‘क्लास 12th में था तब से ही भाला फेकने का शौक जाग गया। पिता जी बस ड्राइवर थे। हफ्ते में एक बार घर आते थे। मां से बताया तो उन्होंने मना नहीं किया। उसके बाद मै ट्रेनिंग लेने लगा। घर आता तो प्रैक्टिस के लिए कुछ पास नहीं होता था। ऐसे में बांस का जैवलिन और बाजरे की लकड़ी जो की बहुत अच्छा फ्लाई करती है। उससे प्रैक्टिस की। उसके बाद जब खेल आगे बढ़ा तो मैंने पिता जी से कहा और लोन लेकर हमने फिर विश्वस्तरीय जैवलिन खरीदा। आज एक इंटरनेशनल प्रतियोगिता और 4 नेशनल प्रतियोगिता जिसमें विश्वविद्यालय स्तर की प्रतियोगिताएं हैं। उनमे गोल्ड पदक है।’ ये शब्द हैं काशी के जैवलिन थ्रोअर आशीष सिंह के हैं। लगातार ओलिंपिक मेडल के लिए तैयारी कर रहे हैं। वाराणसी के बड़ा लालपुर स्थित डॉ भीमराव अंबेडकर स्टेडियम में अभ्यास में लगे हुए हैं। आशीष सिंह के आईडियल हैं नीरज चोपड़ा। आशीष के पिता संजय सिंह और माता ने कभी उनका हौसला टूटने नहीं दिया। दैनिक भास्कर ने नेशनल जैवलिन थ्रो डे पर काशी के आशीष सिंह से बात की और उनके प्रयासों और स्ट्रगल के बारे में जाना। पढ़िए भास्कर की खास रिपोर्ट… खुद से ही आशीष ने चुना है अपना मुकाम
आशीष के पिता संजय सिंह एक बस ड्राइवर थे। कुछ दिनों से उन्होंने स्टेडियम के सामने ही बेटे के कहने और सहयोग से एक जिम खोल लिया है जो प्लेयर्स के लिए सस्ते दर पर ट्रेनिंग उपलब्ध करवा रहा है। हमने संजय सिंह से बात की; उन्होंने बताया- आशीष इस मुकाम पर अपनी लगन और मां के प्रोत्साहन से आगे बढ़ा। मै तो बहस ड्राइवर था मुझे कुछ पता नहीं होता था। हफ्ते में एक बार घर आता था। तो पता चलता था कि आशीष भाला फेंक रहा है। इंटरनेशनल पदक जीतकर आया तो खुशी हुई
संजय ने बताया – मै हर हफ्ते घर से चला जाता था और फिर वीकेंड पर आता था। इधर आशीष की खेल जारी था। इसी दौरान वो विदेश में पदक जीतकर घर लौटा तो मुझे पता चला। मेरा दिल उस दिन बहुत खुश हुआ था। अब उसने ही एक जिम खुलवा दिया है। जिसमें खिलाड़ियों की फिटनेस का ध्यान रख रहा हूं। अब काशी के आशीष सिंह की बात, जिन्होंने बाजरे की लकड़ी से की ट्रेनिंग कक्षा 12 में भला फेकने का चढ़ा जूनून
हरहुआ के रहने वाले आशीष ने बताया- कक्षा 12 में था तब मुझे जैवलिन थ्रो करने यानी भला फेंकने का जूनून जाएगा था। यह करीब 15 साल पुरानी बात है। जब मां से बोला की मुझे भला फेकना है। उसके बाद मां ने इजाजत दे दी क्योंकि पापा बस ड्राइवर थे और हफ्ते में एक दिन के लिए ही घर आते थे। तो हम सब बात मां से ही शेयर करते थे। मां ने मना नहीं किया और हम पास में ही ट्रेनिंग के लिए जाने लगे। बांस का बनाया भाला, बाजरे की लकड़ी फेक फ्लाई कराया
आशीष ने कहा- विश्वविद्यालय में ट्रेनिंग कराई जाती थी तो वहां जैवलिन मिलता था। पर कुछ घंटों की ट्रेनिंग से गोल नहीं मिल रहा था। ऐसे में घर में ट्रेनिंग का सोचा पर डेढ़ लाख का भाला लेने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। इसपर बांस का बना भाला इस्तेमाल शुरू किया। उसके बाद बाजरे की लकड़ी जो काफी हल्की होती है और अच्छी तरह से फ्लाई करती है। उससे प्रेक्टिस शुरू की। यूनिवर्सिटी गेम्स में जीता 4 गोल्ड, एक में नीरज चोपड़ा रहे फर्स्ट
आशीष ने बताया – विश्वविद्यालय की टीम से आगे बढ़ता गया और बोरनाइ ओपन एथलिटिक चैम्पयनशिप में जाने का मौक़ा मिला जिसमें गोल्ड मिला। इसके बाद 2015 में आल इंडिया यूनिवर्सिटी चैम्पियनशिप जो बेंगलुरु विश्वविद्यालय में हुई वहां गोल्ड जीता। उसके बाद 2016 में पटियाला विश्वविद्यालय में हुई प्रतियोगिता में मुझे छटवां स्थान मिला और इसी इवेंट में नीरज चोपड़ा को प्रथम स्थान मिला था। इसके बाद 2017 में फिर चैम्पियन रहा और 2018 में भी चैम्पियन रहा। अच्छा खेलने के लिए लोन पर लिया जैवलिन
आशीष ने बताया कि मिडिल क्लास फैमिली का बच्चा जैवलिन तभी खेल सकता है जब उसके घर उसे सपोर्ट होगा। जैवलिन जो सबसे हल्का और बेस्ट है उसकी कीमत डेढ़ लाख रुपए है। पहली बारे जब मैंने उसे लिया तो मुझे लोन लेना पड़ा था। लोन लेकर मैंने उसे खरीदा और आज मेरे पास कई जैवलिन है। जिससे मै अन्य खिलाड़ियों को प्रैक्टिस के लिए देता हूं। इसके अलावा जैवलिन का किट करीब 40 हजार का है जिसमें बेल्ट और अन्य सामान आते हैं। इंजरी हुई तो कुछ दिन लगा नहीं हो पाएगी वापसी
आशीष ने बताया- साल 2018 में घुटने में इंजरी हो गई थी। इसके बाद बहुत अजीब लगता था। मेरे कोच और मुझे सिर्फ इंजरी के बारे में पता था। घर वालों को न पता चले इसलिए रोजाना प्रैक्टिस करने ग्राउंड आता था। धीरे-धीरे दवाओं और अनु एक्सरसाइज से इंजरी खत्म हुई। जिसके बाद दोबारा पदक जीते। ओलिंपिक पदक की तैयारी, 2028 लक्ष्य
आशीष ने बताया – नीरज चोपड़ा को खेलते हुए देखा है। उनकी अपनी कमा की टेक्निक है। उसी से वो खेलते हैं। मेरा लक्ष्य 2028 ओलिंपिक है। मुझे देश के लिए पदक लाना है। जिसके लिए मैं दिन-रात मेहनत कर रहा हूं। आशीष रेलवे में क्लर्क के पद पर टाटा जमशेदपुर में तैनात हैं। प्रैक्टिस और खेल के लिए इस समय बनारस में मौजूद हैं। वो लगातार रेलवे के लिए पदक जीत रहे हैं। ‘क्लास 12th में था तब से ही भाला फेकने का शौक जाग गया। पिता जी बस ड्राइवर थे। हफ्ते में एक बार घर आते थे। मां से बताया तो उन्होंने मना नहीं किया। उसके बाद मै ट्रेनिंग लेने लगा। घर आता तो प्रैक्टिस के लिए कुछ पास नहीं होता था। ऐसे में बांस का जैवलिन और बाजरे की लकड़ी जो की बहुत अच्छा फ्लाई करती है। उससे प्रैक्टिस की। उसके बाद जब खेल आगे बढ़ा तो मैंने पिता जी से कहा और लोन लेकर हमने फिर विश्वस्तरीय जैवलिन खरीदा। आज एक इंटरनेशनल प्रतियोगिता और 4 नेशनल प्रतियोगिता जिसमें विश्वविद्यालय स्तर की प्रतियोगिताएं हैं। उनमे गोल्ड पदक है।’ ये शब्द हैं काशी के जैवलिन थ्रोअर आशीष सिंह के हैं। लगातार ओलिंपिक मेडल के लिए तैयारी कर रहे हैं। वाराणसी के बड़ा लालपुर स्थित डॉ भीमराव अंबेडकर स्टेडियम में अभ्यास में लगे हुए हैं। आशीष सिंह के आईडियल हैं नीरज चोपड़ा। आशीष के पिता संजय सिंह और माता ने कभी उनका हौसला टूटने नहीं दिया। दैनिक भास्कर ने नेशनल जैवलिन थ्रो डे पर काशी के आशीष सिंह से बात की और उनके प्रयासों और स्ट्रगल के बारे में जाना। पढ़िए भास्कर की खास रिपोर्ट… खुद से ही आशीष ने चुना है अपना मुकाम
आशीष के पिता संजय सिंह एक बस ड्राइवर थे। कुछ दिनों से उन्होंने स्टेडियम के सामने ही बेटे के कहने और सहयोग से एक जिम खोल लिया है जो प्लेयर्स के लिए सस्ते दर पर ट्रेनिंग उपलब्ध करवा रहा है। हमने संजय सिंह से बात की; उन्होंने बताया- आशीष इस मुकाम पर अपनी लगन और मां के प्रोत्साहन से आगे बढ़ा। मै तो बहस ड्राइवर था मुझे कुछ पता नहीं होता था। हफ्ते में एक बार घर आता था। तो पता चलता था कि आशीष भाला फेंक रहा है। इंटरनेशनल पदक जीतकर आया तो खुशी हुई
