कन्नौज शहर से 15 किलोमीटर दूर है मेहंदीघाट। एक तरफ शव जल रहे, दूसरी तरफ काली नदी और गंगा के संगम पर लोग स्नान कर रहे। गंगा स्नान कर रहे लोगों के चेहरे के भाव बता रहे हैं कि मजबूरी में उन्हें ऐसा करना पड़ रहा। दरअसल, काली नदी, जो कभी नागिन की तरह लहराती थी, कालिंदी बनकर गंगा को गले लगाती थी। आज नाले की तरह सिसक रही है। यहां काली नदी का काला, बदबूदार जल और गंगा की मटमैली धारा एक-दूसरे से लिपटते हैं। मानो दोनों अपनी व्यथा साझा कर रही हों। दैनिक भास्कर ने अपनी गंगा यात्रा के तीसरे दिन संभल से कन्नौज तक करीब 312 किमी का सफर तय किया। हमने देखा कि कैसे एक नदी प्रदूषण, उपेक्षा और लापरवाही की भेंट चढ़ गई? पढ़िए ये खास रिपोर्ट… गंगा यात्रा के तीसरे पड़ाव में हम दिल्ली-कोलकाता नेशनल हाईवे पर कन्नौज शहर से 15 किमी दूर मेहंदीघाट पहुंचे। यहां गंगा दशहरा का मेला लगता है। श्रद्धालु स्नान और पूजा करने यहां आते हैं। लेकिन, नदी के बीच बने टापू और काली नदी के साथ बहकर आने वाली जलकुंभियां उनके विश्वास को चुनौती देती हैं। जलकुंभी, जो स्थिर जल की निशानी हैं, अब बहते पानी में भी तैर रही हैं। कन्नौज (इत्र की नगरी) अपनी सुगंध और सांस्कृतिक वैभव के लिए विख्यात है। लेकिन, मेहंदीघाट पर गंगा और काली नदी का संगम इस सुगंध को भूलने पर मजबूर करता है। यहां गंगा की धारा दो हिस्सों उत्तरी और दक्षिणी में बंटी है। काली नदी दक्षिणी धारा से मिलती है। दोनों नदियों का मिलन इतना साफ दिखता है, जैसे कोई रेखा खींच दी गई हो। गंगा की दक्षिणी धारा में काली का काला जल 200 मीटर तक अलग पहचान बनाए रखता है। घाट पर मिले नमामि गंगे के जिला संयोजक अनिल द्विवेदी बताते हैं, ‘पहले यह संगम चौरा चांदपुर गांव के पास था। करीब 50 साल पहले अड़ंगापुर में था, जहां महर्षि विश्वामित्र ने तप किया था। गंगा का प्रवाह क्षेत्र बदलता गया और संगम भी खिसकता गया।’ लेकिन बदलाव सिर्फ प्रवाह का नहीं, गंगा की सेहत का भी है। नदी के बीच टापू बन चुके हैं, जहां लोग तरबूज-खरबूजा की खेती कर रहे हैं। गंगा यात्रा में हमारे सहयोगी बने नाविक माधव सिंह कहते हैं- मार्च आते-आते गंगा की गहराई कमर तक सिमट जाती है। बारिश ने थोड़ा पानी बढ़ाया है, वरना ये टापू गंगा की धारा को और बांट देते हैं। ये टापू गंगा की सेहत का संकेत नहीं, बल्कि उसके कमजोर पड़ते प्रवाह का सबूत है। नदी के बीच ये टापू मानो गंगा की सांसों पर बोझ बनकर उभरे हों, जो उसकी धारा को खंडित कर रहे हैं। गंगा की पवित्रता को दागदार कर रही काली नदी
काली नदी को अपने सांप जैसे टेढ़े-मेढ़े बहाव के कारण स्थानीय लोग ‘नागिन’ कहते हैं। सिंचाई विभाग के अनुसार, यह नदी 18 किमी मुजफ्फरनगर की गोद में और 6.4 किलोमीटर मेरठ की धरती पर नागिन की तरह कुलांचे भरते आगे बढ़ती है। यहां यह दूसरी धारा से मिलती है और ‘काली’ बन जाती है। अलीगढ़ से कन्नौज तक यह ‘कालिंदी’ कहलाती है। मानो अपने नामों के साथ-साथ यह नदी अलग-अलग रूप धरती हो- कभी चंचल, कभी गंभीर, कभी पवित्र। इसके किनारे बसे गांवों में बच्चे इसके जल में छींटे उड़ाते थे, मछुआरे अपनी आजीविका की तलाश में जाल डालते थे। किसान इसके पानी से खेतों को सींचकर अनाज उगाते थे। यह नदी केवल जल की धारा नहीं थी, जीवन थी, आस्था थी, संस्कृति थी। लेकिन जैसे-जैसे यह नदी शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की ओर बढ़ी, इसकी कविता काले रंग की स्याही में डूब गई। यह अब नदी नहीं, एक जहरीला नाला बन चुकी है, जो गंगा की पवित्रता को भी दागदार कर रही है। प्रदूषण की काली स्याही ने कैसे एक नदी का दम घोंटा
काली नदी की कहानी को समझने के लिए हमें इसके उद्गम से उसके अंत तक की यात्रा पर चलना होगा। मुजफ्फरनगर के अंथवाड़ा से निकलने वाली यह नदी 598 किलोमीटर की यात्रा करती है। यह मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा, फर्रुखाबाद और कासगंज से होकर कन्नौज तक जाती है। मुजफ्फरनगर के ज्यादातर नालों का पानी इस नदी में बहाया जा रहा। नदी का पानी एकदम काला है। इससे उठ रही बदबू से खड़ा होना मुश्किल है। ये नदी आगे चलकर बागपत में हिंडन नदी से मिलती है। हिंडन नदी जिला गौतमबुद्धनगर से थोड़ा आगे चलकर गंगा में मिल जाती है। मेरठ और हापुड़ में काली नदी सिकुड़ी हुई मिली। ज्यादातर जगह कूड़ा-करकट था। जो जगह बची है, उसमें काला और बदबूदार पानी बह रहा है। इससे आगे हम बुलंदशहर पहुंचे, तो वहां का हाल भी पहले जैसा नजर आया। शहर के करीब 34 नालों का पानी काली नदी में गिरता दिखा। बुलंदशहर में शिकारपुर बाइपास पर हमें मृत पशुओं के अवशेष नदी में बहते दिखे। बदबू इतनी कि किनारे खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर में इस नदी में जलीय जीव समाप्त हो चुके हैं। नीर फाउंडेशन के संस्थापक रमनकांत त्यागी साल- 2004 से काली नदी के पुनर्जन्म के लिए लड़ रहे हैं। वह बताते हैं- इस नदी के किनारे 1200 गांव बसे हैं, जिनका कचरा सीधे इसमें मिलता है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और अलीगढ़ में चीनी मिलें, पेपर मिलें, डिस्टलरी और चमड़ा उद्योग बिना उपचार के जहरीला पानी नदी में छोड़ते हैं। मेरठ जिले में 64 प्रमुख प्रदूषक उद्योग हैं, जिनमें से 60 काली नदी के जलग्रहण क्षेत्र में हैं। हालांकि 17 उद्योग बंद हो चुके हैं, लेकिन बाकी 47 में 42 प्रदूषण नियंत्रण ही मानकों का पालन करते हैं। नदी के जल में 17 तरह के जहरीले अपशिष्ट तैर रहे हैं। ये मछलियों और अन्य जलीय जीवों को नष्ट कर चुके हैं। आसपास के गांवों में त्वचा रोग, पेट और कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। जरूरत से कम क्षमता के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे
मेहंदीघाट से हम कन्नौज के जलालपुर अमरा गांव के पास पहुंचे। यहां 13 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बनाया गया है। नमामि गंगे परियोजना के तहत गंगा और उसकी सहायक नदियों को स्वच्छ करने का भारी-भरकम बजट मिला है। यहां के इंचार्ज आदर्श द्विवेदी बताते हैं- कन्नौज शहर के सभी नालों पाटा, टम्मी और अडंगा का सीवेज दो पंपिंग स्टेशनों के जरिए प्लांट तक लाया जाता है। यहां कचरे को स्क्रीनिंग और ग्रिड सेपरेशन के जरिए अलग किया जाता है। फिर एसबीआर टैंकों में ट्रीटमेंट के बाद क्लोरीन डालकर पानी को काली नदी में छोड़ा जाता है। उनका दावा है कि अभी 11 एमएलडी सीवेज ही आ रहा है, जो प्लांट की क्षमता से कम है। हालांकि, उनके दावे में दम नहीं था। हकीकत सामने ही बह रहे नाले का बदबूदार पानी बता रहा था। हकीकत ये है कि प्लांट अक्सर बंद रखा जाता है। सीवेज को बिना ट्रीट किए ही काली नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। शहर से निकले इस नाले की गंदगी को देखने हम एसटीपी से 3 किमी आगे अमरा गांव से सटकर बहने वाली काली नदी तक पहुंचे। यहां ट्रीटमेंट प्लांट और शहर का सीवेज सीधे काली नदी में गिर रहा था। नाले के दूसरे छोर पर भैंस चरा रहे बच्चों ने बताया कि अक्सर काली नदी की मछलियां नाले के पास मर कर उतराती रहती हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने बार-बार उत्तर प्रदेश सरकार को काली नदी के प्रदूषण पर रिपोर्ट देने और इसे साफ करने के निर्देश दिए हैं, लेकिन परिणाम सीमित हैं। काली नदी को फिर से जीवित करने के लिए मुजफ्फरनगर में कुछ प्रयास शुरू किए गए हैं। लेकिन, इसका असर अभी दिखना शुरू नहीं हुआ है। नहर के पानी से कन्नौज तक बह रही काली नदी
कन्नौज तक काली नदी का जो पानी बहते हुए दिखता है, वो कासगंज जिले में नदरई डैम से पहले गंगा नहर का पानी छोड़ने की वजह से है। यहां से काली नदी के जल का डाइल्यूशन शुरू होता है। नमामि गंगे के पहले चरण में सिर्फ गंगा को लिया गया था। बाद में सरकार ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट में गंगा बेसिन की छोटी नदियों पर फोकस करना शुरू किया। नीर फाउंडेशन के रमनकांत त्यागी बताते हैं- छोटी नदियों से ही गंगा नदी का वृहद स्वरूप और अस्तित्व है। गंगा पर अकेले 44 फीसदी भारत का हिस्सा है। मतलब उसकी बेसिन में जो भी छोटी नदियां हैं, वो गंगा ही हैं। नीर फाउंडेशन के रमनकांत त्यागी बताते हैं- एनजीटी के आदेश के बाद सरकार की ओर से काली नदी को स्वच्छ करने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। 96 करोड़ की लागत से मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़ में 1-1 और बुलंदशहर में 5 आर्टिफिशियल वेटलैंड्स बनाए जा रहे हैं। ये वेटलैंड्स प्रदूषण सोखने वाले पौधों और फिल्टर सिस्टम के जरिए नदी के जल को स्वच्छ करेंगे। मुजफ्फरनगर में एक वेटलैंड का काम जुलाई तक पूरा होने की उम्मीद है। इसमें नदी के अंदर एक से डेढ़ किमी के दायरे में गैबियन स्ट्रक्चर बनाकर, बोल्डर और प्रदूषण सोखने वाले पौधों का उपयोग किया जाएगा। यह एक छोटा-सा प्रयास है, जो नदी को फिर से जीवित करने की आशा जगाता है। हर गांव को अपनी सरहद में करना होगा नदी का संरक्षण
रमनकांत त्यागी का मानना है कि नदी को बचाने के लिए सरकार और समाज को साथ काम करना होगा। इसके लिए पूर्वी काली नदी परिषद बनाई गई है, जिसका उद्देश्य दोनों को एक मंच पर लाना है। नदी की तीन बड़ी समस्याएं हैं- प्रदूषण, अतिक्रमण और पानी की कमी। इनका समाधान तालाबों का पुनर्जनन, हरियाली बढ़ाना और रसायन-मुक्त खेती को बढ़ावा देना है। तालाब बनेगा तो ग्राउंड वाटर लेवल ऊपर आएगा। सरफेस और ग्राउंड वाटर मिलने से ही कोई नदी बहती है। मरी भी इस कारण कि ग्राउंड लेवल नीचे चला गया। पानी हमको ऊपर लाना है। इसके लिए नदी के किनारे बसे हर गांव में सरपंच और सचिव की अगुआई में समितियां बन रही हैं। हर 50 समितियों पर एक काउंसिल होगी, जो तकनीकी सहायता देगी। गांवों में 50-100 केएलडी ग्रे-वाटर को गैबियन, बालू और पौधों के जरिए प्राकृतिक रूप से ट्रीट करने की योजना है। परिषद का लक्ष्य है कि नदी के उद्गम स्थल की 200 बीघा जमीन को सीवेज से मुक्त किया जाए। इसे स्वच्छ झील के रूप में विकसित किया जाए। मेरठ के शाहपुर जदीद में नागिन नदी के संगम स्थल को भी झील के रूप में तैयार करने की योजना है। यह परिषद एक सेतु की तरह है, जो सरकार की योजनाओं को गांवों तक और गांवों की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का काम करेगी। डॉल्फिन का दिखना, उम्मीद की किरण
काली नदी के काले जल के बीच एक सुखद समाचार भी है। मेहंदीघाट से 5 किलोमीटर दूर दईपुर गांव के पास पिछले कुछ महीनों से 15-20 डॉल्फिन दिख रही हैं। ये गांव कन्नौज और कानपुर की सीमा पर है। डॉल्फिन मित्र सूरज कश्यप और गंगा प्रहरी प्रिया प्रजापति ने बताया कि यह इस बात का संकेत है कि गंगा का पानी कुछ हद तक साफ हुआ है। डॉल्फिन का नाचना मानो गंगा की सांसों में थोड़ी-सी जान लौटने का प्रतीक है। प्रशासन अब डॉल्फिन के संरक्षण के लिए जागरूकता अभियान चला रहा है, ताकि कोई उनका शिकार न करे। सहयोग : तुषार राय, विकास अवस्थी —————————— ये खबर भी पढ़ें… डॉल्फिन-कछुओं की लगातार हो रहीं मौतें, यूपी में जहां सबसे ज्यादा संख्या वहां नहीं दिखती डॉल्फिन, पार्ट-2 बुलंदशहर जिले का गांव राजघाट। गंगा का ये इलाका डॉल्फिन, कछुओं और मछलियों की मौजूदगी के लिए मशहूर है। अकेले इसी जगह गंगा में 20 से ज्यादा डॉल्फिन हैं। लेकिन, हमें निराश होना पड़ा। दो घंटे मोटरबोट में घूमने के बाद भी हमें डॉल्फिन की एक झलक भी नहीं दिखी। पढ़ें पूरी खबर कन्नौज शहर से 15 किलोमीटर दूर है मेहंदीघाट। एक तरफ शव जल रहे, दूसरी तरफ काली नदी और गंगा के संगम पर लोग स्नान कर रहे। गंगा स्नान कर रहे लोगों के चेहरे के भाव बता रहे हैं कि मजबूरी में उन्हें ऐसा करना पड़ रहा। दरअसल, काली नदी, जो कभी नागिन की तरह लहराती थी, कालिंदी बनकर गंगा को गले लगाती थी। आज नाले की तरह सिसक रही है। यहां काली नदी का काला, बदबूदार जल और गंगा की मटमैली धारा एक-दूसरे से लिपटते हैं। मानो दोनों अपनी व्यथा साझा कर रही हों। दैनिक भास्कर ने अपनी गंगा यात्रा के तीसरे दिन संभल से कन्नौज तक करीब 312 किमी का सफर तय किया। हमने देखा कि कैसे एक नदी प्रदूषण, उपेक्षा और लापरवाही की भेंट चढ़ गई? पढ़िए ये खास रिपोर्ट… गंगा यात्रा के तीसरे पड़ाव में हम दिल्ली-कोलकाता नेशनल हाईवे पर कन्नौज शहर से 15 किमी दूर मेहंदीघाट पहुंचे। यहां गंगा दशहरा का मेला लगता है। श्रद्धालु स्नान और पूजा करने यहां आते हैं। लेकिन, नदी के बीच बने टापू और काली नदी के साथ बहकर आने वाली जलकुंभियां उनके विश्वास को चुनौती देती हैं। जलकुंभी, जो स्थिर जल की निशानी हैं, अब बहते पानी में भी तैर रही हैं। कन्नौज (इत्र की नगरी) अपनी सुगंध और सांस्कृतिक वैभव के लिए विख्यात है। लेकिन, मेहंदीघाट पर गंगा और काली नदी का संगम इस सुगंध को भूलने पर मजबूर करता है। यहां गंगा की धारा दो हिस्सों उत्तरी और दक्षिणी में बंटी है। काली नदी दक्षिणी धारा से मिलती है। दोनों नदियों का मिलन इतना साफ दिखता है, जैसे कोई रेखा खींच दी गई हो। गंगा की दक्षिणी धारा में काली का काला जल 200 मीटर तक अलग पहचान बनाए रखता है। घाट पर मिले नमामि गंगे के जिला संयोजक अनिल द्विवेदी बताते हैं, ‘पहले यह संगम चौरा चांदपुर गांव के पास था। करीब 50 साल पहले अड़ंगापुर में था, जहां महर्षि विश्वामित्र ने तप किया था। गंगा का प्रवाह क्षेत्र बदलता गया और संगम भी खिसकता गया।’ लेकिन बदलाव सिर्फ प्रवाह का नहीं, गंगा की सेहत का भी है। नदी के बीच टापू बन चुके हैं, जहां लोग तरबूज-खरबूजा की खेती कर रहे हैं। गंगा यात्रा में हमारे सहयोगी बने नाविक माधव सिंह कहते हैं- मार्च आते-आते गंगा की गहराई कमर तक सिमट जाती है। बारिश ने थोड़ा पानी बढ़ाया है, वरना ये टापू गंगा की धारा को और बांट देते हैं। ये टापू गंगा की सेहत का संकेत नहीं, बल्कि उसके कमजोर पड़ते प्रवाह का सबूत है। नदी के बीच ये टापू मानो गंगा की सांसों पर बोझ बनकर उभरे हों, जो उसकी धारा को खंडित कर रहे हैं। गंगा की पवित्रता को दागदार कर रही काली नदी
काली नदी को अपने सांप जैसे टेढ़े-मेढ़े बहाव के कारण स्थानीय लोग ‘नागिन’ कहते हैं। सिंचाई विभाग के अनुसार, यह नदी 18 किमी मुजफ्फरनगर की गोद में और 6.4 किलोमीटर मेरठ की धरती पर नागिन की तरह कुलांचे भरते आगे बढ़ती है। यहां यह दूसरी धारा से मिलती है और ‘काली’ बन जाती है। अलीगढ़ से कन्नौज तक यह ‘कालिंदी’ कहलाती है। मानो अपने नामों के साथ-साथ यह नदी अलग-अलग रूप धरती हो- कभी चंचल, कभी गंभीर, कभी पवित्र। इसके किनारे बसे गांवों में बच्चे इसके जल में छींटे उड़ाते थे, मछुआरे अपनी आजीविका की तलाश में जाल डालते थे। किसान इसके पानी से खेतों को सींचकर अनाज उगाते थे। यह नदी केवल जल की धारा नहीं थी, जीवन थी, आस्था थी, संस्कृति थी। लेकिन जैसे-जैसे यह नदी शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की ओर बढ़ी, इसकी कविता काले रंग की स्याही में डूब गई। यह अब नदी नहीं, एक जहरीला नाला बन चुकी है, जो गंगा की पवित्रता को भी दागदार कर रही है। प्रदूषण की काली स्याही ने कैसे एक नदी का दम घोंटा
काली नदी की कहानी को समझने के लिए हमें इसके उद्गम से उसके अंत तक की यात्रा पर चलना होगा। मुजफ्फरनगर के अंथवाड़ा से निकलने वाली यह नदी 598 किलोमीटर की यात्रा करती है। यह मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा, फर्रुखाबाद और कासगंज से होकर कन्नौज तक जाती है। मुजफ्फरनगर के ज्यादातर नालों का पानी इस नदी में बहाया जा रहा। नदी का पानी एकदम काला है। इससे उठ रही बदबू से खड़ा होना मुश्किल है। ये नदी आगे चलकर बागपत में हिंडन नदी से मिलती है। हिंडन नदी जिला गौतमबुद्धनगर से थोड़ा आगे चलकर गंगा में मिल जाती है। मेरठ और हापुड़ में काली नदी सिकुड़ी हुई मिली। ज्यादातर जगह कूड़ा-करकट था। जो जगह बची है, उसमें काला और बदबूदार पानी बह रहा है। इससे आगे हम बुलंदशहर पहुंचे, तो वहां का हाल भी पहले जैसा नजर आया। शहर के करीब 34 नालों का पानी काली नदी में गिरता दिखा। बुलंदशहर में शिकारपुर बाइपास पर हमें मृत पशुओं के अवशेष नदी में बहते दिखे। बदबू इतनी कि किनारे खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़, बुलंदशहर में इस नदी में जलीय जीव समाप्त हो चुके हैं। नीर फाउंडेशन के संस्थापक रमनकांत त्यागी साल- 2004 से काली नदी के पुनर्जन्म के लिए लड़ रहे हैं। वह बताते हैं- इस नदी के किनारे 1200 गांव बसे हैं, जिनका कचरा सीधे इसमें मिलता है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और अलीगढ़ में चीनी मिलें, पेपर मिलें, डिस्टलरी और चमड़ा उद्योग बिना उपचार के जहरीला पानी नदी में छोड़ते हैं। मेरठ जिले में 64 प्रमुख प्रदूषक उद्योग हैं, जिनमें से 60 काली नदी के जलग्रहण क्षेत्र में हैं। हालांकि 17 उद्योग बंद हो चुके हैं, लेकिन बाकी 47 में 42 प्रदूषण नियंत्रण ही मानकों का पालन करते हैं। नदी के जल में 17 तरह के जहरीले अपशिष्ट तैर रहे हैं। ये मछलियों और अन्य जलीय जीवों को नष्ट कर चुके हैं। आसपास के गांवों में त्वचा रोग, पेट और कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। जरूरत से कम क्षमता के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे
मेहंदीघाट से हम कन्नौज के जलालपुर अमरा गांव के पास पहुंचे। यहां 13 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) क्षमता का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बनाया गया है। नमामि गंगे परियोजना के तहत गंगा और उसकी सहायक नदियों को स्वच्छ करने का भारी-भरकम बजट मिला है। यहां के इंचार्ज आदर्श द्विवेदी बताते हैं- कन्नौज शहर के सभी नालों पाटा, टम्मी और अडंगा का सीवेज दो पंपिंग स्टेशनों के जरिए प्लांट तक लाया जाता है। यहां कचरे को स्क्रीनिंग और ग्रिड सेपरेशन के जरिए अलग किया जाता है। फिर एसबीआर टैंकों में ट्रीटमेंट के बाद क्लोरीन डालकर पानी को काली नदी में छोड़ा जाता है। उनका दावा है कि अभी 11 एमएलडी सीवेज ही आ रहा है, जो प्लांट की क्षमता से कम है। हालांकि, उनके दावे में दम नहीं था। हकीकत सामने ही बह रहे नाले का बदबूदार पानी बता रहा था। हकीकत ये है कि प्लांट अक्सर बंद रखा जाता है। सीवेज को बिना ट्रीट किए ही काली नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। शहर से निकले इस नाले की गंदगी को देखने हम एसटीपी से 3 किमी आगे अमरा गांव से सटकर बहने वाली काली नदी तक पहुंचे। यहां ट्रीटमेंट प्लांट और शहर का सीवेज सीधे काली नदी में गिर रहा था। नाले के दूसरे छोर पर भैंस चरा रहे बच्चों ने बताया कि अक्सर काली नदी की मछलियां नाले के पास मर कर उतराती रहती हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने बार-बार उत्तर प्रदेश सरकार को काली नदी के प्रदूषण पर रिपोर्ट देने और इसे साफ करने के निर्देश दिए हैं, लेकिन परिणाम सीमित हैं। काली नदी को फिर से जीवित करने के लिए मुजफ्फरनगर में कुछ प्रयास शुरू किए गए हैं। लेकिन, इसका असर अभी दिखना शुरू नहीं हुआ है। नहर के पानी से कन्नौज तक बह रही काली नदी
कन्नौज तक काली नदी का जो पानी बहते हुए दिखता है, वो कासगंज जिले में नदरई डैम से पहले गंगा नहर का पानी छोड़ने की वजह से है। यहां से काली नदी के जल का डाइल्यूशन शुरू होता है। नमामि गंगे के पहले चरण में सिर्फ गंगा को लिया गया था। बाद में सरकार ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट में गंगा बेसिन की छोटी नदियों पर फोकस करना शुरू किया। नीर फाउंडेशन के रमनकांत त्यागी बताते हैं- छोटी नदियों से ही गंगा नदी का वृहद स्वरूप और अस्तित्व है। गंगा पर अकेले 44 फीसदी भारत का हिस्सा है। मतलब उसकी बेसिन में जो भी छोटी नदियां हैं, वो गंगा ही हैं। नीर फाउंडेशन के रमनकांत त्यागी बताते हैं- एनजीटी के आदेश के बाद सरकार की ओर से काली नदी को स्वच्छ करने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। 96 करोड़ की लागत से मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़ में 1-1 और बुलंदशहर में 5 आर्टिफिशियल वेटलैंड्स बनाए जा रहे हैं। ये वेटलैंड्स प्रदूषण सोखने वाले पौधों और फिल्टर सिस्टम के जरिए नदी के जल को स्वच्छ करेंगे। मुजफ्फरनगर में एक वेटलैंड का काम जुलाई तक पूरा होने की उम्मीद है। इसमें नदी के अंदर एक से डेढ़ किमी के दायरे में गैबियन स्ट्रक्चर बनाकर, बोल्डर और प्रदूषण सोखने वाले पौधों का उपयोग किया जाएगा। यह एक छोटा-सा प्रयास है, जो नदी को फिर से जीवित करने की आशा जगाता है। हर गांव को अपनी सरहद में करना होगा नदी का संरक्षण
रमनकांत त्यागी का मानना है कि नदी को बचाने के लिए सरकार और समाज को साथ काम करना होगा। इसके लिए पूर्वी काली नदी परिषद बनाई गई है, जिसका उद्देश्य दोनों को एक मंच पर लाना है। नदी की तीन बड़ी समस्याएं हैं- प्रदूषण, अतिक्रमण और पानी की कमी। इनका समाधान तालाबों का पुनर्जनन, हरियाली बढ़ाना और रसायन-मुक्त खेती को बढ़ावा देना है। तालाब बनेगा तो ग्राउंड वाटर लेवल ऊपर आएगा। सरफेस और ग्राउंड वाटर मिलने से ही कोई नदी बहती है। मरी भी इस कारण कि ग्राउंड लेवल नीचे चला गया। पानी हमको ऊपर लाना है। इसके लिए नदी के किनारे बसे हर गांव में सरपंच और सचिव की अगुआई में समितियां बन रही हैं। हर 50 समितियों पर एक काउंसिल होगी, जो तकनीकी सहायता देगी। गांवों में 50-100 केएलडी ग्रे-वाटर को गैबियन, बालू और पौधों के जरिए प्राकृतिक रूप से ट्रीट करने की योजना है। परिषद का लक्ष्य है कि नदी के उद्गम स्थल की 200 बीघा जमीन को सीवेज से मुक्त किया जाए। इसे स्वच्छ झील के रूप में विकसित किया जाए। मेरठ के शाहपुर जदीद में नागिन नदी के संगम स्थल को भी झील के रूप में तैयार करने की योजना है। यह परिषद एक सेतु की तरह है, जो सरकार की योजनाओं को गांवों तक और गांवों की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का काम करेगी। डॉल्फिन का दिखना, उम्मीद की किरण
काली नदी के काले जल के बीच एक सुखद समाचार भी है। मेहंदीघाट से 5 किलोमीटर दूर दईपुर गांव के पास पिछले कुछ महीनों से 15-20 डॉल्फिन दिख रही हैं। ये गांव कन्नौज और कानपुर की सीमा पर है। डॉल्फिन मित्र सूरज कश्यप और गंगा प्रहरी प्रिया प्रजापति ने बताया कि यह इस बात का संकेत है कि गंगा का पानी कुछ हद तक साफ हुआ है। डॉल्फिन का नाचना मानो गंगा की सांसों में थोड़ी-सी जान लौटने का प्रतीक है। प्रशासन अब डॉल्फिन के संरक्षण के लिए जागरूकता अभियान चला रहा है, ताकि कोई उनका शिकार न करे। सहयोग : तुषार राय, विकास अवस्थी —————————— ये खबर भी पढ़ें… डॉल्फिन-कछुओं की लगातार हो रहीं मौतें, यूपी में जहां सबसे ज्यादा संख्या वहां नहीं दिखती डॉल्फिन, पार्ट-2 बुलंदशहर जिले का गांव राजघाट। गंगा का ये इलाका डॉल्फिन, कछुओं और मछलियों की मौजूदगी के लिए मशहूर है। अकेले इसी जगह गंगा में 20 से ज्यादा डॉल्फिन हैं। लेकिन, हमें निराश होना पड़ा। दो घंटे मोटरबोट में घूमने के बाद भी हमें डॉल्फिन की एक झलक भी नहीं दिखी। पढ़ें पूरी खबर उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
यूपी में गंगा को मैली कर रही काली नदी:इत्र नगरी में सीवेज, औद्योगिक कचरा और केमिकल बढ़ा रहे प्रदूषण, पार्ट-3
