वंचित, पिछड़े और उपेक्षित वर्गों को सही पहचान और सरकारी योजनाओं में उनकी उचित भागीदारी दिलाने की दिशा में यह एक निर्णायक पहल है। भाजपा सरकार ने सामाजिक न्याय और डेटा-आधारित सुशासन को वास्तविकता में बदलने का यह ऐतिहासिक निर्णय लिया है।-योगी आदित्यनाथ, सीएम जाति जनगणना का फैसला 90% पीडीए की एकजुटता की 100% जीत है। हम सबके सम्मिलित दबाव से भाजपा सरकार मजबूरन ये निर्णय लेने को बाध्य हुई है। सामाजिक न्याय की लड़ाई में ये पीडीए की जीत का एक अतिमहत्वपूर्ण चरण है।- अखिलेश यादव, सपा अध्यक्ष केंद्र सरकार के जातीय जनगणना कराने की घोषणा के तुंरत बाद ये दोनों प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि यूपी में इसका कितना बड़ा असर होने वाला है। यह न केवल सामाजिक और आर्थिक नीतियों को प्रभावित करेगा, बल्कि देश के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में भी इसका व्यापक असर देखने को मिलेगा। फिलहाल पहली बढ़त भाजपा ने ले ली। उसने सपा–कांग्रेस की इस पर धार कुंद कर दी है, लेकिन आगे चलकर जातीय जनगणना राजनीतिक दलों के लिए दो धारी तलवार साबित हो सकती है। जातीय जनगणना के बाद कोटे के अंदर कोटे की मांग जातियां उठाएंगी। इससे दूसरी जातियों के नए नेता उभरने की संभावना जताई जा रही है। जानिए जातीय जनगणना से यूपी पर पड़ने वाले असर, राजनैतिक दलों को इससे होने वाले फायदे और नुकसान, इसके राजनीतिक मायने क्या हैं… यूपी की राजनीति में क्या असर पड़ेगा यूपी में जाति आधारित राजनीति का बोलबाला है। समाजवादी पार्टी ने 2022 और 2024 के चुनाव में इसे मुद्दा बनाया था, जिसके बदले उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा था। ऐसे में केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना कराए जाने का फैसला लेकर बड़ा दांव चला है। इसे सपा व कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की धार को कुंद करने का भी एक प्रयास माना जा रहा है। हालांकि जानकार इसे सत्ता पक्ष के लिए अवसर के साथ-साथ चुनौतियां भी मानते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ योगेश मिश्रा कहते हैं कि जातीय जनगणना यूपी में भाजपा के लिए फायदे का सौदा नहीं होगा। भाजपा यहां हिंदुत्व और सनातन की राजनीति करती रही है। यह दौर डिलिमिटेशन का है, पिछड़ी राजनीति का है। योगेश मिश्रा कहते हैं कि अखिलेश यादव पीडीए के नाम पर खुद को सबके नेता बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा को इसका नुकसान ज्यादा होता दिख रहा है। जहां तक मायावती की बात है तो वह केवल जाटवों तक सीमित हैं, दूसरी कोई जाति उनके साथ क्यों जुड़ेगी, इसका जवाब खुद बसपा के लोगों के पास भी नहीं है। मायावती की अनुपलब्धता इसके आड़े आ रही है। दलित चिंतक और लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रवि कांत कहते हैं कि भाजपा ने इस फैसले से कई लोगों को मैसेज दिया है। पहला यह कि राहुल गांधी इस मुद्दे को चर्चा में लेकर आए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्टाइल रही है कि वह राहुल गांधी के मुद्दों को ध्वस्त करते रहे हैं। भाजपा इसे भुनाने की कोशिश करेगी। राजनीतिक पार्टियां: किसे फायदा, किसे नुकसान भाजपा: विपक्ष का मुद्दा छीना पर मुसीबत बढ़ सकती है प्रदेश की राजनीति के जानकारों का मानना है कि यूपी में जातीय जनगणना की मांग विपक्ष करता रहा है। सत्ता पक्ष इस मुद़दे पर बहस से कतराता रहा है। हालांकि उत्तर प्रदेश में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद माैर्य ने भी जातीय जनगणना कराए जाने की मांग की थी। वहीं, भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल की राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल ने भी इसका समर्थन किया था। अब बीजेपी की ही केंद्र सरकार ने बिहार चुनाव से ठीक पहले इस मुद्दे को उठा कर जातिगत राजनीति का पूरा समीकरण ही बदल दिया है। फिलहाल विपक्ष की धार कुंद कर दी है। बीजेपी इस जनगणना को सामाजिक समावेश और सबका साथ-सबका विकास के नारे से जोड़कर ओबीसी और दलित वोटों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगी। वहीं, दूसरी ओर सामान्य वर्ग खासकर ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया और कायस्थ जातियों का समर्थन मिलता रहा है। जनगणना में अगर सामान्य वर्ग की आबादी कम पाई जाती है या ओबीसी आरक्षण में बदलाव की मांग बढ़ती है, तो सामान्य वर्ग में असंतोष पैदा हो सकता है। साथ ही, यदि विपक्ष इस जनगणना को बीजेपी के खिलाफ भुनाने में सफल होता है, तो बीजेपी का ओबीसी और दलित वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। वरिष्ठ पत्रकार आनंद राय का कहना है कि जातीय जनगणना विपक्ष का बड़ा मुद्दा था। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी इसकी मांग कर रहे थे। यूपी में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती भी मांग कर रही थीं। लेकिन एनडीए सरकार ने जातीय जनगणना कराने का निर्णय कर विपक्ष से मजबूत मुद्दा छीन लिया है। इसका राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन यदि इंडिया गठबंधन ने अपने संघर्ष की जीत को पिछड़े और दलित वर्ग में गूंज बना दी तो यूपी में विपक्ष को फायदा हो सकता है। सपा: OBC की आबादी बढ़ती या घटती, दोनों का फायदा उठाएगी समाजवादी पार्टी लंबे समय से जातीय जनगणना की मांग कर रही है। बीते चुनाव में इसे जोर-शोर से उठाया भी है। अखिलेश यादव कहते रहे हैं कि जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी। जातीय जनगणना के फैसले के बाद भी सपा प्रमुख अखिलेश यादव जातीय जनगणना का समर्थन करते हुए इसे इंडिया की जीत बता रहे हैं। जनगणना में आबादी बढ़ती है या घटती है दोनों का फायदा समाजवादी पार्टी लेने की कोशिश करेगी। सपा इस जनगणना को ओबीसी सशक्तिकरण से जोड़कर 2027 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ बड़ा मुद्दा बना सकती है। वहीं, अगर जनगणना में यादव समुदाय की आबादी अपेक्षा से कम पाई जाती है या रोहिणी आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी आरक्षण को उप-श्रेणियों में बांटा जाता है, तो सपा का कोर वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। छोटी ओबीसी जातियां सपा से दूरी बना सकती हैं। हालांकि सपा पीडीए की बात कर रही है। ऐसे में उसके लिए जातीय जनगणना में पीडीए का संतुलन बनाना आसान नहीं होगा। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि प्रदेश के पिछड़े और दलित को यह बात भलीभांति पता है कि जातीय जनगणना की मांग सपा और कांग्रेस ने ही पुरजोर की। बिहार में नीतीश-लालू गठबंधन की सरकार के समय हुई जातीय जनगणना का भाजपा ने विरोध किया था। उसे असंवैधानिक तक करार दिया था। ऐसे में जातीय जनगणना होने के बाद विपक्ष यदि पिछड़े और दलित वर्ग के बीच यह अहसास कराने में कामयाब रहा है कि यह उनके संघर्ष की जीत है तो उसे इसका राजनीतिक फायदा भी होगा। कांग्रेस: जनरल में असंतोष बढ़ा तो फायदा मिलेगा कांग्रेस का यूपी में वोट आधार पहले से ही कमजोर है। यदि जनगणना के बाद जातिगत राजनीति और तेज होती है, तो कांग्रेस जो व्यापक सामाजिक गठबंधन पर निर्भर है उसे अपनी स्थिति मजबूत करने में कठिनाई होगी। साथ ही, यदि सामान्य वर्ग में असंतोष बढ़ता है तो इसका लाभ कांग्रेस को हो सकता है। बसपा: दलितों की संख्या बढ़ी तो मजबूती मिलेगी बसपा का आधार मुख्य रूप से दलित समाज (विशेष रूप से जाटव) है। अगर जनगणना में अनुसूचित जातियों (एससी) की आबादी या उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति स्पष्ट होती है, तो बसपा इसे दलितों के अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल कर सकती है। यदि जनगणना में गैर-जाटव दलित समुदायों की स्थिति मजबूत होती है और वे अन्य दलों जैसे भाजपा व सपा की ओर झुकते हैं, तो बसपा का जाटव-केंद्रित वोट बैंक कमजोर हो सकता है। छोटे दल: सौदेबाजी की ताकत बढ़ा सकते हैं निषाद, बिंद, राजभर और अन्य छोटी ओबीसी और दलित उप-जातियों पर केंद्रित छोटे दल इस जनगणना से सबसे अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। यदि इन समाज के लोगों की आबादी बढ़ती है, तो ये दल अधिक राजनीतिक प्रभाव हासिल कर सकते हैं और बड़े दलों के साथ गठबंधन में अपनी सौदेबाजी की ताकत बढ़ा सकते हैं। वहीं संख्या घटती है तो आपस में ही विवाद की संख्या बढ़ जाएगी और अपने-अपने वर्ग को बरगलाने की कोशिश भी शुरू हो जाएगी। नए जातिगत नेता उभरेंगे। सामाजिक और रिजर्वेशन पर क्या फर्क पड़ेगा आरक्षण नीतियों पर पड़ेगा असर यूपी में पहले से ही अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। मंडल आयोग (1990) ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी की आबादी 52% अनुमानित थी, जिसके आधार पर 27% आरक्षण लागू किया गया। यदि नई जनगणना में ओबीसी या अन्य समुदायों की आबादी इससे अधिक पाई जाती है, तो आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग जोर पकड़ सकती है। इससे 50% आरक्षण की संवैधानिक सीमा पर बहस छिड़ सकती है। अब उठेगी कोटे में कोटा की मांग राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जातीय जनगणना के बाद ओबीसी और पिछड़े वर्ग के आरक्षण में कोटे में कोटे की मांग उठेगी। बिहार में कोटे में कोटा व्यवस्था लागू है। केंद्र सरकार पहले ही कोटे में कोटा देने का निर्णय का निर्णय कर चुकी है। कोटे में कोटा देने से यादव, सैनी-शाक्य-मौर्य-कुशवाह, कुर्मी, लोध समाज को नुकसान हो सकता है। अभी तक पिछड़े वर्ग के आरक्षण का अधिकांश लाभ इन्हीं समाज के लोगों को मिल रहा है। कोटे में कोटा निर्धारित होने से इनका दायरा सीमित हो जाएगा। वहीं राजभर, निषाद, कश्यप, केवट, मल्लाह, बिंद, नाऊ, भर, कहार, मोमिन, अंसार, भुर्जी, दर्जी, लोहार जैसी अति पिछड़ी जातियों को भी फायदा होगा। तो जनसंख्या के आधार पर हो सकता है सीटों का नया परिसीमन 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी की जनसंख्या लगभग 19.98 करोड़ थी। अब आबादी 24 करोड़ के आसपास बताई जाती है। जनगणना के बाद सही तस्वीर सामने आएगी। इसके बाद परिसीमन में जनसंख्या के आधार पर लोकसभा और विधानसभा सीटों का पुनर्गठन होगा, जिससे यूपी में सीटें बढ़ भी सकती हैं। —————- ये खबर भी पढ़ें… नेपाल से सटे जिलों में मदरसों पर क्यों चला बुलडोजर:यहां 50% तक बढ़ी मुस्लिम आबादी; यूपी पुलिस की रिपोर्ट में घुसपैठ की बात नेपाल सीमा से सटे यूपी के जिलों में 25 से 27 अप्रैल के बीच बिना मान्यता वाले मदरसों और अवैध कब्जों पर बुलडोजर चलाया गया। बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, लखीमपुर खीरी और महराजगंज में चले अभियान में सैकड़ों अवैध कब्जे हटवाए गए। बिना मान्यता के मदरसों पर ताला लगवाया गया। पढ़ें पूरी खबर वंचित, पिछड़े और उपेक्षित वर्गों को सही पहचान और सरकारी योजनाओं में उनकी उचित भागीदारी दिलाने की दिशा में यह एक निर्णायक पहल है। भाजपा सरकार ने सामाजिक न्याय और डेटा-आधारित सुशासन को वास्तविकता में बदलने का यह ऐतिहासिक निर्णय लिया है।-योगी आदित्यनाथ, सीएम जाति जनगणना का फैसला 90% पीडीए की एकजुटता की 100% जीत है। हम सबके सम्मिलित दबाव से भाजपा सरकार मजबूरन ये निर्णय लेने को बाध्य हुई है। सामाजिक न्याय की लड़ाई में ये पीडीए की जीत का एक अतिमहत्वपूर्ण चरण है।- अखिलेश यादव, सपा अध्यक्ष केंद्र सरकार के जातीय जनगणना कराने की घोषणा के तुंरत बाद ये दोनों प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि यूपी में इसका कितना बड़ा असर होने वाला है। यह न केवल सामाजिक और आर्थिक नीतियों को प्रभावित करेगा, बल्कि देश के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में भी इसका व्यापक असर देखने को मिलेगा। फिलहाल पहली बढ़त भाजपा ने ले ली। उसने सपा–कांग्रेस की इस पर धार कुंद कर दी है, लेकिन आगे चलकर जातीय जनगणना राजनीतिक दलों के लिए दो धारी तलवार साबित हो सकती है। जातीय जनगणना के बाद कोटे के अंदर कोटे की मांग जातियां उठाएंगी। इससे दूसरी जातियों के नए नेता उभरने की संभावना जताई जा रही है। जानिए जातीय जनगणना से यूपी पर पड़ने वाले असर, राजनैतिक दलों को इससे होने वाले फायदे और नुकसान, इसके राजनीतिक मायने क्या हैं… यूपी की राजनीति में क्या असर पड़ेगा यूपी में जाति आधारित राजनीति का बोलबाला है। समाजवादी पार्टी ने 2022 और 2024 के चुनाव में इसे मुद्दा बनाया था, जिसके बदले उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा था। ऐसे में केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना कराए जाने का फैसला लेकर बड़ा दांव चला है। इसे सपा व कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की धार को कुंद करने का भी एक प्रयास माना जा रहा है। हालांकि जानकार इसे सत्ता पक्ष के लिए अवसर के साथ-साथ चुनौतियां भी मानते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ योगेश मिश्रा कहते हैं कि जातीय जनगणना यूपी में भाजपा के लिए फायदे का सौदा नहीं होगा। भाजपा यहां हिंदुत्व और सनातन की राजनीति करती रही है। यह दौर डिलिमिटेशन का है, पिछड़ी राजनीति का है। योगेश मिश्रा कहते हैं कि अखिलेश यादव पीडीए के नाम पर खुद को सबके नेता बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा को इसका नुकसान ज्यादा होता दिख रहा है। जहां तक मायावती की बात है तो वह केवल जाटवों तक सीमित हैं, दूसरी कोई जाति उनके साथ क्यों जुड़ेगी, इसका जवाब खुद बसपा के लोगों के पास भी नहीं है। मायावती की अनुपलब्धता इसके आड़े आ रही है। दलित चिंतक और लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रवि कांत कहते हैं कि भाजपा ने इस फैसले से कई लोगों को मैसेज दिया है। पहला यह कि राहुल गांधी इस मुद्दे को चर्चा में लेकर आए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्टाइल रही है कि वह राहुल गांधी के मुद्दों को ध्वस्त करते रहे हैं। भाजपा इसे भुनाने की कोशिश करेगी। राजनीतिक पार्टियां: किसे फायदा, किसे नुकसान भाजपा: विपक्ष का मुद्दा छीना पर मुसीबत बढ़ सकती है प्रदेश की राजनीति के जानकारों का मानना है कि यूपी में जातीय जनगणना की मांग विपक्ष करता रहा है। सत्ता पक्ष इस मुद़दे पर बहस से कतराता रहा है। हालांकि उत्तर प्रदेश में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद माैर्य ने भी जातीय जनगणना कराए जाने की मांग की थी। वहीं, भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल की राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल ने भी इसका समर्थन किया था। अब बीजेपी की ही केंद्र सरकार ने बिहार चुनाव से ठीक पहले इस मुद्दे को उठा कर जातिगत राजनीति का पूरा समीकरण ही बदल दिया है। फिलहाल विपक्ष की धार कुंद कर दी है। बीजेपी इस जनगणना को सामाजिक समावेश और सबका साथ-सबका विकास के नारे से जोड़कर ओबीसी और दलित वोटों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगी। वहीं, दूसरी ओर सामान्य वर्ग खासकर ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया और कायस्थ जातियों का समर्थन मिलता रहा है। जनगणना में अगर सामान्य वर्ग की आबादी कम पाई जाती है या ओबीसी आरक्षण में बदलाव की मांग बढ़ती है, तो सामान्य वर्ग में असंतोष पैदा हो सकता है। साथ ही, यदि विपक्ष इस जनगणना को बीजेपी के खिलाफ भुनाने में सफल होता है, तो बीजेपी का ओबीसी और दलित वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। वरिष्ठ पत्रकार आनंद राय का कहना है कि जातीय जनगणना विपक्ष का बड़ा मुद्दा था। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी इसकी मांग कर रहे थे। यूपी में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती भी मांग कर रही थीं। लेकिन एनडीए सरकार ने जातीय जनगणना कराने का निर्णय कर विपक्ष से मजबूत मुद्दा छीन लिया है। इसका राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन यदि इंडिया गठबंधन ने अपने संघर्ष की जीत को पिछड़े और दलित वर्ग में गूंज बना दी तो यूपी में विपक्ष को फायदा हो सकता है। सपा: OBC की आबादी बढ़ती या घटती, दोनों का फायदा उठाएगी समाजवादी पार्टी लंबे समय से जातीय जनगणना की मांग कर रही है। बीते चुनाव में इसे जोर-शोर से उठाया भी है। अखिलेश यादव कहते रहे हैं कि जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी। जातीय जनगणना के फैसले के बाद भी सपा प्रमुख अखिलेश यादव जातीय जनगणना का समर्थन करते हुए इसे इंडिया की जीत बता रहे हैं। जनगणना में आबादी बढ़ती है या घटती है दोनों का फायदा समाजवादी पार्टी लेने की कोशिश करेगी। सपा इस जनगणना को ओबीसी सशक्तिकरण से जोड़कर 2027 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ बड़ा मुद्दा बना सकती है। वहीं, अगर जनगणना में यादव समुदाय की आबादी अपेक्षा से कम पाई जाती है या रोहिणी आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी आरक्षण को उप-श्रेणियों में बांटा जाता है, तो सपा का कोर वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। छोटी ओबीसी जातियां सपा से दूरी बना सकती हैं। हालांकि सपा पीडीए की बात कर रही है। ऐसे में उसके लिए जातीय जनगणना में पीडीए का संतुलन बनाना आसान नहीं होगा। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि प्रदेश के पिछड़े और दलित को यह बात भलीभांति पता है कि जातीय जनगणना की मांग सपा और कांग्रेस ने ही पुरजोर की। बिहार में नीतीश-लालू गठबंधन की सरकार के समय हुई जातीय जनगणना का भाजपा ने विरोध किया था। उसे असंवैधानिक तक करार दिया था। ऐसे में जातीय जनगणना होने के बाद विपक्ष यदि पिछड़े और दलित वर्ग के बीच यह अहसास कराने में कामयाब रहा है कि यह उनके संघर्ष की जीत है तो उसे इसका राजनीतिक फायदा भी होगा। कांग्रेस: जनरल में असंतोष बढ़ा तो फायदा मिलेगा कांग्रेस का यूपी में वोट आधार पहले से ही कमजोर है। यदि जनगणना के बाद जातिगत राजनीति और तेज होती है, तो कांग्रेस जो व्यापक सामाजिक गठबंधन पर निर्भर है उसे अपनी स्थिति मजबूत करने में कठिनाई होगी। साथ ही, यदि सामान्य वर्ग में असंतोष बढ़ता है तो इसका लाभ कांग्रेस को हो सकता है। बसपा: दलितों की संख्या बढ़ी तो मजबूती मिलेगी बसपा का आधार मुख्य रूप से दलित समाज (विशेष रूप से जाटव) है। अगर जनगणना में अनुसूचित जातियों (एससी) की आबादी या उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति स्पष्ट होती है, तो बसपा इसे दलितों के अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल कर सकती है। यदि जनगणना में गैर-जाटव दलित समुदायों की स्थिति मजबूत होती है और वे अन्य दलों जैसे भाजपा व सपा की ओर झुकते हैं, तो बसपा का जाटव-केंद्रित वोट बैंक कमजोर हो सकता है। छोटे दल: सौदेबाजी की ताकत बढ़ा सकते हैं निषाद, बिंद, राजभर और अन्य छोटी ओबीसी और दलित उप-जातियों पर केंद्रित छोटे दल इस जनगणना से सबसे अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। यदि इन समाज के लोगों की आबादी बढ़ती है, तो ये दल अधिक राजनीतिक प्रभाव हासिल कर सकते हैं और बड़े दलों के साथ गठबंधन में अपनी सौदेबाजी की ताकत बढ़ा सकते हैं। वहीं संख्या घटती है तो आपस में ही विवाद की संख्या बढ़ जाएगी और अपने-अपने वर्ग को बरगलाने की कोशिश भी शुरू हो जाएगी। नए जातिगत नेता उभरेंगे। सामाजिक और रिजर्वेशन पर क्या फर्क पड़ेगा आरक्षण नीतियों पर पड़ेगा असर यूपी में पहले से ही अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। मंडल आयोग (1990) ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी की आबादी 52% अनुमानित थी, जिसके आधार पर 27% आरक्षण लागू किया गया। यदि नई जनगणना में ओबीसी या अन्य समुदायों की आबादी इससे अधिक पाई जाती है, तो आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग जोर पकड़ सकती है। इससे 50% आरक्षण की संवैधानिक सीमा पर बहस छिड़ सकती है। अब उठेगी कोटे में कोटा की मांग राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जातीय जनगणना के बाद ओबीसी और पिछड़े वर्ग के आरक्षण में कोटे में कोटे की मांग उठेगी। बिहार में कोटे में कोटा व्यवस्था लागू है। केंद्र सरकार पहले ही कोटे में कोटा देने का निर्णय का निर्णय कर चुकी है। कोटे में कोटा देने से यादव, सैनी-शाक्य-मौर्य-कुशवाह, कुर्मी, लोध समाज को नुकसान हो सकता है। अभी तक पिछड़े वर्ग के आरक्षण का अधिकांश लाभ इन्हीं समाज के लोगों को मिल रहा है। कोटे में कोटा निर्धारित होने से इनका दायरा सीमित हो जाएगा। वहीं राजभर, निषाद, कश्यप, केवट, मल्लाह, बिंद, नाऊ, भर, कहार, मोमिन, अंसार, भुर्जी, दर्जी, लोहार जैसी अति पिछड़ी जातियों को भी फायदा होगा। तो जनसंख्या के आधार पर हो सकता है सीटों का नया परिसीमन 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी की जनसंख्या लगभग 19.98 करोड़ थी। अब आबादी 24 करोड़ के आसपास बताई जाती है। जनगणना के बाद सही तस्वीर सामने आएगी। इसके बाद परिसीमन में जनसंख्या के आधार पर लोकसभा और विधानसभा सीटों का पुनर्गठन होगा, जिससे यूपी में सीटें बढ़ भी सकती हैं। —————- ये खबर भी पढ़ें… नेपाल से सटे जिलों में मदरसों पर क्यों चला बुलडोजर:यहां 50% तक बढ़ी मुस्लिम आबादी; यूपी पुलिस की रिपोर्ट में घुसपैठ की बात नेपाल सीमा से सटे यूपी के जिलों में 25 से 27 अप्रैल के बीच बिना मान्यता वाले मदरसों और अवैध कब्जों पर बुलडोजर चलाया गया। बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, लखीमपुर खीरी और महराजगंज में चले अभियान में सैकड़ों अवैध कब्जे हटवाए गए। बिना मान्यता के मदरसों पर ताला लगवाया गया। पढ़ें पूरी खबर उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
यूपी में जातीय जनगणना से क्या असर:भाजपा ने कांग्रेस–सपा से मुद्दा छीना; कोटे में कोटे की मांग उठेगी, नए जातीय नेता उभरेंगे