संजय ने बताया – मै हर हफ्ते घर से चला जाता था और फिर वीकेंड पर आता था। इधर आशीष की खेल जारी था। इसी दौरान वो विदेश में पदक जीतकर घर लौटा तो मुझे पता चला। मेरा दिल उस दिन बहुत खुश हुआ था। अब उसने ही एक जिम खुलवा दिया है। जिसमें खिलाड़ियों की फिटनेस का ध्यान रख रहा हूं। अब काशी के आशीष सिंह की बात, जिन्होंने बाजरे की लकड़ी से की ट्रेनिंग कक्षा 12 में भला फेकने का चढ़ा जूनून
हरहुआ के रहने वाले आशीष ने बताया- कक्षा 12 में था तब मुझे जैवलिन थ्रो करने यानी भला फेंकने का जूनून जाएगा था। यह करीब 15 साल पुरानी बात है। जब मां से बोला की मुझे भला फेकना है। उसके बाद मां ने इजाजत दे दी क्योंकि पापा बस ड्राइवर थे और हफ्ते में एक दिन के लिए ही घर आते थे। तो हम सब बात मां से ही शेयर करते थे। मां ने मना नहीं किया और हम पास में ही ट्रेनिंग के लिए जाने लगे। बांस का बनाया भाला, बाजरे की लकड़ी फेक फ्लाई कराया
आशीष ने कहा- विश्वविद्यालय में ट्रेनिंग कराई जाती थी तो वहां जैवलिन मिलता था। पर कुछ घंटों की ट्रेनिंग से गोल नहीं मिल रहा था। ऐसे में घर में ट्रेनिंग का सोचा पर डेढ़ लाख का भाला लेने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। इसपर बांस का बना भाला इस्तेमाल शुरू किया। उसके बाद बाजरे की लकड़ी जो काफी हल्की होती है और अच्छी तरह से फ्लाई करती है। उससे प्रेक्टिस शुरू की। यूनिवर्सिटी गेम्स में जीता 4 गोल्ड, एक में नीरज चोपड़ा रहे फर्स्ट
आशीष ने बताया – विश्वविद्यालय की टीम से आगे बढ़ता गया और बोरनाइ ओपन एथलिटिक चैम्पयनशिप में जाने का मौक़ा मिला जिसमें गोल्ड मिला। इसके बाद 2015 में आल इंडिया यूनिवर्सिटी चैम्पियनशिप जो बेंगलुरु विश्वविद्यालय में हुई वहां गोल्ड जीता। उसके बाद 2016 में पटियाला विश्वविद्यालय में हुई प्रतियोगिता में मुझे छटवां स्थान मिला और इसी इवेंट में नीरज चोपड़ा को प्रथम स्थान मिला था। इसके बाद 2017 में फिर चैम्पियन रहा और 2018 में भी चैम्पियन रहा। अच्छा खेलने के लिए लोन पर लिया जैवलिन
आशीष ने बताया कि मिडिल क्लास फैमिली का बच्चा जैवलिन तभी खेल सकता है जब उसके घर उसे सपोर्ट होगा। जैवलिन जो सबसे हल्का और बेस्ट है उसकी कीमत डेढ़ लाख रुपए है। पहली बारे जब मैंने उसे लिया तो मुझे लोन लेना पड़ा था। लोन लेकर मैंने उसे खरीदा और आज मेरे पास कई जैवलिन है। जिससे मै अन्य खिलाड़ियों को प्रैक्टिस के लिए देता हूं। इसके अलावा जैवलिन का किट करीब 40 हजार का है जिसमें बेल्ट और अन्य सामान आते हैं। इंजरी हुई तो कुछ दिन लगा नहीं हो पाएगी वापसी
आशीष ने बताया- साल 2018 में घुटने में इंजरी हो गई थी। इसके बाद बहुत अजीब लगता था। मेरे कोच और मुझे सिर्फ इंजरी के बारे में पता था। घर वालों को न पता चले इसलिए रोजाना प्रैक्टिस करने ग्राउंड आता था। धीरे-धीरे दवाओं और अनु एक्सरसाइज से इंजरी खत्म हुई। जिसके बाद दोबारा पदक जीते। ओलिंपिक पदक की तैयारी, 2028 लक्ष्य
आशीष ने बताया – नीरज चोपड़ा को खेलते हुए देखा है। उनकी अपनी कमा की टेक्निक है। उसी से वो खेलते हैं। मेरा लक्ष्य 2028 ओलिंपिक है। मुझे देश के लिए पदक लाना है। जिसके लिए मैं दिन-रात मेहनत कर रहा हूं। आशीष रेलवे में क्लर्क के पद पर टाटा जमशेदपुर में तैनात हैं। प्रैक्टिस और खेल के लिए इस समय बनारस में मौजूद हैं। वो लगातार रेलवे के लिए पदक जीत रहे हैं। उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर