमिंग करोगे तो ठीक हो जाएगा। ट्रीटमेंट के लिए स्विमिंग शुरू किया, फिर प्रैक्टिस के साथ अच्छा हो गया। रेसलिंग में पहला मेडल जीतने वाले खिलाड़ी से मुझे प्रेरणा मिली। मेडल मिलने के बाद उसके लिए सभी ने जश्न मनाया था। तभी से ये लक्ष्य बना लिया था कि आगे चलकर मुझे भी मेडल जीतना है। सवाल: आप पद्मश्री से नवाजे गए, आप पर फिल्म भी बनी। जहां कहीं भी जाते हैं, सम्मान मिलता है। कैसा लगता है? जवाब: मुझे पहले से ही सम्मान मिलता रहा है। 1965 की जंग में भाग लेने के बाद से लोगों से सम्मान मिलना शुरू हो गया। फिर 1972 के पैरा ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने के बाद ये और भी बढ़ गया। सवाल: सामान्य खिलाड़ी और दिव्यांग खिलाड़ी में आप क्या अंतर महसूस करते हैं? जवाब – दिव्यांगों सामान्य लोगों से ज्यादा मेहनती होते हैं। दिव्यांग कभी लाचार नही होते हैं, उनको बस काम देने की जरूरत हैं। आप उन्हें काम दे दो, वो कभी भीख नही मानेंगे। मैंने देखा हैं कि दिव्यांग खिलाड़ी सामान्य खिलाड़ी से ज्यादा मेडल लेकर आते हैं। इसलिए भविष्य अच्छा ही रहेगा। सवाल – भारत में पैरा ओलिंपिक का क्या भविष्य देखते हैं? सवाल: पहले पैरा ओलिंपिक खेल के बारे कोई ज्यादा नहीं जानता था। इसकी शुरुआत मैंने और विजय मर्चेंट ने की। बाद में दीपा मलिक को भी गोल्ड मेडल मिला। मौजूदा समय की पैरा ओलिंपिक कमेटी बहुत स्ट्रांग हैं। पैरा ओलिंपिक में जाने से पहले दिव्यांग खिलाड़ियों को मेरी फिल्म चंदू चैंपियन दिखाई गई। इसे खिलाड़ी देखकर भावुक हो गए। उन्होंने कहा कि आपने कभी हार नहीं मानी तो हम भी हार नहीं मानेंगे। गोल्ड मेडल और मेडल लेकर ही लौटेंगे। सवाल: 1965 की जंग में गंभीर रूप से जख्मी होने के बाद आपने कैसे वापसी की? जवाब: साल 1965 की जंग में 9 गोली लगने के बाद मैं कोमा में चला गया था। लगभग 2 साल मैं कोमा में ही था। एक दिन अचानक मिलिट्री हॉस्पिटल में इलाज के दौरान जनरल साहब आए। वो जवानों का हालचाल लेने पहुंचे थे। इस बीच अचानक बेड से गिरने के बाद मुझे होश आ गया। मुझे लगा कि मैं पाकिस्तान में हूं। मैंने सामने जनरल साहब को जकड़ लिया। मैंने उनसे और साथ में रहे डॉक्टर से आइडेंटिटी कार्ड मांगा। मौके पर दोनों के पास आई कार्ड नहीं था। इसलिए मैंने उन्हें छोड़ा नहीं। संयोगवश मौके पर मौजूद नर्स ने मुझे आई कार्ड दिखाया। उसमें इंडियन मिलिट्री हॉस्पिटल लिखा था। तब जाकर यकीन हुआ कि मैं भारत में हूं। तब जाकर उनको मैंने आजाद किया। जंग के दौरान एक गोली रीढ़ में धंस गई थी, जिससे कमर के निचले हिस्से पर असर हुआ। मैंने जीवन मे कुछ कर गुजरने का जज्बा जिंदा रखा। खुद को फिट रखने के लिए खेलना शुरू किया। अब जानें क्यों बेहद खास हैं पद्मश्री मुरली कांत राजाराम पेटकर
पद्मश्री मुरली कांत राजाराम पेटकर भारत के पहले पैरा ओलिंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट हैं। 1972 के जर्मनी पैरा ओलिंपिक गेम्स में उन्हें 50 मीटर फ्री स्टाइल स्विमिंग में गोल्ड मेडल मिला था। वे महाराष्ट्र के सांगली जिले के रहने वाले हैं। इनका जन्म इस्लामपुर गांव में 1 नवंबर 1944 को हुआ। स्विमिंग के साथ जेवलिन थ्रो में भी उन्होंने हाथ आजमाए। इंडियन आर्मी में सर्विस के दौरान पेटकर ने साल 1965 के पाकिस्तान के खिलाफ जंग का हिस्सा रहे। इस दौरान उन्हें 9 गोलियां लगी थी। उनके शरीर को कार से कुचल दिया गया था। इस कारण शरीर का कुछ हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। फिजियो की सलाह पर उन्होंने रिकवरी के लिए स्विमिंग शुरू की और फिर कभी पलट कर नहीं देखा। 