महाकुंभ से वाराणसी ही क्यों जाते हैं नागा साधु?:12 साल में दो ही ऐसे मौके; महाशिवरात्रि और मसाने की होली से क्या है संबंध

महाकुंभ से वाराणसी ही क्यों जाते हैं नागा साधु?:12 साल में दो ही ऐसे मौके; महाशिवरात्रि और मसाने की होली से क्या है संबंध

प्रयागराज महाकुंभ में तीन अमृत स्नान के बाद सभी 7 शैव यानी संन्यासी अखाड़े वाराणसी कूच कर गए हैं। अब काशी के घाटों और मठों में नागा संन्यासियों के दर्शन हो रहे हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर अखाड़ों के नागा साधु और महामंडलेश्वर अपने मठ-मंदिर में लौटने की जगह काशी ही क्यों जाते हैं, वहां क्या करेंगे, ऐसा क्या रहस्य और परंपरा है? इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने के लिए दैनिक भास्कर ने प्रयागराज और काशी के संत और अखाड़ों के प्रतिनिधियों से बात की, पढ़िए पूरी रिपोर्ट… प्रयागराज कुंभ या महाकुंभ के बाद अखाड़ों के काशी जाने की परंपरा आदिशंकराचार्य ने शुरू की थी। तब से यह परंपरा चली आ रही है। अखाड़े 6 साल पर लगने वाले अर्धकुंभ या 12 साल पर लगने वाले कुंभ के बाद ही काशी जाते हैं। 12 साल में दो बार ही ऐसे मौके आते हैं। हर साल नहीं जाते हैं। अखाड़ों के प्रयागराज से काशी जाने की कहानी श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत यमुना पुरी महाराज बताते हैं। वह कहते हैं- महाकुंभ में सभी अखाड़े के साधु-संत, संन्यासी, नागा-वैरागी, नर-नारी, देव और किन्नर गंगा यमुना सरस्वती के त्रिवेणी में ग्रहीय संयोग में डुबकी लगाकर मां गंगा को अपना सर्वस्व दान करते हैं। यमुना पुरी पौराणिक कथा का जिक्र करते हैं। उनके मुताबिक जब गंगा पृथ्वी पर आ रही थीं, तब त्रिदेव ने मां गंगा को यह वरदान दिया कि हे गंगे! भूलोक पर आपको पुण्य फल की प्राप्ति का सुलभ साधन आपके मानस पुत्र और साधु-संन्यासी होंगे। सभी लोगों ने महाकुंभ में साधु संत-महात्माओं और नागा-वैरागी की शोभा यात्रा देखी है। अखाड़े अमृत स्नान करते हैं। इसके पीछे के रहस्य को सचिव महानिर्वाणी महंत यमुना पुरी महाराज बताते हैं- नागा संन्यासी और उनके अखाड़े के प्रमुख अपने ईष्ट देव को सबसे पहले गंगा जल का स्पर्श कराते हैं। फिर त्रिवेणी जल में डुबकी लगाकर अपनी जप-तप साधना से अर्जित पुण्य को एक बालक की तरह उन्हें आचमन के जरिए समर्पित कर देते हैं। मां को पुण्य समर्पण कर पिता शिव से पाते हैं दिव्य ऊर्जा
यमुना पुरी के मुताबिक, काशी में अमृत स्नान की परंपरा महाकुंभ से थोड़ी अलग है। महाकुंभ में अखाड़े अलग–अलग समय पर स्नान के लिए जाते हैं तो काशी में एक साथ स्नान करते हैं। गंगा में अमृत स्नान के बाद काशी विश्वनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। अखाड़े अपने आराध्य देव भगवान शिव को स्पर्श करते हैं। भगवान शिव सृष्टि के महान ऊर्जा पुंज हैं। संन्यासी संत महात्मा काशी आकार भगवान शिव के विराट स्वरूप के ऊर्जा पुंज से आध्यात्मिक ऊर्जा ग्रहण करते हैं। एक वजह ये भी
महाकुंभ के बाद ही नागा साधु और अखाड़े काशी में बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने जाते हैं। महाकुंभ के बाद वह भोलेनाथ को यह सूचना देने जाते हैं कि प्रभु आपकी कृपा से हमने प्रथम आराधना संपन्न की है। वहीं, जो नागा साधु नए बने होते हैं वह भोलेनाथ का आशीर्वाद लेकर अपनी आगे की तपस्या शुरू करते हैं। कुंभ और महाकुंभ में ही नागा साधु बनाए जाते हैं। संन्यासी ही क्यों काशी जाते हैं, वैष्णव अखाड़े क्यों नहीं?
आवाहन अखाड़े के महामंडलेश्वर प्रकाशानंद गिरी ने बताया, महाकुंभ से काशी प्रवास की परंपरा सिर्फ संन्यासी अखाड़े में ही होती है। संन्यासी अखाड़े भगवान शिव के उपासक हैं, क्योंकि शिव ही हमारे गुरु-ईष्ट और सबकुछ हैं। शिव के बिना हम अधूरे हैं और शिव भी हमारे बिना अधूरे ही हैं। वहीं वैष्णव अखाड़े भगवान विष्णु को अपना सबकुछ मानते हैं। इसलिए वे महाकुंभ से काशी के आयोजन में शामिल नहीं होते। मसाने की होली की परंपरा क्या है?
काशी में खेली जाने वाली मसान होली को चिता भस्म होली के नाम से भी जाना जाता है। चिता की राख से होली खेलने की परंपरा कई वर्षों पुरानी है। यह होली देवों के देव महादेव को समर्पित है। मसान की होली को मृत्यु पर विजय का प्रतीक माना गया है। इस बार 10 मार्च को हरिश्चंद्र घाट और 11 मार्च को मणिकर्णिका घाट पर मसाने की होली खेली जाएगी। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान भोलेनाथ ने यमराज को हराने के बाद चिता की राख से होली खेली थी। तभी से इस दिन को यादगार बनाने के लिए प्रत्येक वर्ष मसाने की होली खेली जाती है। यह उत्सव 2 दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन लोग चिता की राख को एकत्रित करते हैं और इसके दूसरे दिन होली खेलते हैं। पिछले 10 वर्षों से इस उत्सव में अत्यधिक भीड़ होने लगी है, श्मशान घाट पर महिलाएं भी जाने लगी हैं। लेकिन काशी के विद्वानों का कहना है कि ऐसा कहीं नहीं लिखा गया है कि चिता भस्म होली श्मशान घाट में जाकर खोली जाए। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवींद्र पुरी कहते हैं- अखाड़ों में चिता भस्म की होली खेलने की परंपरा नहीं है। बहुत होता है तो हम लोग गाय के गोबर की होली खेल लेते हैं। 40 दिन काशी में रहते हैं अखाड़े
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवींद्र पुरी ने बताया, प्रयागराज के महाकुंभ से काशी का प्रवास 40 दिन ( बसंत पंचमी से लेकर होली तक) का होता है। इस बीच साधु-संत काशीपुराधिपति भगवान महादेव के विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन पूजन कर उन्हें रिझाने की कोशिश करते है। काशी में रहकर संन्यासी भगवान शंकर के साथ होली खेलते हैं। इसके बाद वह हरिद्वार और दूसरी जगह अपने मठ अखाड़ों के मुख्यालय के लिए जाते हैं। काशी में अष्ट कौशल के काम का बंटवारा
जूना अखाड़े के थानापति डॉ. शिवानंद पुरी ने बताया कि महाकुंभ के बाद काशी में संन्यासी अखाड़े की नई सरकार के जिम्मेदार संत-महात्माओं को उनकी योग्यता के अनुसार मोहर और सर्टिफिकेट दिया जाता है। मोहर की परंपरा को अखाड़े के मठ-मंदिर की व्यवस्था संभालने का एक तरह का उत्तरदायित्व के रूप में समझा जा सकता है। इसके अलावा सर्टिफिकेट देने के पीछे का कारण, नागा संन्यासी की पहचान से है कि वह किस अखाड़े से हैं। इसके चलते यह जरूरी होता है। अभी 10 हजार से ज्यादा नागा संन्यासी काशी में
