मायावती राजनीति में मंझी हुई खिलाड़ी हैं। उनके अब तक के फैसलों और कार्यशैली पर नजर डालें तो मायावती सड़क पर संघर्ष करने की जगह जातीय और सियासी समीकरण पर ज्यादा विश्वास रखती हैं। उन्होंने राज्यसभा सांसद रामजी गौतम और रणधीर बेनीवाल को नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाकर इस बार दलित-जाट की सोशल इंजीनियरिंग का दांव चला है। 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के बलबूते ही बसपा यूपी की सत्ता में पूर्ण बहुमत से आई थी। हाल के दिनों में पार्टी में हुए उलट-फेर के बाद एक बार फिर मायावती की कार्यशैली चर्चा में है। पार्टी में नेशनल कोऑर्डिनेटर रहे भतीजे आकाश आनंद को पहले पद और फिर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इससे पहले उन्होंने आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ काे भी पार्टी से बाहर कर साबित कर दिया कि पार्टी में वही ‘सुप्रीमो’ हैं। सवाल ये हैं कि आखिर मायावती इस तरह के फैसले क्यों ले रही हैं? 70 बरस की मायावती के बाद दलित राजनीति, खासकर बसपा का वारिस कौन होगा? आकाश आनंद के सामने अब कौन सा रास्ता बचा है? पढ़िए ये रिपोर्ट… मायावती के हालिया निर्णय से 3 संदेश निकले एक झटके में परिवारवाद के आरोपों को धराशायी किया
राजनीतिक चिंतकों का मानना है कि मायावती ने जिस तरह से भतीजे आकाश आनंद को आगे बढ़ाया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, इससे उन पर परिवारवाद के आरोप लगने लगे थे। यहां तक कि आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ के बेटे की शादी में पार्टी के तमाम बड़े नेता और अलग-अलग प्रदेश के लोग पहुंचे थे। इससे भी साफ संदेश गया था कि अब पार्टी में परिवारवाद हावी है। दलित राजनीति पर नजर रखने वाले दिल्ली के एक प्रोफेसर से हमने इस बारे में बात की। वह कहते हैं- मायावती के हाल के फैसले ने साफ कर दिया कि बसपा में 1 से हजार नंबर तक वही सुप्रीमो हैं। उन्होंने एक झटके में परिवारवाद के आरोपों को धराशायी कर दिया। उनके फैसले पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, इससे साफ है कि इस गिरती हुई हालत में भी बसपा की प्रासंगिकता बनी है। आने वाले चुनाव में वह अब भी प्रभाव डालने की हैसियत में हैं। पार्टी में किसका कद कितना बड़ा होगा, ये हमेशा से बसपा में मायावती ही तय करती रही हैं। कैडर उसी के मुताबिक फैसले का पालन भी करता है। मायावती के करीबी रहे यूपी सरकार के एक पूर्व मंत्री कहते हैं- वे हमेशा से चौंकाने वाले फैसले लेती रही हैं। आज भाजपा या सपा में ओबीसी समाज के जो गैर-यादव चेहरे दिखते हैं, वो कभी मायावती के खास हुआ करते थे। बसपा का टिकट मिलना जीत की गारंटी हुआ करती थी। हर नेता को उन्होंने अचानक पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है। मायावती का आज भले ही जनाधार कम हुआ हो, लेकिन तेवर वही पुराने हैं। पार्टी में उनके वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता। क्या मायावती किसी को वारिस घोषित करेंगी?
जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं- अभी मायावती को रिप्लेसमेंट करने की कोई सोच भी नहीं सकता। मायावती ने भी कांशीराम की तरह बसपा को सींचा है। उन्होंने ग्रास-रूट से राजनीति शुरू की थी। वो भी टूटी चप्पल पहनकर चली हैं, पुआल पर सोई हैं। उन्होंने जिस समाज से आकर अपनी लीगेसी को बनाया है, वो कोई सोच भी नहीं सकता। कांशीराम भी 72 साल की उम्र में जब बीमार हुए, तब उन्होंने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। मायावती भले ही 70 साल की हैं, लेकिन अभी स्वस्थ हैं। 2 मार्च को वह लगातार 4 घंटे तक बोलती रहीं। इसके बाद राज्यवार समीक्षा भी की। वे अभी नेताओं को ‘टेस्ट’ करते हुए इसी तरह फैसले लेंगी। देश में आज जितने भी दलित समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भर रहे हैं, सभी किसी न किसी विचारधारा से बंधे हुए हैं। बसपा में आज भी दलित ही केंद्र में हैं। बसपा का उद्देश्य है कि किसी भी प्रकार आत्मनिर्भर दलित राजनीति को जिंदा रखा जाए। इसके लिए मायावती को जो भी कदम उठाने हैं, वो उठा रही हैं। इस बार जाट-दलित का नया दांव
मायावती ने भतीजे आकाश के बाद भाई आनंद कुमार को नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाया था। लेकिन, अगले ही दिन आनंद कुमार के कहने पर उन्होंने यह जिम्मेदारी वापस ले ली। अब पश्चिमी यूपी के सहारनपुर जिले के रहने वाले रणधीर बेनीवाल को यह जिम्मेदारी सौंपी है। अब पार्टी में दो नेशनल कोऑर्डिनेटर हैं। राज्यसभा सांसद रामजी गौतम लखीमपुर खीरी के रहने वाले हैं और दलित समाज से आते हैं। रणधीर बेनीवाल जाट समाज से आते हैं। रणधीर बेनीवाल का राजनीतिक सफर बसपा के साथ लंबे समय से जुड़ा रहा है। उन्होंने संगठनात्मक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह यूपी में बसपा के लिए जमीनी स्तर पर काम करते रहे हैं, खासकर जाट बहुल क्षेत्रों में सक्रिय रहे हैं। जानकार कहते हैं- मायावती के दलित वोटबैंक में जाटव उनका कोर वोटबैंक रहा है। पश्चिमी यूपी में जाटव आबादी अधिक है। इसी तरह जाट भी निर्णायक संख्या में हैं। मायावती इस बार जाट-दलित की सोशल इंजीनियरिंग को आजमाने की कोशिश में हैं। मायावती ने रमजान के बहाने अल्पसंख्यकों को लेकर प्रदेश और केंद्र सरकार को निशाने पर लिया है। इससे भी साफ है कि अल्पसंख्यकों को वह एक बार फिर पार्टी के करीब लाना चाहती हैं। पार्टी के पास महासचिव सतीश मिश्रा के तौर पर ब्राह्मण चेहरा पहले से है। इसी सोशल इंजीनियरिंग के बलबूते बसपा इस बार 2027 के विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी में है। 2022 के विधानसभा चुनाव में जब पार्टी का एक ही विधायक जीता था, तब भी उनके पास पूरे प्रदेश में 9.50 फीसदी के लगभग वोटबैंक रहा। खबर में आगे बढ़ने से पहले बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीति समझिए
कांशीराम की बसपा का गठन बिल्कुल अलग था। बसपा के कामकाज का तरीका अन्य सियासी पार्टियों से बिल्कुल अलग है। कांशीराम ने ऐसा मैकेनिज्म तैयार किया था, जिसके तहत यह पार्टी न तो सड़क पर होती है न ही मीडिया की चर्चाओं में रहती है। लेकिन, इस पार्टी का कैडर अंदर ही अंदर काम करता रहता है। बिल्कुल राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (RSS) की तरह। यही वजह है कि जब बसपा 2007 में सत्ता में आई, तो किसी को अंदाजा भी नहीं था कि इस पार्टी की इतनी सीटें आ जाएंगी। क्या बसपा में पारिवारिक राजनीति खत्म? आकाश का क्या होगा?
मायावती का कहना है कि पार्टी उनके लिए परिवार से ऊपर है। आकाश आनंद और उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ से राजनीतिक खींचतान भी इस फैसले की बड़ी वजह बताई जा रही है। हालांकि, आनंद कुमार (आकाश के पिता) को संगठन में बड़ी जिम्मेदारी देना इस बात का संकेत है कि भविष्य में आकाश की वापसी संभव हो सकती है। बसपा की सियासत अभी भी मायावती के मजबूत नियंत्रण में है। आकाश आनंद की विदाई फिलहाल अस्थायी हो सकती है। लेकिन, बसपा के लिए दलित युवाओं को जोड़ने की चुनौती बनी रहेगी। प्रो. विवेक कुमार कहते हैं- मुझे लगता है कि आकाश आनंद कहीं नहीं जाएंगे। मायावती ने वैसे भी उन्हें दायित्व देते समय कहा था कि उन्हें कोई चुनाव नहीं लड़ाएंगी। पिता अब भी पार्टी में उपाध्यक्ष हैं। बसपा में खुद मायावती ने ही उनका कद बढ़ाया था। उनकी पहचान भी बनी। अलग होकर या किसी दूसरी पार्टी में जाकर वो अपनी खुद की पहचान कभी भी स्थापित नहीं कर पाएंगे। अभी उनके पास लंबा वक्त है। मायावती 6 भाई और दो बहनें
बसपा चीफ मायावती का जन्म 15 जनवरी, 1956 को गौतमबुद्ध नगर के दादरी के बादलपुर में दलित जाटव परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रभुदास था, जो गौतमबुद्ध नगर में सरकारी कर्मचारी थे। माता का नाम रामरती था। मायावती 6 भाई और दो बहनें थीं। आनंद कुमार, मायावती के सबसे छोटे भाई हैं। वह पहले क्लर्क की नौकरी करते थे। बाद में नौकरी छोड़कर खुद का कारोबार शुरू कर दिया। मायावती ने साल 1975 में दिल्ली के कालिंदी कॉलेज से एलएलबी की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने गाजियाबाद से बीएड की डिग्री हासिल की। फिर इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक बतौर टीचर काम किया। साल 1977 में मायावती कांशीराम से मिलीं। इसके बाद कांशीराम उनसे मिलने घर आए। बस इसी के बाद से मायावती की राजनीति में एंट्री हो गई। क्या मायावती किसी दबाव में निर्णय ले रही हैं?
दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यक एवं आदिवासी (DOMA) परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष उदित राज कहते हैं- आकाश आनंद को दो बार समन्वयक बनाना और फिर हटाना यह दिखाता है कि बसपा पर भाजपा का कंट्रोल है। वह दावा करते हैं कि मायावती बिना दबाव के ऐसा आत्मघाती कदम नहीं उठातीं। आकाश आनंद ने कहा था कि विधानसभा चुनाव 2027 में कांग्रेस-सपा के साथ गठबंधन होना चाहिए, नहीं तो हम शून्य रहेंगे। इससे भाजपा अंदर ही अंदर परेशान है।
उदित सवाल करते हैं कि क्या यह सच नहीं कि 2022 के यूपी चुनाव के दौरान मायावती ने कहा था कि सपा नहीं जीतना चाहिए, भले ही भाजपा जीत जाए। क्या यह सच नहीं कि लोकसभा चुनाव के दौरान जब आकाश आनंद ने भाजपा के खिलाफ आक्रामक भाषण दिया था, तो उन्हें 24 घंटे के अंदर ही राष्ट्रीय समन्वयक पद से हटा दिया गया था। बसपा में पिछले 20 साल में सतीश मिश्रा को छोड़कर कोई ऐसा नेता नहीं, जो प्रेस से बात करने के लिए अधिकृत हो, ऐसा क्यों है? क्या सतीश मिश्रा ही एकमात्र आंबेडकरवादी बचे हैं? इस सवाल के जवाब में राजनीतिक विशेषज्ञ प्रो. रविकांत देते हुए कहते हैं- बसपा दलित मूवमेंट से पैदा हुई पार्टी है। देश में दलित राजनीति कभी विरासत की राजनीति नहीं रही है। अंबेडकर की विरासत को देखेंगे तो कोई उनके परिवार का नहीं आया। 2027 चुनाव से पहले राजनीतिक विरासत से मुक्त हो जाना बसपा के लिए फायदेमंद हाेगा। जब सार्वजनिक जीवन में हैं, तो पारिवारिक मुद्दे पीछे होना चाहिए। अगर मायावती दबाव में होतीं तो जब उनके लोकसभा में 10 सांसद थे, तो केंद्र की सरकार में आराम से मंत्री के 2 पद लेकर शामिल हो सकती थीं। —————————- ये खबर भी पढ़ें… मायावती ने भतीजे आकाश से उत्तराधिकार छीना, एक साल में दूसरी बार सभी पद से हटाया; बोलीं- जीते-जी किसी को जिम्मेदारी नहीं दूंगी बसपा प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद से सभी जिम्मेदारियां छीन ली हैं। एक साल में दूसरी बार आकाश आनंद को उत्तराधिकारी और नेशनल कोऑर्डिनेटर पद से हटा दिया है। उन्होंने कहा- जीते-जी किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं करूंगी। पढ़ें पूरी खबर मायावती राजनीति में मंझी हुई खिलाड़ी हैं। उनके अब तक के फैसलों और कार्यशैली पर नजर डालें तो मायावती सड़क पर संघर्ष करने की जगह जातीय और सियासी समीकरण पर ज्यादा विश्वास रखती हैं। उन्होंने राज्यसभा सांसद रामजी गौतम और रणधीर बेनीवाल को नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाकर इस बार दलित-जाट की सोशल इंजीनियरिंग का दांव चला है। 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के बलबूते ही बसपा यूपी की सत्ता में पूर्ण बहुमत से आई थी। हाल के दिनों में पार्टी में हुए उलट-फेर के बाद एक बार फिर मायावती की कार्यशैली चर्चा में है। पार्टी में नेशनल कोऑर्डिनेटर रहे भतीजे आकाश आनंद को पहले पद और फिर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इससे पहले उन्होंने आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ काे भी पार्टी से बाहर कर साबित कर दिया कि पार्टी में वही ‘सुप्रीमो’ हैं। सवाल ये हैं कि आखिर मायावती इस तरह के फैसले क्यों ले रही हैं? 70 बरस की मायावती के बाद दलित राजनीति, खासकर बसपा का वारिस कौन होगा? आकाश आनंद के सामने अब कौन सा रास्ता बचा है? पढ़िए ये रिपोर्ट… मायावती के हालिया निर्णय से 3 संदेश निकले एक झटके में परिवारवाद के आरोपों को धराशायी किया
राजनीतिक चिंतकों का मानना है कि मायावती ने जिस तरह से भतीजे आकाश आनंद को आगे बढ़ाया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, इससे उन पर परिवारवाद के आरोप लगने लगे थे। यहां तक कि आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ के बेटे की शादी में पार्टी के तमाम बड़े नेता और अलग-अलग प्रदेश के लोग पहुंचे थे। इससे भी साफ संदेश गया था कि अब पार्टी में परिवारवाद हावी है। दलित राजनीति पर नजर रखने वाले दिल्ली के एक प्रोफेसर से हमने इस बारे में बात की। वह कहते हैं- मायावती के हाल के फैसले ने साफ कर दिया कि बसपा में 1 से हजार नंबर तक वही सुप्रीमो हैं। उन्होंने एक झटके में परिवारवाद के आरोपों को धराशायी कर दिया। उनके फैसले पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, इससे साफ है कि इस गिरती हुई हालत में भी बसपा की प्रासंगिकता बनी है। आने वाले चुनाव में वह अब भी प्रभाव डालने की हैसियत में हैं। पार्टी में किसका कद कितना बड़ा होगा, ये हमेशा से बसपा में मायावती ही तय करती रही हैं। कैडर उसी के मुताबिक फैसले का पालन भी करता है। मायावती के करीबी रहे यूपी सरकार के एक पूर्व मंत्री कहते हैं- वे हमेशा से चौंकाने वाले फैसले लेती रही हैं। आज भाजपा या सपा में ओबीसी समाज के जो गैर-यादव चेहरे दिखते हैं, वो कभी मायावती के खास हुआ करते थे। बसपा का टिकट मिलना जीत की गारंटी हुआ करती थी। हर नेता को उन्होंने अचानक पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है। मायावती का आज भले ही जनाधार कम हुआ हो, लेकिन तेवर वही पुराने हैं। पार्टी में उनके वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता। क्या मायावती किसी को वारिस घोषित करेंगी?
जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं- अभी मायावती को रिप्लेसमेंट करने की कोई सोच भी नहीं सकता। मायावती ने भी कांशीराम की तरह बसपा को सींचा है। उन्होंने ग्रास-रूट से राजनीति शुरू की थी। वो भी टूटी चप्पल पहनकर चली हैं, पुआल पर सोई हैं। उन्होंने जिस समाज से आकर अपनी लीगेसी को बनाया है, वो कोई सोच भी नहीं सकता। कांशीराम भी 72 साल की उम्र में जब बीमार हुए, तब उन्होंने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। मायावती भले ही 70 साल की हैं, लेकिन अभी स्वस्थ हैं। 2 मार्च को वह लगातार 4 घंटे तक बोलती रहीं। इसके बाद राज्यवार समीक्षा भी की। वे अभी नेताओं को ‘टेस्ट’ करते हुए इसी तरह फैसले लेंगी। देश में आज जितने भी दलित समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भर रहे हैं, सभी किसी न किसी विचारधारा से बंधे हुए हैं। बसपा में आज भी दलित ही केंद्र में हैं। बसपा का उद्देश्य है कि किसी भी प्रकार आत्मनिर्भर दलित राजनीति को जिंदा रखा जाए। इसके लिए मायावती को जो भी कदम उठाने हैं, वो उठा रही हैं। इस बार जाट-दलित का नया दांव
मायावती ने भतीजे आकाश के बाद भाई आनंद कुमार को नेशनल कोऑर्डिनेटर बनाया था। लेकिन, अगले ही दिन आनंद कुमार के कहने पर उन्होंने यह जिम्मेदारी वापस ले ली। अब पश्चिमी यूपी के सहारनपुर जिले के रहने वाले रणधीर बेनीवाल को यह जिम्मेदारी सौंपी है। अब पार्टी में दो नेशनल कोऑर्डिनेटर हैं। राज्यसभा सांसद रामजी गौतम लखीमपुर खीरी के रहने वाले हैं और दलित समाज से आते हैं। रणधीर बेनीवाल जाट समाज से आते हैं। रणधीर बेनीवाल का राजनीतिक सफर बसपा के साथ लंबे समय से जुड़ा रहा है। उन्होंने संगठनात्मक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह यूपी में बसपा के लिए जमीनी स्तर पर काम करते रहे हैं, खासकर जाट बहुल क्षेत्रों में सक्रिय रहे हैं। जानकार कहते हैं- मायावती के दलित वोटबैंक में जाटव उनका कोर वोटबैंक रहा है। पश्चिमी यूपी में जाटव आबादी अधिक है। इसी तरह जाट भी निर्णायक संख्या में हैं। मायावती इस बार जाट-दलित की सोशल इंजीनियरिंग को आजमाने की कोशिश में हैं। मायावती ने रमजान के बहाने अल्पसंख्यकों को लेकर प्रदेश और केंद्र सरकार को निशाने पर लिया है। इससे भी साफ है कि अल्पसंख्यकों को वह एक बार फिर पार्टी के करीब लाना चाहती हैं। पार्टी के पास महासचिव सतीश मिश्रा के तौर पर ब्राह्मण चेहरा पहले से है। इसी सोशल इंजीनियरिंग के बलबूते बसपा इस बार 2027 के विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी में है। 2022 के विधानसभा चुनाव में जब पार्टी का एक ही विधायक जीता था, तब भी उनके पास पूरे प्रदेश में 9.50 फीसदी के लगभग वोटबैंक रहा। खबर में आगे बढ़ने से पहले बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीति समझिए
कांशीराम की बसपा का गठन बिल्कुल अलग था। बसपा के कामकाज का तरीका अन्य सियासी पार्टियों से बिल्कुल अलग है। कांशीराम ने ऐसा मैकेनिज्म तैयार किया था, जिसके तहत यह पार्टी न तो सड़क पर होती है न ही मीडिया की चर्चाओं में रहती है। लेकिन, इस पार्टी का कैडर अंदर ही अंदर काम करता रहता है। बिल्कुल राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (RSS) की तरह। यही वजह है कि जब बसपा 2007 में सत्ता में आई, तो किसी को अंदाजा भी नहीं था कि इस पार्टी की इतनी सीटें आ जाएंगी। क्या बसपा में पारिवारिक राजनीति खत्म? आकाश का क्या होगा?
मायावती का कहना है कि पार्टी उनके लिए परिवार से ऊपर है। आकाश आनंद और उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ से राजनीतिक खींचतान भी इस फैसले की बड़ी वजह बताई जा रही है। हालांकि, आनंद कुमार (आकाश के पिता) को संगठन में बड़ी जिम्मेदारी देना इस बात का संकेत है कि भविष्य में आकाश की वापसी संभव हो सकती है। बसपा की सियासत अभी भी मायावती के मजबूत नियंत्रण में है। आकाश आनंद की विदाई फिलहाल अस्थायी हो सकती है। लेकिन, बसपा के लिए दलित युवाओं को जोड़ने की चुनौती बनी रहेगी। प्रो. विवेक कुमार कहते हैं- मुझे लगता है कि आकाश आनंद कहीं नहीं जाएंगे। मायावती ने वैसे भी उन्हें दायित्व देते समय कहा था कि उन्हें कोई चुनाव नहीं लड़ाएंगी। पिता अब भी पार्टी में उपाध्यक्ष हैं। बसपा में खुद मायावती ने ही उनका कद बढ़ाया था। उनकी पहचान भी बनी। अलग होकर या किसी दूसरी पार्टी में जाकर वो अपनी खुद की पहचान कभी भी स्थापित नहीं कर पाएंगे। अभी उनके पास लंबा वक्त है। मायावती 6 भाई और दो बहनें
बसपा चीफ मायावती का जन्म 15 जनवरी, 1956 को गौतमबुद्ध नगर के दादरी के बादलपुर में दलित जाटव परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रभुदास था, जो गौतमबुद्ध नगर में सरकारी कर्मचारी थे। माता का नाम रामरती था। मायावती 6 भाई और दो बहनें थीं। आनंद कुमार, मायावती के सबसे छोटे भाई हैं। वह पहले क्लर्क की नौकरी करते थे। बाद में नौकरी छोड़कर खुद का कारोबार शुरू कर दिया। मायावती ने साल 1975 में दिल्ली के कालिंदी कॉलेज से एलएलबी की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने गाजियाबाद से बीएड की डिग्री हासिल की। फिर इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक बतौर टीचर काम किया। साल 1977 में मायावती कांशीराम से मिलीं। इसके बाद कांशीराम उनसे मिलने घर आए। बस इसी के बाद से मायावती की राजनीति में एंट्री हो गई। क्या मायावती किसी दबाव में निर्णय ले रही हैं?
दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यक एवं आदिवासी (DOMA) परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष उदित राज कहते हैं- आकाश आनंद को दो बार समन्वयक बनाना और फिर हटाना यह दिखाता है कि बसपा पर भाजपा का कंट्रोल है। वह दावा करते हैं कि मायावती बिना दबाव के ऐसा आत्मघाती कदम नहीं उठातीं। आकाश आनंद ने कहा था कि विधानसभा चुनाव 2027 में कांग्रेस-सपा के साथ गठबंधन होना चाहिए, नहीं तो हम शून्य रहेंगे। इससे भाजपा अंदर ही अंदर परेशान है।
उदित सवाल करते हैं कि क्या यह सच नहीं कि 2022 के यूपी चुनाव के दौरान मायावती ने कहा था कि सपा नहीं जीतना चाहिए, भले ही भाजपा जीत जाए। क्या यह सच नहीं कि लोकसभा चुनाव के दौरान जब आकाश आनंद ने भाजपा के खिलाफ आक्रामक भाषण दिया था, तो उन्हें 24 घंटे के अंदर ही राष्ट्रीय समन्वयक पद से हटा दिया गया था। बसपा में पिछले 20 साल में सतीश मिश्रा को छोड़कर कोई ऐसा नेता नहीं, जो प्रेस से बात करने के लिए अधिकृत हो, ऐसा क्यों है? क्या सतीश मिश्रा ही एकमात्र आंबेडकरवादी बचे हैं? इस सवाल के जवाब में राजनीतिक विशेषज्ञ प्रो. रविकांत देते हुए कहते हैं- बसपा दलित मूवमेंट से पैदा हुई पार्टी है। देश में दलित राजनीति कभी विरासत की राजनीति नहीं रही है। अंबेडकर की विरासत को देखेंगे तो कोई उनके परिवार का नहीं आया। 2027 चुनाव से पहले राजनीतिक विरासत से मुक्त हो जाना बसपा के लिए फायदेमंद हाेगा। जब सार्वजनिक जीवन में हैं, तो पारिवारिक मुद्दे पीछे होना चाहिए। अगर मायावती दबाव में होतीं तो जब उनके लोकसभा में 10 सांसद थे, तो केंद्र की सरकार में आराम से मंत्री के 2 पद लेकर शामिल हो सकती थीं। —————————- ये खबर भी पढ़ें… मायावती ने भतीजे आकाश से उत्तराधिकार छीना, एक साल में दूसरी बार सभी पद से हटाया; बोलीं- जीते-जी किसी को जिम्मेदारी नहीं दूंगी बसपा प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद से सभी जिम्मेदारियां छीन ली हैं। एक साल में दूसरी बार आकाश आनंद को उत्तराधिकारी और नेशनल कोऑर्डिनेटर पद से हटा दिया है। उन्होंने कहा- जीते-जी किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं करूंगी। पढ़ें पूरी खबर उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
बसपा को पुराने फॉर्म में लाने की तैयारी में मायावती:भतीजे को निकाला, भाई को साथ रखा; बताया- पार्टी में उनसे ऊपर कोई नहीं