2018 में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया। यह भी पढ़ें राज्यपाल बोलीं- जाति में बटिए मत, फंसिए मत:बिचौलिए जहां भी हों दूर कीजिए; चंदू चैंपियन फिल्म जरूर देखें राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने लखनऊ में कहा- जाति में बटिए मत, फसिए मत। बिचौलिए जहां भी हों, दूर कीजिए। शिक्षा ही सिर्फ एक ऐसा माध्यम है, जो आपको जाति में बटने से बचाएगा। संस्कार और हमारी परंपराएं ही हमारे लिए सब कुछ हैं। इसलिए बटिए मत। राज्यपाल ने कहा- आत्मविश्वास ही सबसे बड़ी ताकत होती है। हिम्मत से सब कुछ हांसिल किया जा सकता है। राज्यपाल लखनऊ के शकुंतला मिश्रा विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोल रही थीं। राज्यपाल ने 130 मेधावियों को मेडल भी दिए। पढ़ें पूरी खबर… ‘मैं पहले बहुत अच्छा हॉकी खेलता था। हॉकी खेलने के बाद बॉक्सिंग खेलने लगा। इसके बाद मैंने स्विमिंग करनी शुरू की। साल 1968 से 1982 तक बहुत सारे मेडल मिले। इस दौरान जनरल चैंपियनशिप और कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे कई इंटरनेशनल इवेंट्स में भी शिरकत किया।’ ‘1972 में नया वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाकर गोल्ड मेडल जीता। अब गांव में रहकर बच्चों को ट्रेनिंग देता हूं। दिव्यांग बच्चों को भी ट्रेनिंग देता हूं। इसके लिए एक छोटी सी एकेडमी भी बनाई है।’ – ये कहना है, पैरा ओलिंपिक में देश को पहला गोल्ड दिलाने वाले मुरलीकांत पेटकर का। इनकी जीवनी पर चंदू चैंपियन फिल्म भी बन चुकी है। डॉ.शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय में 11वें बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे पेटकर से दैनिक भास्कर ने एक्सक्लूसिव बातचीत की। सवाल: बचपन से लेकर अब 84 साल की उम्र तक के अपने सफर को कैसे देखते हैं? जवाब: 11 साल की उम्र से आर्मी की बॉयज बटालियन में भर्ती हुआ था। 1965 की लड़ाई में मुझे 9 गोली लगी। रिकवरी तो नहीं हुई, पर डॉक्टर और फिजियोथेरेपिस्ट ने बोला कि स्विमिंग करोगे तो ठीक हो जाएगा। ट्रीटमेंट के लिए स्विमिंग शुरू किया, फिर प्रैक्टिस के साथ अच्छा हो गया। रेसलिंग में पहला मेडल जीतने वाले खिलाड़ी से मुझे प्रेरणा मिली। मेडल मिलने के बाद उसके लिए सभी ने जश्न मनाया था। तभी से ये लक्ष्य बना लिया था कि आगे चलकर मुझे भी मेडल जीतना है। सवाल: आप पद्मश्री से नवाजे गए, आप पर फिल्म भी बनी। जहां कहीं भी जाते हैं, सम्मान मिलता है। कैसा लगता है? जवाब: मुझे पहले से ही सम्मान मिलता रहा है। 1965 की जंग में भाग लेने के बाद से लोगों से सम्मान मिलना शुरू हो गया। फिर 1972 के पैरा ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने के बाद ये और भी बढ़ गया। सवाल: सामान्य खिलाड़ी और दिव्यांग खिलाड़ी में आप क्या अंतर महसूस करते हैं? जवाब – दिव्यांगों सामान्य लोगों से ज्यादा मेहनती होते हैं। दिव्यांग कभी लाचार नही होते हैं, उनको बस काम देने की जरूरत हैं। आप उन्हें काम दे दो, वो कभी भीख नही मानेंगे। मैंने देखा हैं कि दिव्यांग खिलाड़ी सामान्य खिलाड़ी से ज्यादा मेडल लेकर आते हैं। इसलिए भविष्य अच्छा ही रहेगा। सवाल – भारत में पैरा ओलिंपिक का क्या भविष्य देखते हैं? सवाल: पहले पैरा ओलिंपिक खेल के बारे कोई ज्यादा नहीं जानता था। इसकी शुरुआत मैंने और विजय मर्चेंट ने की। बाद में दीपा मलिक को भी गोल्ड मेडल मिला। मौजूदा समय की पैरा ओलिंपिक कमेटी बहुत स्ट्रांग हैं। पैरा ओलिंपिक में जाने से पहले दिव्यांग खिलाड़ियों को मेरी फिल्म चंदू चैंपियन दिखाई गई। इसे खिलाड़ी देखकर भावुक हो गए। उन्होंने कहा कि आपने कभी हार नहीं मानी तो हम भी हार नहीं मानेंगे। गोल्ड मेडल और मेडल लेकर ही लौटेंगे। सवाल: 1965 की जंग में गंभीर रूप से जख्मी होने के बाद आपने कैसे वापसी की? जवाब: साल 1965 की जंग में 9 गोली लगने के बाद मैं कोमा में चला गया था। लगभग 2 साल मैं कोमा में ही था। एक दिन अचानक मिलिट्री हॉस्पिटल में इलाज के दौरान जनरल साहब आए। वो जवानों का हालचाल लेने पहुंचे थे। इस बीच अचानक बेड से गिरने के बाद मुझे होश आ गया। मुझे लगा कि मैं पाकिस्तान में हूं। मैंने सामने जनरल साहब को जकड़ लिया। मैंने उनसे और साथ में रहे डॉक्टर से आइडेंटिटी कार्ड मांगा। मौके पर दोनों के पास आई कार्ड नहीं था। इसलिए मैंने उन्हें छोड़ा नहीं। संयोगवश मौके पर मौजूद नर्स ने मुझे आई कार्ड दिखाया। उसमें इंडियन मिलिट्री हॉस्पिटल लिखा था। तब जाकर यकीन हुआ कि मैं भारत में हूं। तब जाकर उनको मैंने आजाद किया। जंग के दौरान एक गोली रीढ़ में धंस गई थी, जिससे कमर के निचले हिस्से पर असर हुआ। मैंने जीवन मे कुछ कर गुजरने का जज्बा जिंदा रखा। खुद को फिट रखने के लिए खेलना शुरू किया। अब जानें क्यों बेहद खास हैं पद्मश्री मुरली कांत राजाराम पेटकर
पद्मश्री मुरली कांत राजाराम पेटकर भारत के पहले पैरा ओलिंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट हैं। 1972 के जर्मनी पैरा ओलिंपिक गेम्स में उन्हें 50 मीटर फ्री स्टाइल स्विमिंग में गोल्ड मेडल मिला था। वे महाराष्ट्र के सांगली जिले के रहने वाले हैं। इनका जन्म इस्लामपुर गांव में 1 नवंबर 1944 को हुआ। स्विमिंग के साथ जेवलिन थ्रो में भी उन्होंने हाथ आजमाए। इंडियन आर्मी में सर्विस के दौरान पेटकर ने साल 1965 के पाकिस्तान के खिलाफ जंग का हिस्सा रहे। इस दौरान उन्हें 9 गोलियां लगी थी। उनके शरीर को कार से कुचल दिया गया था। इस कारण शरीर का कुछ हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। फिजियो की सलाह पर उन्होंने रिकवरी के लिए स्विमिंग शुरू की और फिर कभी पलट कर नहीं देखा। 2018 में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया। यह भी पढ़ें राज्यपाल बोलीं- जाति में बटिए मत, फंसिए मत:बिचौलिए जहां भी हों दूर कीजिए; चंदू चैंपियन फिल्म जरूर देखें राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने लखनऊ में कहा- जाति में बटिए मत, फसिए मत। बिचौलिए जहां भी हों, दूर कीजिए। शिक्षा ही सिर्फ एक ऐसा माध्यम है, जो आपको जाति में बटने से बचाएगा। संस्कार और हमारी परंपराएं ही हमारे लिए सब कुछ हैं। इसलिए बटिए मत। राज्यपाल ने कहा- आत्मविश्वास ही सबसे बड़ी ताकत होती है। हिम्मत से सब कुछ हांसिल किया जा सकता है। राज्यपाल लखनऊ के शकुंतला मिश्रा विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोल रही थीं। राज्यपाल ने 130 मेधावियों को मेडल भी दिए। पढ़ें पूरी खबर… उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर