कारगिल विजय को 25 साल पूरे:वो 8 बच्चे अब 25 बरस के हो गए हैं; जन्म से पहले ही पिता जंग में शहीद हो गए

कारगिल विजय को 25 साल पूरे:वो 8 बच्चे अब 25 बरस के हो गए हैं; जन्म से पहले ही पिता जंग में शहीद हो गए

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशां होगा। ये लाइनें हैं जगदंबा प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता की। शहीद होने वाला जवान अपने पीछे कुछ निशानियां भी छोड़ जाता है। कारगिल जंग में राजस्थान के 60 बेटे शहीद हुए थे। इनमें से हर किसी की कहानी, दर्द और हालात अलग थे। इन शहीदों में से आठ ऐसे भी थे, जिनकी निशानियां शहादत के समय उनकी पत्नियों के गर्भ में पल रही थीं। कारगिल विजय दिवस के मौके पर भास्कर ने शहीदों के ऐसे 4 बच्चों से मुलाकात की, जिनका जन्म उनके पिता के शहीद होने के बाद हुआ। हमने जाना कि पिता को कभी देख न पाने का दर्द क्या होता है। उनके बिना जिंदगी में क्या चुनौतियां पेश आईं। लेकिन फिर भी इन बच्चों को गर्व है, अपने पिताओं के सर्वोच्च बलिदान पर। केस 1: दादा-पिता जंग में शहीद हुए, अब बच्चों को फौजी बनाएंगे झुंझनू के भालोट गांव के अंकित कुमार उन बच्चों में से एक हैं, जिन्हें पिता की शहादत का गर्व तो है, लेकिन आज भी उन्हें उनकी कमी खलती है। अंकित के पिता सिपाही नरेश कुमार कारगिल में 7 जुलाई को शहीद हुए थे। इसके चार महीने बाद अंकित का जन्म हुआ। अंकित ने पिता को कभी नहीं देखा, लेकिन उनकी चर्चा छेड़ते ही वे अपनी भावनाओं को चाहकर भी नहीं रोक पाते। पिता से जुड़े इत्तेफाकों की बात करते-करते अंकित की आंखों में गर्व और नमी एक साथ नजर आती है। वे कहते हैं- ‘7 जनवरी 1999 को पिता छुट्टी पर घर आए थे और 7 मार्च को ही उन्हें सरहद पर जाना पड़ा। 12 जुलाई मेरे पिता की जन्मतिथि थी। उसी दिन उनकी पार्थिव देह घर आई और परिवार ने उन्हें अंतिम विदाई दी।’ अंकित के दादा भी जवानी में सरहद पर शहीद हुए थे। वे कहते हैं कि जब दादाजी शहीद हुए तब उनकी भी उम्र 22 बरस थी। पापा भी जब शहीद हुए, उस समय 22 साल के ही थे।’ वे कहते हैं कि उस शख्स के लिए जितना कहा जाए कम है, जिसने देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी। दादा की शहादत भी पिता जी को फौज में जाने से उन्हें रोक नहीं पाई।’ अंकित इस समय कोटपुतली में कनिष्ठ लेखाकार के पद पर कार्यरत हैं। मां के जरिए मिली पिता की यादों और सीखों को बताते हुए वे कहते हैं, ‘मेरी मां ने हमेशा यही सिखाया कि मेरे पिता ने अपने प्राण देकर ये सम्मान कमाया है। इसलिए कभी ऐसा कोई काम ना करुं, जिससे उनके नाम पर आंच आए। अपने फर्ज में कभी बेइमानी न करुं।’ अंकित के करीब बैठी उनकी मां मनोज देवी कहती हैं- ‘मैंने इसे हमेशा यही सिखाया कि किसी मजबूर को तुम्हारी वजह से दफ्तरों में भटकना न पड़े। जब भी कलम पकड़ो, समझना पिता का हाथ थामा है। उससे गलत काम के लिए मत चलाना। क्योंकि नौकरी की फाइल में तुम्हारे दस्तावेज नहीं, तुम्हारे पिता की आन दर्ज है।’ वे कहती हैं- ‘मेरा सपना था कि बेटे को फौज में भेजूं। लेकिन इसका चयन नहीं हो पाया। अब पोते या पोती को जरूर फौज में भेजूंगी। ताकि वह अपने दादा का बदला ले सके। हमारे परिवार से दो सिपाही सरहद पर शहीद हो गए। इस बार भगवान हारेंगे और हम जीतेंगे। एक बार हम भी महसूस करना चाहते हैं कि सरहद से जीतकर आने का सुख क्या होता है!’ केस 2 : लोग कहते हैं मैं पापा जैसी लेकिन पापा कहने पर क्या एहसास होता ये न जान पाई झुंझुनू के ही इंदरसर की वीरांगना रानू देवी की बेटी नीरू का जन्म पिता के शहीद होने के चार महीने बाद हुआ। उनके पिता राज कुमार 2 जुलाई, 1999 को शहीद हो गए थे। नीरू अपने पिता की यादों को उनका एक रजिस्टर, तिरंगा झंडे, इस्तेमाल किए कुछ बर्तन और कपड़ों में सहेजे हुए हैं। वह कहती हैं- मैं कभी जान ही नहीं पाई कि पापा संबोधन करने पर कैसा महसूस होता है। इसके बदले मिलने वाला दुलार कैसा होता है। लोग कहते हैं कि मैं बिल्कुल पापा जैसी हूं। लेकिन पापा कैसे थे, इसका अनुमान सिर्फ तस्वीरों से लगाने की कोशिश करती हूं। जिस दिन लिखना सीखा, तबसे पापा की लेखनी की नकल कर रही हूं। मैं उनके जैसे ‘र’ लिख लेती हूं। नीरू ने कारगिल के 25 साल होने पर शहीद पिता को एक पत्र लिखा। वो लिखती हैं- ‘पापा मैं आपकी बेटी नीरू, आपने मेरे आने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया था…लेकिन मुझे यकीन है कि आप कहीं न कहीं से मुझे जरूर देख रहे होंगे…मैं आपसे कभी नहीं मिली, लेकिन फिर भी लगता है कि मैं आपके बहुत करीब हूं…भैया खुशनसीब थे कि उन्हें आपकी गोद में खेलने का मौका मिला…बचपन से सुनती आई हूं कि आप बेहतरीन पिता, देखभाल करने वाले पति और होनहार बेटे थे। काश हमारी परफेक्ट फैमिली में आप होते। आपके बिना हमारी फैमिली कभी परफेक्ट हो ही नहीं सकती है। मां बताती हैं आप छुट्टी पर आने से पहले खत लिखते थे। आपका हर खत आज भी उस रजिस्टर में सहेज कर रखा है।’ केस 3: पिता के शहीद होने के एक महीने बाद पैदा हुआ, लोगों ने दया भाव से जोड़ दिया पिता के शहीद हो जाने के बाद इन बच्चों के पास महसूस करने के लिए सिर्फ गर्व ही शेष नहीं रहता। बल्कि समय से पहले सिर से छत उठने के कुछ स्याह पहलू भी हैं। बीकानेर में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे पवन कुमार कुछ ऐसी ही चुनौतियों के बारे में बात करते हैं। उनका जन्म कारगिल जंग में पिता की शहादत के करीब एक महीने बाद हुआ। पवन कहते हैं कि निश्चित तौर पर पिता का नाम और उनकी बातें सुनकर गर्व होता है, लेकिन लोगों ने इसे दया भाव से जोड़ दिया। पवन के शब्दों में, ‘लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे कब हमें बेचारगी का एहसास करवाने लगते हैं। पिता के न रहने से कम उम्र से ही हर कदम पर जिम्मेदारी का बोझ महसूस करवाया गया। मुझे बचपन में स्कूल से लेकर कॉलेज तक इस अनचाही परिस्थिति का सामना करना पड़ा। आप सोचिए स्कूल में पढ़ रहे जिस बच्चे को शहीद के मायने भी नहीं पता, उसके शिक्षक उससे उसकी मां और परिवार का ख्याल रखने की नसीहत देते हैं। शहीद का बेटा होने की वजह से लोगों की उम्मीदें आपसे बहुत बढ़ जाती हैं। लेकिन कोई नहीं समझता कि वे उम्मीदें किसी नासमझ बच्चे के जेहन पर बोझ बनती जा रही हैं।’ पवन आगे कहते हैं, ‘आपसे अपने हिस्से की गलतियां करने का हक छीन लिया जाता है। जिंदगी में जब भी आप कुछ नया करना चाहते हैं, तो लोग आपके हर कदम को आपकी मां का हवाला देकर झिझक की बेड़ियों में जकड़ देते हैं। परिस्थितियां ऐसी बनती चली गईं कि कभी मां से पापा के बारे में पूछने का मौका ही नहीं मिला।’ फौज में जाने से जुड़े सवाल पर पवन कहते हैं कि ‘इच्छा तो बहुत है, लेकिन अग्निवीर कौन बनना चाहता है! एक बार एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी हो जाए तो फौज में जाने की कोशिश जरूर करुंगा।’ केस 4: पापा के जाने के चार दिन बाद पैदा हुई, मां भी उनके पार्थिव देह को न देख सकीं ब्यावर की रहने वाली कमला काठात की दास्तां भी कुछ ज्यादा ही दर्दभरी है। कमला के पिता मोहन काठात दुश्मन के हमले के वक्त कारगिल के एरिया बटैलिक में तैनात थे। इस दौरान हुई भीषण गोलीबारी में उनका शव इतना क्षत-विक्षत हो गया कि उन्हें घर लाना भी संभव न हो सका। उन्हें वहीं सुपुर्द-ए-खाक करना पड़ा। कमला का जन्म उनके पिता के निधन के चार दिन बाद हुआ। वे तो अपने पिता से नहीं मिल पाईं, लेकिन उनके परिवार को भी इसका अफसोस है कि उनमें से कोई भी अपने शहीद जवान को आखिरी बार नहीं देख पाया। पिता की बात करते समय कमला का गला रुंध आता है। वे कहती हैं कि मैं अकेले में कई बार पापा से बात करने की कोशिश करती हूं। मुझे लगता है कि वे मुझे सुन रहे हैं। वे हमेशा मेरे साथ परछाई की तरह चलते हैं। जब भी उनसे जुड़ी कोई निशानी मेरे सामने आती है, लगता है कि पापा सामने आ गए। एक बेटी के लिए पिता के न होने का एहसास शब्दों में बयां कर पाना बेहद मुश्किल है। देश की सेवा का मौका हर किसी को नहीं मिलता। मेरे पति भी एक फौजी हैं और मुझे उन पर भी गर्व है। यह भी पढ़ें… हाथरस में सैन्य सम्मान के साथ शहीद को अंतिम विदाई:मां बोलीं- बेटे की शहादत पर गर्व, मेरा बेटा भारत मां का बेटा था हाथरस में शहीद सुभाष के पार्थिव शरीर का उसके गांव नगला मनी में सैन्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। उससे पहले जब उसका पार्थिव शरीर सेना की टुकड़ी सादाबाद लेकर पहुंची तो वहां से हजारों लोगों की भीड़ उसको श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ पड़ी। पूरी खबर पढ़ें… शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशां होगा। ये लाइनें हैं जगदंबा प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता की। शहीद होने वाला जवान अपने पीछे कुछ निशानियां भी छोड़ जाता है। कारगिल जंग में राजस्थान के 60 बेटे शहीद हुए थे। इनमें से हर किसी की कहानी, दर्द और हालात अलग थे। इन शहीदों में से आठ ऐसे भी थे, जिनकी निशानियां शहादत के समय उनकी पत्नियों के गर्भ में पल रही थीं। कारगिल विजय दिवस के मौके पर भास्कर ने शहीदों के ऐसे 4 बच्चों से मुलाकात की, जिनका जन्म उनके पिता के शहीद होने के बाद हुआ। हमने जाना कि पिता को कभी देख न पाने का दर्द क्या होता है। उनके बिना जिंदगी में क्या चुनौतियां पेश आईं। लेकिन फिर भी इन बच्चों को गर्व है, अपने पिताओं के सर्वोच्च बलिदान पर। केस 1: दादा-पिता जंग में शहीद हुए, अब बच्चों को फौजी बनाएंगे झुंझनू के भालोट गांव के अंकित कुमार उन बच्चों में से एक हैं, जिन्हें पिता की शहादत का गर्व तो है, लेकिन आज भी उन्हें उनकी कमी खलती है। अंकित के पिता सिपाही नरेश कुमार कारगिल में 7 जुलाई को शहीद हुए थे। इसके चार महीने बाद अंकित का जन्म हुआ। अंकित ने पिता को कभी नहीं देखा, लेकिन उनकी चर्चा छेड़ते ही वे अपनी भावनाओं को चाहकर भी नहीं रोक पाते। पिता से जुड़े इत्तेफाकों की बात करते-करते अंकित की आंखों में गर्व और नमी एक साथ नजर आती है। वे कहते हैं- ‘7 जनवरी 1999 को पिता छुट्टी पर घर आए थे और 7 मार्च को ही उन्हें सरहद पर जाना पड़ा। 12 जुलाई मेरे पिता की जन्मतिथि थी। उसी दिन उनकी पार्थिव देह घर आई और परिवार ने उन्हें अंतिम विदाई दी।’ अंकित के दादा भी जवानी में सरहद पर शहीद हुए थे। वे कहते हैं कि जब दादाजी शहीद हुए तब उनकी भी उम्र 22 बरस थी। पापा भी जब शहीद हुए, उस समय 22 साल के ही थे।’ वे कहते हैं कि उस शख्स के लिए जितना कहा जाए कम है, जिसने देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी। दादा की शहादत भी पिता जी को फौज में जाने से उन्हें रोक नहीं पाई।’ अंकित इस समय कोटपुतली में कनिष्ठ लेखाकार के पद पर कार्यरत हैं। मां के जरिए मिली पिता की यादों और सीखों को बताते हुए वे कहते हैं, ‘मेरी मां ने हमेशा यही सिखाया कि मेरे पिता ने अपने प्राण देकर ये सम्मान कमाया है। इसलिए कभी ऐसा कोई काम ना करुं, जिससे उनके नाम पर आंच आए। अपने फर्ज में कभी बेइमानी न करुं।’ अंकित के करीब बैठी उनकी मां मनोज देवी कहती हैं- ‘मैंने इसे हमेशा यही सिखाया कि किसी मजबूर को तुम्हारी वजह से दफ्तरों में भटकना न पड़े। जब भी कलम पकड़ो, समझना पिता का हाथ थामा है। उससे गलत काम के लिए मत चलाना। क्योंकि नौकरी की फाइल में तुम्हारे दस्तावेज नहीं, तुम्हारे पिता की आन दर्ज है।’ वे कहती हैं- ‘मेरा सपना था कि बेटे को फौज में भेजूं। लेकिन इसका चयन नहीं हो पाया। अब पोते या पोती को जरूर फौज में भेजूंगी। ताकि वह अपने दादा का बदला ले सके। हमारे परिवार से दो सिपाही सरहद पर शहीद हो गए। इस बार भगवान हारेंगे और हम जीतेंगे। एक बार हम भी महसूस करना चाहते हैं कि सरहद से जीतकर आने का सुख क्या होता है!’ केस 2 : लोग कहते हैं मैं पापा जैसी लेकिन पापा कहने पर क्या एहसास होता ये न जान पाई झुंझुनू के ही इंदरसर की वीरांगना रानू देवी की बेटी नीरू का जन्म पिता के शहीद होने के चार महीने बाद हुआ। उनके पिता राज कुमार 2 जुलाई, 1999 को शहीद हो गए थे। नीरू अपने पिता की यादों को उनका एक रजिस्टर, तिरंगा झंडे, इस्तेमाल किए कुछ बर्तन और कपड़ों में सहेजे हुए हैं। वह कहती हैं- मैं कभी जान ही नहीं पाई कि पापा संबोधन करने पर कैसा महसूस होता है। इसके बदले मिलने वाला दुलार कैसा होता है। लोग कहते हैं कि मैं बिल्कुल पापा जैसी हूं। लेकिन पापा कैसे थे, इसका अनुमान सिर्फ तस्वीरों से लगाने की कोशिश करती हूं। जिस दिन लिखना सीखा, तबसे पापा की लेखनी की नकल कर रही हूं। मैं उनके जैसे ‘र’ लिख लेती हूं। नीरू ने कारगिल के 25 साल होने पर शहीद पिता को एक पत्र लिखा। वो लिखती हैं- ‘पापा मैं आपकी बेटी नीरू, आपने मेरे आने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया था…लेकिन मुझे यकीन है कि आप कहीं न कहीं से मुझे जरूर देख रहे होंगे…मैं आपसे कभी नहीं मिली, लेकिन फिर भी लगता है कि मैं आपके बहुत करीब हूं…भैया खुशनसीब थे कि उन्हें आपकी गोद में खेलने का मौका मिला…बचपन से सुनती आई हूं कि आप बेहतरीन पिता, देखभाल करने वाले पति और होनहार बेटे थे। काश हमारी परफेक्ट फैमिली में आप होते। आपके बिना हमारी फैमिली कभी परफेक्ट हो ही नहीं सकती है। मां बताती हैं आप छुट्टी पर आने से पहले खत लिखते थे। आपका हर खत आज भी उस रजिस्टर में सहेज कर रखा है।’ केस 3: पिता के शहीद होने के एक महीने बाद पैदा हुआ, लोगों ने दया भाव से जोड़ दिया पिता के शहीद हो जाने के बाद इन बच्चों के पास महसूस करने के लिए सिर्फ गर्व ही शेष नहीं रहता। बल्कि समय से पहले सिर से छत उठने के कुछ स्याह पहलू भी हैं। बीकानेर में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे पवन कुमार कुछ ऐसी ही चुनौतियों के बारे में बात करते हैं। उनका जन्म कारगिल जंग में पिता की शहादत के करीब एक महीने बाद हुआ। पवन कहते हैं कि निश्चित तौर पर पिता का नाम और उनकी बातें सुनकर गर्व होता है, लेकिन लोगों ने इसे दया भाव से जोड़ दिया। पवन के शब्दों में, ‘लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे कब हमें बेचारगी का एहसास करवाने लगते हैं। पिता के न रहने से कम उम्र से ही हर कदम पर जिम्मेदारी का बोझ महसूस करवाया गया। मुझे बचपन में स्कूल से लेकर कॉलेज तक इस अनचाही परिस्थिति का सामना करना पड़ा। आप सोचिए स्कूल में पढ़ रहे जिस बच्चे को शहीद के मायने भी नहीं पता, उसके शिक्षक उससे उसकी मां और परिवार का ख्याल रखने की नसीहत देते हैं। शहीद का बेटा होने की वजह से लोगों की उम्मीदें आपसे बहुत बढ़ जाती हैं। लेकिन कोई नहीं समझता कि वे उम्मीदें किसी नासमझ बच्चे के जेहन पर बोझ बनती जा रही हैं।’ पवन आगे कहते हैं, ‘आपसे अपने हिस्से की गलतियां करने का हक छीन लिया जाता है। जिंदगी में जब भी आप कुछ नया करना चाहते हैं, तो लोग आपके हर कदम को आपकी मां का हवाला देकर झिझक की बेड़ियों में जकड़ देते हैं। परिस्थितियां ऐसी बनती चली गईं कि कभी मां से पापा के बारे में पूछने का मौका ही नहीं मिला।’ फौज में जाने से जुड़े सवाल पर पवन कहते हैं कि ‘इच्छा तो बहुत है, लेकिन अग्निवीर कौन बनना चाहता है! एक बार एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी हो जाए तो फौज में जाने की कोशिश जरूर करुंगा।’ केस 4: पापा के जाने के चार दिन बाद पैदा हुई, मां भी उनके पार्थिव देह को न देख सकीं ब्यावर की रहने वाली कमला काठात की दास्तां भी कुछ ज्यादा ही दर्दभरी है। कमला के पिता मोहन काठात दुश्मन के हमले के वक्त कारगिल के एरिया बटैलिक में तैनात थे। इस दौरान हुई भीषण गोलीबारी में उनका शव इतना क्षत-विक्षत हो गया कि उन्हें घर लाना भी संभव न हो सका। उन्हें वहीं सुपुर्द-ए-खाक करना पड़ा। कमला का जन्म उनके पिता के निधन के चार दिन बाद हुआ। वे तो अपने पिता से नहीं मिल पाईं, लेकिन उनके परिवार को भी इसका अफसोस है कि उनमें से कोई भी अपने शहीद जवान को आखिरी बार नहीं देख पाया। पिता की बात करते समय कमला का गला रुंध आता है। वे कहती हैं कि मैं अकेले में कई बार पापा से बात करने की कोशिश करती हूं। मुझे लगता है कि वे मुझे सुन रहे हैं। वे हमेशा मेरे साथ परछाई की तरह चलते हैं। जब भी उनसे जुड़ी कोई निशानी मेरे सामने आती है, लगता है कि पापा सामने आ गए। एक बेटी के लिए पिता के न होने का एहसास शब्दों में बयां कर पाना बेहद मुश्किल है। देश की सेवा का मौका हर किसी को नहीं मिलता। मेरे पति भी एक फौजी हैं और मुझे उन पर भी गर्व है। यह भी पढ़ें… हाथरस में सैन्य सम्मान के साथ शहीद को अंतिम विदाई:मां बोलीं- बेटे की शहादत पर गर्व, मेरा बेटा भारत मां का बेटा था हाथरस में शहीद सुभाष के पार्थिव शरीर का उसके गांव नगला मनी में सैन्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। उससे पहले जब उसका पार्थिव शरीर सेना की टुकड़ी सादाबाद लेकर पहुंची तो वहां से हजारों लोगों की भीड़ उसको श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ पड़ी। पूरी खबर पढ़ें…   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर