लड़कों को पीछे छोड़ने वाली पारुल ओलिंपिक मेडल से चूकीं:पिता साइकिल से 30 KM दूर स्टेडियम ले जाते; चने-सत्तू खाकर की प्रैक्टिस

लड़कों को पीछे छोड़ने वाली पारुल ओलिंपिक मेडल से चूकीं:पिता साइकिल से 30 KM दूर स्टेडियम ले जाते; चने-सत्तू खाकर की प्रैक्टिस

कभी गांव की चकरोड पर सुबह 3 बजे से दौड़ना…तो कभी भरी दोपहरी गन्ने के खेत में दौड़कर अंतरराष्ट्रीय एथलीट बनी पारुल चौधरी आज (2 अगस्त) पेरिस में ओलिंपिक के ट्रैक पर दौड़ेंगी। मेरठ के इकलौता गांव की पारुल चौधरी ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। पिता ने बताया- गांवों में लड़कों के साथ दौड़कर वो फर्स्ट आती थी। एक समय था, जब चना और सत्तू खाकर प्रैक्टिस करने जाती थी। शुक्रवार को ओलिंपिक में पहले 5000 मीटर में पदक से चुकी पारुल, पारुल का आज 5000 मीटर का क्वालीफाइंग राउंड था, जिसमें पारुल 14वें स्थान पर रहीं। कड़ी मेहनत के बाद भी क्लियर नहीं कर पाई। अब कल 3000 मीटर स्टेपल चेज प्रतियोगिता के क्वालीफाइंग राउंड में पारुल भाग लेंगी। स्टेपल चेज में उनसे पदक की उम्मीद की जा रही है। वो और बेहतर करेंगी। जो दोपहर 1.25 बजे होगा। दैनिक भास्कर की टीम इकलौता गांव में पारुल चौधरी के घर पहुंची और उनके माता-पिता से बात की। पिता बोले- संघर्षों से भरा रहा है सफर
पारुल के घर पर हमें उनके पिता कृष्णपाल मिले। बाहर चारपाई पर बैठे कृष्णपाल गांव के लोगों से बातें कर रहे थे। जब हमने उनसे पारुल के संघर्षों के बारे में पूछा तो कहने लगे- यहां तक पहुंचने के लिए पारुल ने गांव में रहकर जो मेहनत की, वो बयां नहीं कर सकता। वो रोजाना गांव इकलौता से मेरठ स्टेडियम तक 30 KM साइकिल चलाकर जाती। इसके बाद पढ़ाई भी करती। गांव के लोग कहते थे कि बेटी को लड़कों के साथ दौड़ा रहा है, लड़की को डीएम बनावेगा। लेकिन म्हारी बेटी ने अपनी मेहनत से साबित कर दिया की बेटी भी कम न होवे। आज हर बेटी ऐसे ही आगे बड़े नाम रोशन करे। बेटा-बेटी में कोई भेद हमने कभी नहीं किया। सुबह 3 बजे उठकर लगाती दौड़
पिता कृष्णपाल कहते हैं- पारुल ने जब प्रैक्टिस शुरू की थी, घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। मैंने सोचा नहीं था कि बेटी को खिलाड़ी बना पाएंगे। गांव में न खेल का मैदान है न स्टेडियम, इसलिए प्रैक्टिस करने की जगह नहीं मिली। बेटी सुबह 3 बजे उठकर खेतों के चकरोड पर जाकर दौड़ती थी। हजारों बार गिरी और उठी, लेकिन उसने दौड़ना बंद नहीं किया। मैं किसान हूं ज्यादा खर्चा नहीं कर सकता था
कृष्णपाल आगे कहते हैं- मैं साधारण किसान हूं ज्यादा पैसे भी खर्च नहीं कर सकता था। घर में एक गाय थी, उसी का दूध पीकर पारुल बड़ी हुई। उसकी बड़ी बहन प्रीति भी ऐसे ही खिलाड़ी है। दोनों बहनों ने बहुत मेहनत की है। बस मैंने कभी बेटा-बेटी में भेद नहीं किया। पारुल ने कैलाश प्रकाश स्टेडियम मेरठ में कोच गौरव त्यागी के अंडर में लगातार अभ्यास किया। कोच गौरव के निर्देशन में ही पारुल लगातार अच्छा प्रदर्शन करती जा रही हैं। मां बोलीं- चने की रोटी, सत्तू खाकर प्रैक्टिस करती थी पारुल की मां राजेश देवी से जब भी हमारी बातचीत हुई। वह कहती हैं- बेटी को चने की रोटी और सत्तू खिलाकर खिलाड़ी बनाया है। हम किसान हैं, इतनी इनकम नहीं कि बच्चों को महंगी डाइट दे सकते। तो यही चूल्हे की रोटी खिलाती और गाय का दूध पिलाती थी। एक बार पारुल ने स्कूल में लड़कों के साथ दौड़ लगाई और जीत गई, तो उसके मास्टरजी ने कहा ये उड़नपरी है। इसे प्रैक्टिस कराओ। बस उसी दिन से उसके मन में चुभ गया कि दौड़ना है। साइकिल से स्टेडियम लेकर जाते थे पिता
मां कहती हैं- खेल के हिसाब से दौड़ने के लिए जगह की जरूरत थी। गांव से मेरठ कैलाश प्रकाश स्टेडियम 30 किमी दूर है। वहां जाने का साधन नहीं था। अकेली बेटी को कैसे भेजती? घर में इतने पैसे नहीं कि इसे स्कूटी या साइकिल खरीदकर दे पाते। इसके पिताजी रोजाना बेटी को साइकिल पर बैठाकर स्टेडियम ले जाते। कभी आधे रास्ते तक ऑटो से जाती, तो कभी साइकिल से आती-जाती थी। सर्दियों में रात 8 बजे तक घर पहुंचती। सुबह 3 बजे से फिर दौड़ने के लिए निकल जाती। मां ने कहा- अगर बेटी को गांव में ही प्रैक्टिस का मैदान, अच्छे संसाधन मिलते तो वह बहुत पहले ही देश को गोल्ड दिला सकती थी। लेकिन संसाधनों के अभाव में इस मेडल तक पहुंचने में काफी समय लग गया। कृष्णपाल किसान हैं। उनका बड़ा बेटा राहुल दीवान टायर फैक्ट्री में मैनेजर है। दूसरे नंबर की बेटी प्रीति CISF में स्पोर्ट्स कोटे से दरोगा है। तीसरे नंबर की पारुल चौधरी हैं। वह रेलवे में TTE हैं। चौथे नंबर का बेटा रोहित यूपी पुलिस में है। पारुल और प्रीति ने भराला गांव स्थित बीपी इंटर कॉलेज से 10वीं और इंटर की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद मेरठ कॉलेज मेरठ से ग्रेजुएशन की। पटियाला पहुंचकर यूनिवर्सिटी टॉपर रही। कभी गांव की चकरोड पर सुबह 3 बजे से दौड़ना…तो कभी भरी दोपहरी गन्ने के खेत में दौड़कर अंतरराष्ट्रीय एथलीट बनी पारुल चौधरी आज (2 अगस्त) पेरिस में ओलिंपिक के ट्रैक पर दौड़ेंगी। मेरठ के इकलौता गांव की पारुल चौधरी ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। पिता ने बताया- गांवों में लड़कों के साथ दौड़कर वो फर्स्ट आती थी। एक समय था, जब चना और सत्तू खाकर प्रैक्टिस करने जाती थी। शुक्रवार को ओलिंपिक में पहले 5000 मीटर में पदक से चुकी पारुल, पारुल का आज 5000 मीटर का क्वालीफाइंग राउंड था, जिसमें पारुल 14वें स्थान पर रहीं। कड़ी मेहनत के बाद भी क्लियर नहीं कर पाई। अब कल 3000 मीटर स्टेपल चेज प्रतियोगिता के क्वालीफाइंग राउंड में पारुल भाग लेंगी। स्टेपल चेज में उनसे पदक की उम्मीद की जा रही है। वो और बेहतर करेंगी। जो दोपहर 1.25 बजे होगा। दैनिक भास्कर की टीम इकलौता गांव में पारुल चौधरी के घर पहुंची और उनके माता-पिता से बात की। पिता बोले- संघर्षों से भरा रहा है सफर
पारुल के घर पर हमें उनके पिता कृष्णपाल मिले। बाहर चारपाई पर बैठे कृष्णपाल गांव के लोगों से बातें कर रहे थे। जब हमने उनसे पारुल के संघर्षों के बारे में पूछा तो कहने लगे- यहां तक पहुंचने के लिए पारुल ने गांव में रहकर जो मेहनत की, वो बयां नहीं कर सकता। वो रोजाना गांव इकलौता से मेरठ स्टेडियम तक 30 KM साइकिल चलाकर जाती। इसके बाद पढ़ाई भी करती। गांव के लोग कहते थे कि बेटी को लड़कों के साथ दौड़ा रहा है, लड़की को डीएम बनावेगा। लेकिन म्हारी बेटी ने अपनी मेहनत से साबित कर दिया की बेटी भी कम न होवे। आज हर बेटी ऐसे ही आगे बड़े नाम रोशन करे। बेटा-बेटी में कोई भेद हमने कभी नहीं किया। सुबह 3 बजे उठकर लगाती दौड़
पिता कृष्णपाल कहते हैं- पारुल ने जब प्रैक्टिस शुरू की थी, घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। मैंने सोचा नहीं था कि बेटी को खिलाड़ी बना पाएंगे। गांव में न खेल का मैदान है न स्टेडियम, इसलिए प्रैक्टिस करने की जगह नहीं मिली। बेटी सुबह 3 बजे उठकर खेतों के चकरोड पर जाकर दौड़ती थी। हजारों बार गिरी और उठी, लेकिन उसने दौड़ना बंद नहीं किया। मैं किसान हूं ज्यादा खर्चा नहीं कर सकता था
कृष्णपाल आगे कहते हैं- मैं साधारण किसान हूं ज्यादा पैसे भी खर्च नहीं कर सकता था। घर में एक गाय थी, उसी का दूध पीकर पारुल बड़ी हुई। उसकी बड़ी बहन प्रीति भी ऐसे ही खिलाड़ी है। दोनों बहनों ने बहुत मेहनत की है। बस मैंने कभी बेटा-बेटी में भेद नहीं किया। पारुल ने कैलाश प्रकाश स्टेडियम मेरठ में कोच गौरव त्यागी के अंडर में लगातार अभ्यास किया। कोच गौरव के निर्देशन में ही पारुल लगातार अच्छा प्रदर्शन करती जा रही हैं। मां बोलीं- चने की रोटी, सत्तू खाकर प्रैक्टिस करती थी पारुल की मां राजेश देवी से जब भी हमारी बातचीत हुई। वह कहती हैं- बेटी को चने की रोटी और सत्तू खिलाकर खिलाड़ी बनाया है। हम किसान हैं, इतनी इनकम नहीं कि बच्चों को महंगी डाइट दे सकते। तो यही चूल्हे की रोटी खिलाती और गाय का दूध पिलाती थी। एक बार पारुल ने स्कूल में लड़कों के साथ दौड़ लगाई और जीत गई, तो उसके मास्टरजी ने कहा ये उड़नपरी है। इसे प्रैक्टिस कराओ। बस उसी दिन से उसके मन में चुभ गया कि दौड़ना है। साइकिल से स्टेडियम लेकर जाते थे पिता
मां कहती हैं- खेल के हिसाब से दौड़ने के लिए जगह की जरूरत थी। गांव से मेरठ कैलाश प्रकाश स्टेडियम 30 किमी दूर है। वहां जाने का साधन नहीं था। अकेली बेटी को कैसे भेजती? घर में इतने पैसे नहीं कि इसे स्कूटी या साइकिल खरीदकर दे पाते। इसके पिताजी रोजाना बेटी को साइकिल पर बैठाकर स्टेडियम ले जाते। कभी आधे रास्ते तक ऑटो से जाती, तो कभी साइकिल से आती-जाती थी। सर्दियों में रात 8 बजे तक घर पहुंचती। सुबह 3 बजे से फिर दौड़ने के लिए निकल जाती। मां ने कहा- अगर बेटी को गांव में ही प्रैक्टिस का मैदान, अच्छे संसाधन मिलते तो वह बहुत पहले ही देश को गोल्ड दिला सकती थी। लेकिन संसाधनों के अभाव में इस मेडल तक पहुंचने में काफी समय लग गया। कृष्णपाल किसान हैं। उनका बड़ा बेटा राहुल दीवान टायर फैक्ट्री में मैनेजर है। दूसरे नंबर की बेटी प्रीति CISF में स्पोर्ट्स कोटे से दरोगा है। तीसरे नंबर की पारुल चौधरी हैं। वह रेलवे में TTE हैं। चौथे नंबर का बेटा रोहित यूपी पुलिस में है। पारुल और प्रीति ने भराला गांव स्थित बीपी इंटर कॉलेज से 10वीं और इंटर की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद मेरठ कॉलेज मेरठ से ग्रेजुएशन की। पटियाला पहुंचकर यूनिवर्सिटी टॉपर रही।   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर