यूपी में ढाई साल से 11 हजार सियासी नियुक्तियां अटकीं:4 बड़े नेताओं के खेमे…इसलिए तय नहीं हो सके नाम; अफसर संभाल रहे कुर्सी भाजपा सरकार और संगठन में गुटबाजी के कारण निगम, आयोग और बोर्ड में करीब 11 हजार से ज्यादा राजनीतिक नियुक्तियां अटकी हुई हैं। करीब ढाई साल में कई दौर की बैठकों के बाद भी सरकार और संगठन के शीर्ष लोग नियुक्तियों को लेकर कोई निर्णय नहीं ले सके। यही वजह है कि अब बड़ी संस्थाओं में सहयोगी दलों की हिस्सेदारी और कार्यकर्ताओं की नियुक्ति का मामला दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व तक जा सकता है। प्रदेश में 25 मार्च 2022 को योगी सरकार 2.0 का गठन हुआ था। उसके बाद से कार्यकर्ता राजनीतिक नियुक्तियों का इंतजार कर रहे हैं। भाजपा के प्रदेश नेतृत्व की ओर से समय-समय पर आश्वासन भी दिया गया कि नियुक्तियां जल्द की जाएंगी, लेकिन हुआ कुछ नहीं। आयोजनों में नियुक्तियां नहीं होने का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। गुटबाजी है बड़ी वजह
भाजपा में कई महीने से चल रही गुटबाजी में एक खेमा सीएम योगी आदित्यनाथ का है। जबकि दूसरा खेमा डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का है। तीसरा खेमा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी और डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक का है। चौथा खेमा महामंत्री संगठन धर्मपाल सिंह और RSS से जुड़े लोगों का है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि सीएम योगी राजनीतिक नियुक्तियों में दखल नहीं देते हैं। संगठन की ओर से जब पूछा जाता है तो वह अपने नाम देते हैं। पार्टी की ओर से जो प्रस्ताव आता है, उसे मंजूरी दे देते हैं। लेकिन, बाकी तीन खेमों में अपने-अपने करीबी लोगों को राजनीतिक नियुक्तियों में उपकृत करने की होड़ लगी हुई है। कार्यकर्ताओं की नाराजगी की वजह बनी
निगम, आयोग और बोर्ड में नेताओं और कार्यकर्ताओं की नियुक्ति न होने का असर लोकसभा चुनाव नतीजों में भी देखने को मिला। जानकारों का मानना है कि कार्यकर्ताओं की नाराजगी और निष्क्रियता की वजह उन्हें निगम, आयोग और बोर्ड में पद न मिलना भी है। भाजपा कार्यकर्ताओं ने लोकसभा चुनाव परिणाम की समीक्षा में खुलेआम यह बात कही। पूर्वांचल के कुछ जिलों में उन्होंने यहां तक कहा कि धनबल और बाहुबल वाले नेताओं को विधान परिषद, राज्यसभा भेजा गया। लेकिन, पार्टी के मूल कैडर का ध्यान नहीं रखा गया। 20 हजार पदों पर हो सकता है समायोजन
सरकार में करीब 20 हजार से अधिक पदों पर भाजपा और RSS से जुड़े लोगों का समायोजन किया जा सकता है। इनमें से अभी तक जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय तक सरकार की ओर से पैरवी के लिए करीब साढ़े तीन हजार वकील नियुक्त भी किए जा चुके हैं। तीन हजार से अधिक कार्यकर्ताओं का सहकारी संस्थाओं में समायोजन किया गया है। लेकिन, अभी भी जिले से लेकर प्रदेश स्तर तक की बड़ी संस्थाओं में पद खाली हैं। दावेदार कौन-कौन….. सहयोगी दल भी मांग रहे हिस्सेदारी: ऐसा नहीं है कि सिर्फ भाजपा में ही दावेदार हैं। भाजपा के एक प्रदेश पदाधिकारी ने बताया कि सरकार में सहयोगी अपना दल (एस), रालोद, सुभासपा और निषाद पार्टी भी निगम, आयोग और बोर्ड में हिस्सेदारी मांग रहे हैं। सर्वाधिक मांग OBC आयोग और अनुसूचित जाति आयोग की है। दूसरे दलों से आए नेता भी दौड़ में: लोकसभा चुनाव से पहले सपा, बसपा, कांग्रेस के करीब 70 हजार कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों, पदाधिकारियों और पूर्व नौकरशाह को भाजपा में शामिल किया गया। सूत्रों का कहना है कि दूसरे दलों से आए बड़े नेता और नौकरशाह भी अब निगम, आयोग और बोर्ड में जगह चाहते हैं। अब आगे क्या… दिल्ली दरबार तक जाएंगे नाम
निगम, आयोग, बोर्ड में राजनीतिक नियुक्तियों में सामाजिक समीकरण का भी ध्यान रखना होता है। प्रमुख संस्थाओं में सभी जातियों के लोगों का प्रतिनिधित्व भी तय किया जाता है। यही वजह है कि बड़े आयोग में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के नामों पर सहमति नहीं बन पा रही है। लिहाजा मामला दिल्ली दरबार तक जाएगा। वहां से हरी झंडी मिलने पर ही नियुक्ति की जाएगी। असर क्या? लंबे समय से नहीं हो रही जनता की सुनवाई महिला आयोग: अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों के पद लंबे समय से खाली होने के कारण महिला उत्पीड़न से जुड़े मामलों की सुनवाई नहीं हो रही है। महिला आयोग की अध्यक्ष और सदस्य जिलों में जाकर भी सुनवाई करते थे, लेकिन वह काम भी बंद है। अनुसूचित जाति आयोग: अध्यक्ष और सदस्यों के पद खाली होने के कारण दलित उत्पीड़न से जुड़े मामलों की सुनवाई नहीं हो रही है। आयोग में अध्यक्ष का कार्यभार समाज कल्याण मंत्री असीम अरुण के पास है। लेकिन, उनकी सरकार और भाजपा के कामकाज में व्यस्तता के कारण वह आयोग में इतना समय नहीं दे पा रहे हैं। पिछड़ा वर्ग आयोग: पिछड़ी जाति के लोगों से जुड़े मामलों की सुनवाई नहीं हो रही है। सूत्रों के मुताबिक आयोग में बड़ी संख्या में शिकायतें और प्रार्थना पत्र लंबित चल रहे हैं। अफसर संभाल रहे हैं कुर्सी: प्रदेश सरकार के विभिन्न आयोग, बोर्ड और निगम में अध्यक्ष का कार्यभार IAS अफसर संभाल रहे हैं। इनमें अधिकांश संबंधित विभाग के प्रमुख सचिव या अपर मुख्य सचिव हैं। जानकार मानते हैं कि पिछड़े और दलित वर्ग के लोग, सरकारी विभाग में समस्या का समाधान नहीं होने पर आयोग में जाते हैं। वहां भी वही अफसर अध्यक्ष के रूप में बैठे मिलते हैं, तो उनकी सुनवाई नहीं हो पाती है। नजरिये का भी फर्क…
जानकार मानते हैं कि आयोग, निगम और बोर्ड में अध्यक्ष पद पर IAS अफसर बैठे हैं। IAS अफसर और नेताओं के सोचने का नजरिया और काम करने के तरीके में अंतर होता है। अफसर हमेशा खुद को सही साबित करने या विभाग के बचाव में काम करते हैं। जबकि राजनीतिक व्यक्ति जनता और सरकार के हित को ध्यान में रखते हुए काम करते हैं। ताकि जनता में उनकी सरकार के प्रति अच्छी धारणा बने, पार्टी का जनाधार बढ़े। यह भी पढ़ें:- संसद में अखिलेश के भाषण पर भड़क गए अमित शाह:वक्फ बिल पर कहा- गोलमोल बातें नहीं कर सकते हैं; स्पीकर सबके हैं संसद में केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने गुरुवार को वक्फ संशोधन बिल पेश किया। इस दौरान सपा प्रमुख अखिलेश यादव और गृह मंत्री अमित शाह के बीच बहस भी हुई। अखिलेश यादव ने लोकसभा स्पीकर से कहा, महोदय मैंने सुना है कि कुछ अधिकार आपके भी छीने जा रहे हैं। आप लोकतंत्र के न्यायाधीश हैं। मैंने सुना है इस लॉबी में कुछ अधिकार आपके भी छीने जा रहे हैं। इसलिए हम सब को आपके लिए भी लड़ना पड़ेगा। पढ़ें पूरी खबर…