अवध की मल्लिका आलिया को सपने में दिखी थी मूर्ति:लखनऊ में हाथी आगे नहीं बढ़े, तो मंदिर बनवाकर कराया मंगल भंडारा, पढ़िए 3 मान्यताएं…

अवध की मल्लिका आलिया को सपने में दिखी थी मूर्ति:लखनऊ में हाथी आगे नहीं बढ़े, तो मंदिर बनवाकर कराया मंगल भंडारा, पढ़िए 3 मान्यताएं…

लखनऊ में ज्येष्ठ महीने के सभी मंगलवार त्योहार की तरह मनाए जाते हैं। यहां ज्येष्ठ के मंगल को बड़ा मंगल कहते हैं। बड़ा मंगल पर पूरे लखनऊ में जगह-जगह भंडारे किए जाते हैं। ये भंडारे यूं ही नहीं कराए जाते। इनका 400 साल का इतिहास है। भंडारों के आयोजन में हिंदुओं के साथ मुस्लिम भी शामिल होते हैं। इस बार ज्येष्ठ महीने में 5 बड़े मंगल हैं। इसे लखनऊ की करीब 25 फीसदी आबादी मिलकर सेलिब्रेट करेगी। लखनऊ में बड़े मंगल पर भंडारे कब और कैसे शुरू हुए, इसकी सिलसिलेवार तीन मान्यताएं जानिए… पहली मान्यता बेगम को ख्वाब में मूर्ति दिखी, हाथी छोड़े गए अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला थे। उनकी बेगम मल्लिका आलिया थी। बेगम को ख्वाब में एक दिव्य स्थल पर मूर्ति के दर्शन हुए। लगातार कई दिनों तक यही ख्वाब उन्हें आते रहे। उन्होंने जानकार पंडितों और मौलवियों से इस बारे में चर्चा की। तय हुआ, फैजाबाद से एक हाथी को रवाना किया जाएगा। हाथी को दूध से नहला-धुलाकर तैयार किया गया। फिर पूजा-पाठ करके रवाना किया गया। हाथी लखनऊ में गोमती नदी से पहले ही तट पर आकर रुक गया। सभी को लगा कि हाथी थक गया होगा या फिर कुछ परेशानी होगी, इसलिए रुका होगा। दूसरा हाथी फिर उसी विधि-विधान से तैयार किया गया। वो भी यहीं आकर रुक गया। माना गया, पहले हाथी को देखकर दूसरे ने भी ऐसा किया। अब तीसरा हाथी फिर से फैजाबाद से तैयार करके भेजा गया। ये हाथी भी उसी जगह पर आकर रुक गया। पंडितों को लगा, यह स्थान खास है। सभी की सहमति से खुदाई शुरू की गई। वहां हनुमानजी की मूर्ति मिली। तभी बेगम ने इस जगह पर मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। ये करीब 1760 की बात है। इसी स्थान पर विशाल मंदिर बना, जो अब अलीगंज हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर बनने के बाद यहां के पंडित और पुजारी बेगम साहिबा के पास शुक्रिया अदा करने आए। तब बेगम ने पूछा- भक्त और श्रद्धालु मंदिर आएंगे, उनके लिए प्रसाद और जलपान की व्यवस्था हुई या नहीं। पंडितों ने बताया- अभी तो ऐसा कुछ नहीं है। बेगम ने कुछ आराजी (जमीन) इस मंदिर के नाम की। कहा- इसकी आमदनी से मंदिर दर्शन करने वालों के लिए प्रसाद का इंतजाम किया जाए। हनुमानजी का दिन मंगलवार का है। फिर तय हुआ कि साल में 2 बार विशेष आयोजन होगा। गर्मी के दिनों में या कहें तो जेठ महीने में बड़ा आयोजन करने की शुरुआत हुई। पहले लड्डू, चना और शरबत से शुरू हुआ। बाद में पूड़ी, कचौड़ी और आलू भी दिया जाने लगा। दूसरी मान्यता बेगम का बेटा बीमार हुआ, हनुमानजी से मन्नत मांगी अवध के नवाब परिवार के कुछ सदस्य भी हनुमानजी के भक्त थे। 400 साल पहले इन्हीं में से एक आलिया बेगम थीं। उन्हीं के नाम पर अलीगंज इलाका बसा। एक बार आलिया बेगम के बेटे की तबीयत बेहद खराब हो गई। जब कहीं कोई उम्मीद नहीं बची, तब उन्होंने हनुमानजी से प्रार्थना की। यहां दर्शन करने के बाद उनका बेटा ठीक हो गया। तभी उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। ऐसी भी मान्यता है कि नवाब बजरंगबली की ये मूर्ति इमामबाड़े के पास ले जाना चाहते थे। एक हाथी पर मूर्ति रखकर ले जाया गया, लेकिन हाथी गोमती के तट को पार नहीं कर पाया। कुछ ही दूर पर बैठ गया। जिस स्थान पर हाथी रुका, वहीं नया हनुमान मंदिर स्थापित किया गया। फिर बड़े मंगल पर भंडारे की शुरुआत हुई। प्राचीन लेटे हनुमानजी के मुख्य पुरोहित डॉ. विवेक तांगड़ी कहते हैं- लखनऊ में ऐसी परंपरा थी कि जेठ महीने में रात करीब 1 बजे लोग घरों से निकलते थे। छोटे बच्चे लंगोट पहन कर निकलते थे। पैदल नंगे पांव या लेट कर दूरी तय करते थे। सुबह 8 या 9 बजे तक मंदिर पहुंचते थे। अभी भी कई लोग पैदल या फिर अपने घर से नंगे पांव चलकर बजरंगबली के दर्शन करने आते हैं। ये धर्म और आस्था का विषय है। नवाबों के दौर से ये चला आ रहा है। यहां की यही गंगा-जमुनी तहजीब है। उन्होंने कहा- वैसे भी हनुमानजी कर्म के देवता हैं। वो सेतु का काम करते हैं। चाहे सुग्रीव से भगवान की मित्रता कराकर उनका काम करवाना हो या फिर विभीषण को प्रभु से मिलाकर उन्हें लंकापति बनाना हो। इन सभी में हनुमानजी का अहम योगदान रहा। वो हमेशा सदैव संकटमोचक रहे। भगवान ने कहा था- हे कपीश्वर! मैं आपके ऋण से कभी मुक्त नहीं रह सकता। आप सभी के संकट हरते हैं। हनुमानजी की सबसे बड़ी सेवा, प्यासे को पानी और भूखे को भोजन देना है। यही हमारा धर्म भी सिखाता है। तीसरी मान्यता मंदिर का पौराणिक उल्लेख, महामारी फैली थी श्रीराम के कहने पर लक्ष्मणजी, माता सीता को अयोध्या से महर्षि वाल्मीकि के आश्रम लेकर जा रहे थे। रास्ते में लक्ष्मणपुरी नगरी पड़ी। लक्ष्मण टीले पर (आज की टीले वाली मस्जिद) पर लक्ष्मणजी रुके, पर सीताजी ने यहीं जंगलों में विश्राम किया। यहां उनकी रक्षा के लिए स्वयं बजरंगबली मौजूद रहे। तभी से इस जगह पर हनुमान रक्षक बनकर विराजमान हैं। महंत गोपालदास बताते हैं- मान्यता है कि लखनऊ में एक महामारी फैली थी। बड़ी संख्या में लोग इसकी चपेट में आने लगे। लोगों ने हनुमानजी से प्रार्थना की। महामारी खत्म हो गई। तभी से जेठ महीने के मंगल में हनुमानजी का प्रसाद वितरण होने लगा। बाद में इस जगह पर बाबा नीम करोली भी पहुंचे। वो कई दिनों तक यहां रुके भी। मुझे भी बाबा की सेवा में रहने का अवसर मिला। मैंने खुद अपने हाथों से उन्हें पानी पिलाया है। लगभग 50 सालों से मैं इस मंदिर में हूं। लखनऊ से शुरू हुआ बड़े मंगल का ये आयोजन, अब पूरे यूपी में होने लगा है। लखनऊ नामा में भी मंदिर और बेगम आलिया का जिक्र दिवंगत इतिहासकार डॉ. योगेश प्रवीन ने लखनऊ नामा में लिखा है- गोमती के उस पार हनुमान के दो प्राचीन मंदिर हैं। जिस मंदिर को आजकल मुख्य मंदिर का महत्व दिया जाता है, वो इत्र व्यापारी लाला जाटमल ने 1783 में बनाया था। यह मंदिर महंत खासा राम के अनुरोध पर तैयार किया गया