इस समय काशी में 10 हजार से अधिक नागा संन्यासी मौजूद हैं। वह गंगा घाट और मठ-मंदिरों में पूजा कर रहे हैं। सातों शैव अखाड़े के महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर भी पहुंचने लगे हैं। सभी महाशिवरात्रि तक पहुंच जाएंगे। ———————————- ये भी पढ़ें: संगम पहुंचने के लिए 10KM पैदल चलना पड़ रहा:महाकुंभ में गाड़ियों की एंट्री नहीं, प्रयागराज आने-जाने वाली 8 ट्रेनें रद्द; 8वीं तक स्कूल ऑनलाइन महाकुंभ का आज 39वां दिन है। सुबह से ही संगम आने वाले सभी रास्तों पर 8 से 10 किमी तक श्रद्धालुओं की भीड़ है। शहर के बाहर की पार्किंग में ही वाहनों को रोका जा रहा है। वहां से शटल बस और ई-रिक्शा से श्रद्धालु महाकुंभ पहुंच रहे हैं। (पढ़ें पूरी खबर) प्रयागराज महाकुंभ में तीन अमृत स्नान के बाद सभी 7 शैव यानी संन्यासी अखाड़े वाराणसी कूच कर गए हैं। अब काशी के घाटों और मठों में नागा संन्यासियों के दर्शन हो रहे हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर अखाड़ों के नागा साधु और महामंडलेश्वर अपने मठ-मंदिर में लौटने की जगह काशी ही क्यों जाते हैं, वहां क्या करेंगे, ऐसा क्या रहस्य और परंपरा है? इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने के लिए दैनिक भास्कर ने प्रयागराज और काशी के संत और अखाड़ों के प्रतिनिधियों से बात की, पढ़िए पूरी रिपोर्ट… प्रयागराज कुंभ या महाकुंभ के बाद अखाड़ों के काशी जाने की परंपरा आदिशंकराचार्य ने शुरू की थी। तब से यह परंपरा चली आ रही है। अखाड़े 6 साल पर लगने वाले अर्धकुंभ या 12 साल पर लगने वाले कुंभ के बाद ही काशी जाते हैं। 12 साल में दो बार ही ऐसे मौके आते हैं। हर साल नहीं जाते हैं। अखाड़ों के प्रयागराज से काशी जाने की कहानी श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत यमुना पुरी महाराज बताते हैं। वह कहते हैं- महाकुंभ में सभी अखाड़े के साधु-संत, संन्यासी, नागा-वैरागी, नर-नारी, देव और किन्नर गंगा यमुना सरस्वती के त्रिवेणी में ग्रहीय संयोग में डुबकी लगाकर मां गंगा को अपना सर्वस्व दान करते हैं। यमुना पुरी पौराणिक कथा का जिक्र करते हैं। उनके मुताबिक जब गंगा पृथ्वी पर आ रही थीं, तब त्रिदेव ने मां गंगा को यह वरदान दिया कि हे गंगे! भूलोक पर आपको पुण्य फल की प्राप्ति का सुलभ साधन आपके मानस पुत्र और साधु-संन्यासी होंगे। सभी लोगों ने महाकुंभ में साधु संत-महात्माओं और नागा-वैरागी की शोभा यात्रा देखी है। अखाड़े अमृत स्नान करते हैं। इसके पीछे के रहस्य को सचिव महानिर्वाणी महंत यमुना पुरी महाराज बताते हैं- नागा संन्यासी और उनके अखाड़े के प्रमुख अपने ईष्ट देव को सबसे पहले गंगा जल का स्पर्श कराते हैं। फिर त्रिवेणी जल में डुबकी लगाकर अपनी जप-तप साधना से अर्जित पुण्य को एक बालक की तरह उन्हें आचमन के जरिए समर्पित कर देते हैं। मां को पुण्य समर्पण कर पिता शिव से पाते हैं दिव्य ऊर्जा
यमुना पुरी के मुताबिक, काशी में अमृत स्नान की परंपरा महाकुंभ से थोड़ी अलग है। महाकुंभ में अखाड़े अलग–अलग समय पर स्नान के लिए जाते हैं तो काशी में एक साथ स्नान करते हैं। गंगा में अमृत स्नान के बाद काशी विश्वनाथ पर जलाभिषेक करते हैं। अखाड़े अपने आराध्य देव भगवान शिव को स्पर्श करते हैं। भगवान शिव सृष्टि के महान ऊर्जा पुंज हैं। संन्यासी संत महात्मा काशी आकार भगवान शिव के विराट स्वरूप के ऊर्जा पुंज से आध्यात्मिक ऊर्जा ग्रहण करते हैं। एक वजह ये भी
महाकुंभ के बाद ही नागा साधु और अखाड़े काशी में बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने जाते हैं। महाकुंभ के बाद वह भोलेनाथ को यह सूचना देने जाते हैं कि प्रभु आपकी कृपा से हमने प्रथम आराधना संपन्न की है। वहीं, जो नागा साधु नए बने होते हैं वह भोलेनाथ का आशीर्वाद लेकर अपनी आगे की तपस्या शुरू करते हैं। कुंभ और महाकुंभ में ही नागा साधु बनाए जाते हैं। संन्यासी ही क्यों काशी जाते हैं, वैष्णव अखाड़े क्यों नहीं?
आवाहन अखाड़े के महामंडलेश्वर प्रकाशानंद गिरी ने बताया, महाकुंभ से काशी प्रवास की परंपरा सिर्फ संन्यासी अखाड़े में ही होती है। संन्यासी अखाड़े भगवान शिव के उपासक हैं, क्योंकि शिव ही हमारे गुरु-ईष्ट और सबकुछ हैं। शिव के बिना हम अधूरे हैं और शिव भी हमारे बिना अधूरे ही हैं। वहीं वैष्णव अखाड़े भगवान विष्णु को अपना सबकुछ मानते हैं। इसलिए वे महाकुंभ से काशी के आयोजन में शामिल नहीं होते। मसाने की होली की परंपरा क्या है?
काशी में खेली जाने वाली मसान होली को चिता भस्म होली के नाम से भी जाना जाता है। चिता की राख से होली खेलने की परंपरा कई वर्षों पुरानी है। यह होली देवों के देव महादेव को समर्पित है। मसान की होली को मृत्यु पर विजय का प्रतीक माना गया है। इस बार 10 मार्च को हरिश्चंद्र घाट और 11 मार्च को मणिकर्णिका घाट पर मसाने की होली खेली जाएगी। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान भोलेनाथ ने यमराज को हराने के बाद चिता की राख से होली खेली थी। तभी से इस दिन को यादगार बनाने के लिए प्रत्येक वर्ष मसाने की होली खेली जाती है। यह उत्सव 2 दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन लोग चिता की राख को एकत्रित करते हैं और इसके दूसरे दिन होली खेलते हैं। पिछले 10 वर्षों से इस उत्सव में अत्यधिक भीड़ होने लगी है, श्मशान घाट पर महिलाएं भी जाने लगी हैं। लेकिन काशी के विद्वानों का कहना है कि ऐसा कहीं नहीं लिखा गया है कि चिता भस्म होली श्मशान घाट में जाकर खोली जाए। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवींद्र पुरी कहते हैं- अखाड़ों में चिता भस्म की होली खेलने की परंपरा नहीं है। बहुत होता है तो हम लोग गाय के गोबर की होली खेल लेते हैं। 40 दिन काशी में रहते हैं अखाड़े
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवींद्र पुरी ने बताया, प्रयागराज के महाकुंभ से काशी का प्रवास 40 दिन ( बसंत पंचमी से लेकर होली तक) का होता है। इस बीच साधु-संत काशीपुराधिपति भगवान महादेव के विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन पूजन कर उन्हें रिझाने की कोशिश करते है। काशी में रहकर संन्यासी भगवान शंकर के साथ होली खेलते हैं। इसके बाद वह हरिद्वार और दूसरी जगह अपने मठ अखाड़ों के मुख्यालय के लिए जाते हैं। काशी में अष्ट कौशल के काम का बंटवारा
जूना अखाड़े के थानापति डॉ. शिवानंद पुरी ने बताया कि महाकुंभ के बाद काशी में संन्यासी अखाड़े की नई सरकार के जिम्मेदार संत-महात्माओं को उनकी योग्यता के अनुसार मोहर और सर्टिफिकेट दिया जाता है। मोहर की परंपरा को अखाड़े के मठ-मंदिर की व्यवस्था संभालने का एक तरह का उत्तरदायित्व के रूप में समझा जा सकता है। इसके अलावा सर्टिफिकेट देने के पीछे का कारण, नागा संन्यासी की पहचान से है कि वह किस अखाड़े से हैं। इसके चलते यह जरूरी होता है। अभी 10 हजार से ज्यादा नागा संन्यासी काशी में
इस समय काशी में 10 हजार से अधिक नागा संन्यासी मौजूद हैं। वह गंगा घाट और मठ-मंदिरों में पूजा कर रहे हैं। सातों शैव अखाड़े के महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर भी पहुंचने लगे हैं। सभी महाशिवरात्रि तक पहुंच जाएंगे। ———————————- ये भी पढ़ें: संगम पहुंचने के लिए 10KM पैदल चलना पड़ रहा:महाकुंभ में गाड़ियों की एंट्री नहीं, प्रयागराज आने-जाने वाली 8 ट्रेनें रद्द; 8वीं तक स्कूल ऑनलाइन महाकुंभ का आज 39वां दिन है। सुबह से ही संगम आने वाले सभी रास्तों पर 8 से 10 किमी तक श्रद्धालुओं की भीड़ है। शहर के बाहर की पार्किंग में ही वाहनों को रोका जा रहा है। वहां से शटल बस और ई-रिक्शा से श्रद्धालु महाकुंभ पहुंच रहे हैं। (पढ़ें पूरी खबर)   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर