<p style=”text-align: justify;”><strong>Sirohi News:</strong> सिरोही जिले के भूला गांव में 5 और 6 मई 1922 को हुआ वह हृदय विदारक नरसंहार आज भी आदिवासी समाज के लिए दर्द और गर्व दोनों का प्रतीक है. इस त्रासदी को 103 वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन उस दिन की क्रूरता और शहादत की गूंज अब भी लोकगीतों और जनचेतना में जीवित है. लीलूड़ी बडली में शहीद हुए आदिवासियों को आज भी “सिरोही का जलियांवाला” कहा जाता है.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>आदिवासी प्रतिरोध की चेतना- लीलूड़ी बडली की सभा</strong><br />5 मई 1922 को सिरोही की पिण्डवाड़ा तहसील के भूला गांव स्थित लीलूड़ी बडली में एक सभा आयोजित की गई थी. इस सभा में आदिवासियों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा कृषि पर लगाए जा रहे अत्यधिक लगान और अन्य शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. यह सभा “एकी आंदोलन” का हिस्सा थी, जो आदिवासी स्वाभिमान और आजादी की भावना से प्रेरित था. इस आंदोलन का नेतृत्व मोतीलाल तेजावत, हुशियाजी भुमरिया भील और अन्य स्थानीय नेताओं ने किया था.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>निहत्थे आदिवासियों को घेर कर अंग्रेजों ने की फायरिंग</strong><br />आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से एरनपुरा छावनी (शिवगंज) से ब्रिटिश मेजर एच.आर.एन. प्रिचार्ड की अगुवाई में भारी फौज भेजी गई. अंग्रेजों ने निहत्थे आदिवासियों को चारों ओर से घेर कर उन पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं. बी.एन. धोढ़ियाल द्वारा रचित ‘सिरोही गजेटियर’ के अनुसार इस गोलीकांड में लगभग 1800 लोग घायल या शहीद हुए थे. अंग्रेजों ने यहीं नहीं रोका—अगले दिन उन्होंने भूला और वालोरिया गांवों में आग लगा दी, जिससे सैकड़ों घर जलकर खाक हो गए और पशुधन का भारी नुकसान हुआ.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>लोकगीतों में दर्ज है नरसंहार</strong><br />सरकारी आंकड़ों में मृतकों की संख्या 50 और घायलों की संख्या 150 बताई गई, परंतु स्थानीय जनश्रुति और ऐतिहासिक अध्ययन बताते हैं कि यह संख्या कहीं अधिक थी. करीब 305 परिवार इस हिंसा और आगजनी की चपेट में आए थे. यह नरसंहार आज भी आदिवासी लोकगीतों में दर्ज है, जैसे- “भूलूं ने वालोरियू, भूलूं गोम बेले रे, धोमो भाइयों धोमजो, भूलूं बेले, भूलूं बेले.”</p>
<p style=”text-align: justify;”>आज, 103 साल बाद, इतिहासकार डॉ. उदयसिंह डिंगार और क्षेत्रवासियों ने भूला गांव पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी. डॉ. डिंगार ने कहा कि लीलूड़ी बडली की यह घटना इतिहास में वह स्थान पाने से वंचित रही, जो जलियांवाला बाग को मिला. लेकिन यह शहादत किसी भी मायने में उससे कम नहीं थी.</p>
<p style=”text-align: justify;”>यह गुमनाम बलिदान आज भी आदिवासी समाज के गौरव, प्रतिरोध और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का प्रतीक है. ऐसे में आवश्यकता है कि लीलूड़ी बडली जैसे ऐतिहासिक स्थलों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिले और आने वाली पीढ़ियों को उनके शौर्य और बलिदान की सच्ची प्रेरणा मिल सके.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>सिरोही सें तुषार पुरोहित कि रिपोर्ट.</strong></p> <p style=”text-align: justify;”><strong>Sirohi News:</strong> सिरोही जिले के भूला गांव में 5 और 6 मई 1922 को हुआ वह हृदय विदारक नरसंहार आज भी आदिवासी समाज के लिए दर्द और गर्व दोनों का प्रतीक है. इस त्रासदी को 103 वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन उस दिन की क्रूरता और शहादत की गूंज अब भी लोकगीतों और जनचेतना में जीवित है. लीलूड़ी बडली में शहीद हुए आदिवासियों को आज भी “सिरोही का जलियांवाला” कहा जाता है.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>आदिवासी प्रतिरोध की चेतना- लीलूड़ी बडली की सभा</strong><br />5 मई 1922 को सिरोही की पिण्डवाड़ा तहसील के भूला गांव स्थित लीलूड़ी बडली में एक सभा आयोजित की गई थी. इस सभा में आदिवासियों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा कृषि पर लगाए जा रहे अत्यधिक लगान और अन्य शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. यह सभा “एकी आंदोलन” का हिस्सा थी, जो आदिवासी स्वाभिमान और आजादी की भावना से प्रेरित था. इस आंदोलन का नेतृत्व मोतीलाल तेजावत, हुशियाजी भुमरिया भील और अन्य स्थानीय नेताओं ने किया था.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>निहत्थे आदिवासियों को घेर कर अंग्रेजों ने की फायरिंग</strong><br />आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से एरनपुरा छावनी (शिवगंज) से ब्रिटिश मेजर एच.आर.एन. प्रिचार्ड की अगुवाई में भारी फौज भेजी गई. अंग्रेजों ने निहत्थे आदिवासियों को चारों ओर से घेर कर उन पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं. बी.एन. धोढ़ियाल द्वारा रचित ‘सिरोही गजेटियर’ के अनुसार इस गोलीकांड में लगभग 1800 लोग घायल या शहीद हुए थे. अंग्रेजों ने यहीं नहीं रोका—अगले दिन उन्होंने भूला और वालोरिया गांवों में आग लगा दी, जिससे सैकड़ों घर जलकर खाक हो गए और पशुधन का भारी नुकसान हुआ.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>लोकगीतों में दर्ज है नरसंहार</strong><br />सरकारी आंकड़ों में मृतकों की संख्या 50 और घायलों की संख्या 150 बताई गई, परंतु स्थानीय जनश्रुति और ऐतिहासिक अध्ययन बताते हैं कि यह संख्या कहीं अधिक थी. करीब 305 परिवार इस हिंसा और आगजनी की चपेट में आए थे. यह नरसंहार आज भी आदिवासी लोकगीतों में दर्ज है, जैसे- “भूलूं ने वालोरियू, भूलूं गोम बेले रे, धोमो भाइयों धोमजो, भूलूं बेले, भूलूं बेले.”</p>
<p style=”text-align: justify;”>आज, 103 साल बाद, इतिहासकार डॉ. उदयसिंह डिंगार और क्षेत्रवासियों ने भूला गांव पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी. डॉ. डिंगार ने कहा कि लीलूड़ी बडली की यह घटना इतिहास में वह स्थान पाने से वंचित रही, जो जलियांवाला बाग को मिला. लेकिन यह शहादत किसी भी मायने में उससे कम नहीं थी.</p>
<p style=”text-align: justify;”>यह गुमनाम बलिदान आज भी आदिवासी समाज के गौरव, प्रतिरोध और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का प्रतीक है. ऐसे में आवश्यकता है कि लीलूड़ी बडली जैसे ऐतिहासिक स्थलों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिले और आने वाली पीढ़ियों को उनके शौर्य और बलिदान की सच्ची प्रेरणा मिल सके.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>सिरोही सें तुषार पुरोहित कि रिपोर्ट.</strong></p> राजस्थान ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनेगा यूपी, 1600 मेगावाट की नई तापीय परियोजना से मिलेगी सस्ती बिजली
निहत्थे आदिवासियों पर अंग्रेजों ने दागी थी गोलियां, ‘सिरोही का जलियांवाला’ घटना के 103 साल पूरे