था। मंदिर का मुख्य मंडप 6 मई, 1783 को तैयार हुआ था। जेठ महीने के सभी मंगलवार को यहां जबरदस्त भीड़ होती है। लखनऊ में ज्येष्ठ महीने के सभी मंगलवार त्योहार की तरह मनाए जाते हैं। यहां ज्येष्ठ के मंगल को बड़ा मंगल कहते हैं। बड़ा मंगल पर पूरे लखनऊ में जगह-जगह भंडारे किए जाते हैं। ये भंडारे यूं ही नहीं कराए जाते। इनका 400 साल का इतिहास है। भंडारों के आयोजन में हिंदुओं के साथ मुस्लिम भी शामिल होते हैं। इस बार ज्येष्ठ महीने में 5 बड़े मंगल हैं। इसे लखनऊ की करीब 25 फीसदी आबादी मिलकर सेलिब्रेट करेगी। लखनऊ में बड़े मंगल पर भंडारे कब और कैसे शुरू हुए, इसकी सिलसिलेवार तीन मान्यताएं जानिए… पहली मान्यता बेगम को ख्वाब में मूर्ति दिखी, हाथी छोड़े गए अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला थे। उनकी बेगम मल्लिका आलिया थी। बेगम को ख्वाब में एक दिव्य स्थल पर मूर्ति के दर्शन हुए। लगातार कई दिनों तक यही ख्वाब उन्हें आते रहे। उन्होंने जानकार पंडितों और मौलवियों से इस बारे में चर्चा की। तय हुआ, फैजाबाद से एक हाथी को रवाना किया जाएगा। हाथी को दूध से नहला-धुलाकर तैयार किया गया। फिर पूजा-पाठ करके रवाना किया गया। हाथी लखनऊ में गोमती नदी से पहले ही तट पर आकर रुक गया। सभी को लगा कि हाथी थक गया होगा या फिर कुछ परेशानी होगी, इसलिए रुका होगा। दूसरा हाथी फिर उसी विधि-विधान से तैयार किया गया। वो भी यहीं आकर रुक गया। माना गया, पहले हाथी को देखकर दूसरे ने भी ऐसा किया। अब तीसरा हाथी फिर से फैजाबाद से तैयार करके भेजा गया। ये हाथी भी उसी जगह पर आकर रुक गया। पंडितों को लगा, यह स्थान खास है। सभी की सहमति से खुदाई शुरू की गई। वहां हनुमानजी की मूर्ति मिली। तभी बेगम ने इस जगह पर मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। ये करीब 1760 की बात है। इसी स्थान पर विशाल मंदिर बना, जो अब अलीगंज हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर बनने के बाद यहां के पंडित और पुजारी बेगम साहिबा के पास शुक्रिया अदा करने आए। तब बेगम ने पूछा- भक्त और श्रद्धालु मंदिर आएंगे, उनके लिए प्रसाद और जलपान की व्यवस्था हुई या नहीं। पंडितों ने बताया- अभी तो ऐसा कुछ नहीं है। बेगम ने कुछ आराजी (जमीन) इस मंदिर के नाम की। कहा- इसकी आमदनी से मंदिर दर्शन करने वालों के लिए प्रसाद का इंतजाम किया जाए। हनुमानजी का दिन मंगलवार का है। फिर तय हुआ कि साल में 2 बार विशेष आयोजन होगा। गर्मी के दिनों में या कहें तो जेठ महीने में बड़ा आयोजन करने की शुरुआत हुई। पहले लड्डू, चना और शरबत से शुरू हुआ। बाद में पूड़ी, कचौड़ी और आलू भी दिया जाने लगा। दूसरी मान्यता बेगम का बेटा बीमार हुआ, हनुमानजी से मन्नत मांगी अवध के नवाब परिवार के कुछ सदस्य भी हनुमानजी के भक्त थे। 400 साल पहले इन्हीं में से एक आलिया बेगम थीं। उन्हीं के नाम पर अलीगंज इलाका बसा। एक बार आलिया बेगम के बेटे की तबीयत बेहद खराब हो गई। जब कहीं कोई उम्मीद नहीं बची, तब उन्होंने हनुमानजी से प्रार्थना की। यहां दर्शन करने के बाद उनका बेटा ठीक हो गया। तभी उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। ऐसी भी मान्यता है कि नवाब बजरंगबली की ये मूर्ति इमामबाड़े के पास ले जाना चाहते थे। एक हाथी पर मूर्ति रखकर ले जाया गया, लेकिन हाथी गोमती के तट को पार नहीं कर पाया। कुछ ही दूर पर बैठ गया। जिस स्थान पर हाथी रुका, वहीं नया हनुमान मंदिर स्थापित किया गया। फिर बड़े मंगल पर भंडारे की शुरुआत हुई। प्राचीन लेटे हनुमानजी के मुख्य पुरोहित डॉ. विवेक तांगड़ी कहते हैं- लखनऊ में ऐसी परंपरा थी कि जेठ महीने में रात करीब 1 बजे लोग घरों से निकलते थे। छोटे बच्चे लंगोट पहन कर निकलते थे। पैदल नंगे पांव या लेट कर दूरी तय करते थे। सुबह 8 या 9 बजे तक मंदिर पहुंचते थे। अभी भी कई लोग पैदल या फिर अपने घर से नंगे पांव चलकर बजरंगबली के दर्शन करने आते हैं। ये धर्म और आस्था का विषय है। नवाबों के दौर से ये चला आ रहा है। यहां की यही गंगा-जमुनी तहजीब है। उन्होंने कहा- वैसे भी हनुमानजी कर्म के देवता हैं। वो सेतु का काम करते हैं। चाहे सुग्रीव से भगवान की मित्रता कराकर उनका काम करवाना हो या फिर विभीषण को प्रभु से मिलाकर उन्हें लंकापति बनाना हो। इन सभी में हनुमानजी का अहम योगदान रहा। वो हमेशा सदैव संकटमोचक रहे। भगवान ने कहा था- हे कपीश्वर! मैं आपके ऋण से कभी मुक्त नहीं रह सकता। आप सभी के संकट हरते हैं। हनुमानजी की सबसे बड़ी सेवा, प्यासे को पानी और भूखे को भोजन देना है। यही हमारा धर्म भी सिखाता है। तीसरी मान्यता मंदिर का पौराणिक उल्लेख, महामारी फैली थी श्रीराम के कहने पर लक्ष्मणजी, माता सीता को अयोध्या से महर्षि वाल्मीकि के आश्रम लेकर जा रहे थे। रास्ते में लक्ष्मणपुरी नगरी पड़ी। लक्ष्मण टीले पर (आज की टीले वाली मस्जिद) पर लक्ष्मणजी रुके, पर सीताजी ने यहीं जंगलों में विश्राम किया। यहां उनकी रक्षा के लिए स्वयं बजरंगबली मौजूद रहे। तभी से इस जगह पर हनुमान रक्षक बनकर विराजमान हैं। महंत गोपालदास बताते हैं- मान्यता है कि लखनऊ में एक महामारी फैली थी। बड़ी संख्या में लोग इसकी चपेट में आने लगे। लोगों ने हनुमानजी से प्रार्थना की। महामारी खत्म हो गई। तभी से जेठ महीने के मंगल में हनुमानजी का प्रसाद वितरण होने लगा। बाद में इस जगह पर बाबा नीम करोली भी पहुंचे। वो कई दिनों तक यहां रुके भी। मुझे भी बाबा की सेवा में रहने का अवसर मिला। मैंने खुद अपने हाथों से उन्हें पानी पिलाया है। लगभग 50 सालों से मैं इस मंदिर में हूं। लखनऊ से शुरू हुआ बड़े मंगल का ये आयोजन, अब पूरे यूपी में होने लगा है। लखनऊ नामा में भी मंदिर और बेगम आलिया का जिक्र दिवंगत इतिहासकार डॉ. योगेश प्रवीन ने लखनऊ नामा में लिखा है- गोमती के उस पार हनुमान के दो प्राचीन मंदिर हैं। जिस मंदिर को आजकल मुख्य मंदिर का महत्व दिया जाता है, वो इत्र व्यापारी लाला जाटमल ने 1783 में बनाया था। यह मंदिर महंत खासा राम के अनुरोध पर तैयार किया गया था। मंदिर का मुख्य मंडप 6 मई, 1783 को तैयार हुआ था। जेठ महीने के सभी मंगलवार को यहां जबरदस्त भीड़ होती है।   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर