UP Politics: दशकों पुराने रास्ते पर चल सकती हैं मायावती, विधानसभा चुनाव से पहले इस संगठन में फूकेंगी जान

UP Politics: दशकों पुराने रास्ते पर चल सकती हैं मायावती, विधानसभा चुनाव से पहले इस संगठन में फूकेंगी जान

<p style=”text-align: justify;”><strong>UP Politics:</strong> उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2027 में होना है. इसके लिए राज्य में सत्ताधारी पार्टी समेत विपक्षी पार्टियां भी चुनाव की तैयारियों में जुट गई है. वहीं 2022 के चुनाव में केवल एक सीट हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव की तैयारी में जुट गई है. पार्टी सभी दलों को साथ लेकर चलना चाहती है, इसलिए अपने पुराने फार्मूले के आधार पर रणनीति बनाने में लगी हुई है. वहीं बसपा अपने आप को कमजोर पड़ती देख बामसेफ को पुनर्गठित करने की कोशिश कर रही है.&nbsp;</p>
<p style=”text-align: justify;”>लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं दलित चिंतक रविकांत के मुताबिक बामसेफ का दोबारा पुनर्गठन करने की बसपा की कवायद सिर्फ जाटव वोट बैंक पर कब्जा बरकरार रखना है. बसपा का संगठन पूरी तरह से खात्मे की ओर है, उसके जाटव वोट पर भी आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) का दखल बढ़ता जा रहा है. आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर का सांसद बनना बसपा के लिए खतरे की घंटी बन चुका है.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>1978 में बामसेफ की हुई थी स्थापना</strong><br />दलित कर्मचारियों को एकजुट करने के लिए 1978 में बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज इंप्लाई फेडरेशन) की स्थापना का मकसद राजनीति में आना नहीं था. लेकिन बदलते दौर में यह संगठन अब बसपा का वजूद बचाने की मजबूरी बन गया है. बसपा को यूपी समेत कई प्रदेशों में दलित वोट बैंक पर पकड़ कमजोर पड़ती देख बामसेफ की याद आई है. इसलिए अब इसका पुनर्गठन करने की जरूरत महसूस की जा रही है.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>बसपा में वामसेफ का अब कोई अस्तित्व नहीं&nbsp;</strong><br />पार्टी के कुछ पदाधिकारी बामसेफ का हर जिले में संगठन होने का दावा करते हैं, तो कुछ इसके वजूद पर ही सवाल उठा रहे हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के मुताबिक बसपा में बामसेफ का अब कोई अस्तित्व नहीं है. ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि दशकों बाद इसका पुनर्गठन कैसे होगा. वर्तमान में बामसेफ कई धड़ों में बंटा है बसपा जिस बामसेफ को अपना बताती है. उसका कोई संगठन ही नहीं है, इसे कभी पंजीकृत भी नहीं कराया गया.&nbsp;</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>कांशीराम संस्थापकों में थे शामिल</strong><br />बामसेफ की स्थापना राजस्थान के दीना भाना और महाराष्ट्र के डीके खापर्डे ने की थी. इसके बाद पंजाब के कांशीराम भी इस मुहिम में शामिल हो गए. इसका उद्देश्य दलित कर्मचारियों और अधिकारियों के हक के लिए काम करना था. इससे तमाम दलित अधिकारी एवं कर्मचारी जुड़े थे. बसपा की स्थापना के बाद कांशीराम ने इसे मजबूत नहीं किया. इसका पंजीकरण कराने से भी इनकार कर दिया. इससे देश भर में इसी नाम से कई संगठन बन गए.</p>
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<p style=”text-align: justify;”>लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं दलित चिंतक रविकांत के मुताबिक बामसेफ का दोबारा पुनर्गठन करने की बसपा की कवायद सिर्फ जाटव वोट बैंक पर कब्जा बरकरार रखना है. बसपा का संगठन पूरी तरह से खात्मे की ओर है, उसके जाटव वोट पर भी आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) का दखल बढ़ता जा रहा है. आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर का सांसद बनना बसपा के लिए खतरे की घंटी बन चुका है.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>1978 में बामसेफ की हुई थी स्थापना</strong><br />दलित कर्मचारियों को एकजुट करने के लिए 1978 में बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज इंप्लाई फेडरेशन) की स्थापना का मकसद राजनीति में आना नहीं था. लेकिन बदलते दौर में यह संगठन अब बसपा का वजूद बचाने की मजबूरी बन गया है. बसपा को यूपी समेत कई प्रदेशों में दलित वोट बैंक पर पकड़ कमजोर पड़ती देख बामसेफ की याद आई है. इसलिए अब इसका पुनर्गठन करने की जरूरत महसूस की जा रही है.</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>बसपा में वामसेफ का अब कोई अस्तित्व नहीं&nbsp;</strong><br />पार्टी के कुछ पदाधिकारी बामसेफ का हर जिले में संगठन होने का दावा करते हैं, तो कुछ इसके वजूद पर ही सवाल उठा रहे हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के मुताबिक बसपा में बामसेफ का अब कोई अस्तित्व नहीं है. ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि दशकों बाद इसका पुनर्गठन कैसे होगा. वर्तमान में बामसेफ कई धड़ों में बंटा है बसपा जिस बामसेफ को अपना बताती है. उसका कोई संगठन ही नहीं है, इसे कभी पंजीकृत भी नहीं कराया गया.&nbsp;</p>
<p style=”text-align: justify;”><strong>कांशीराम संस्थापकों में थे शामिल</strong><br />बामसेफ की स्थापना राजस्थान के दीना भाना और महाराष्ट्र के डीके खापर्डे ने की थी. इसके बाद पंजाब के कांशीराम भी इस मुहिम में शामिल हो गए. इसका उद्देश्य दलित कर्मचारियों और अधिकारियों के हक के लिए काम करना था. इससे तमाम दलित अधिकारी एवं कर्मचारी जुड़े थे. बसपा की स्थापना के बाद कांशीराम ने इसे मजबूत नहीं किया. इसका पंजीकरण कराने से भी इनकार कर दिया. इससे देश भर में इसी नाम से कई संगठन बन गए.</p>
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