उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटें कम होने से संगठन के अंदर जो हलचल है, वो शांत होने का नाम नहीं ले रही। पार्टी लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन की समीक्षा कर रही है, ताकि सबक लेकर आने वाले चुनाव में हालात सुधार जा सके। 3 साल बाद 2027 में विधानसभा चुनाव होना है। अब तक की समीक्षा में एक अहम बात सामने आई है, जिस पर सबसे अधिक चर्चा है। वो है दलित का पार्टी से मोहभंग होना। भाजपा एससी मोर्चा ने इसका जिक्र अपनी रिपोर्ट में किया है। कमजोर प्रदर्शन के कई और भी कारण गिनाए हैं, कुछ सुझाव भी दिए हैं। पढ़िए दैनिक भास्कर की खास रिपोर्ट… यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं। भाजपा को 2019 के आम चुनाव में 49.98 फीसदी वोट मिले थे, जबकि इस बार करीब साढ़े आठ फीसदी की गिरावट आ गई। पार्टी को 41.37 फीसदी वोट मिले। नतीजा 26 सीटें कम हो गईं। इस तरह भाजपा की सीटों और वोट प्रतिशत में गिरावट की बड़ी वजह दलित वोट बैंक रहा। यह नतीजों के बाद समीक्षा की प्राथमिक रिपोर्ट में सामने आया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इंडिया गठबंधन ने आरक्षण समाप्त करने और संविधान बदलने का मुद्दा उठाया, जो दलित बस्तियों में छा गया। मोर्चे की ओर से चुनाव में हार के कारणों के साथ दलितों को एक बार फिर भाजपा की ओर लाने के सुझाव भी दिए गए। एससी मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र कनौजिया ने पार्टी के प्रदेश संगठन को रिपोर्ट सौंपी है। सपा ने भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में सेंध लगाई
भाजपा ने लोकसभा चुनाव 2014 में सामाजिक समीकरण के तहत दलित वोट बैंक साधने के लिए गैर जाटव वोट बैंक पर फोकस किया। पार्टी ने पासी, कोरी, धोबी, सोनकर, वाल्मीकि, मुसहर, कटेरिया और धरकार समाज को अधिक प्रतिनिधित्व दिया। यही वजह रही कि 2014 से 2022 तक दलित वोट बैंक बसपा से खिसक कर भाजपा में शिफ्ट हो गया। नतीजा, चार चुनावों में भगवा परचम फहरा। इस बार लोकसभा चुनाव में सपा ने भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में सेंध लगाते हुए पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का फार्मूला दिया। फैजाबाद से भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह सहित अन्य नेताओं की ओर से संविधान बदलने के बयान दिए गए। इसने इंडिया गठबंधन के लिए सोने पर सुहागा होने जैसा काम किया। बसपा से दलित वोटर दूर होने पर भाजपा को गलतफहमी
जानकार मानते हैं, दलित वोट भाजपा से खिसकने में केवल आरक्षण या संविधान ही मुद्दा नहीं रहे, बीते चार-पांच साल में भाजपा की एक और गलतफहमी भी मुख्य वजह रही। उसे लगा कि बसपा के कमजोर होने के चलते दलित वोट बैंक के पास भाजपा ही विकल्प है। इसी गलतफहमी में पार्टी ने दलित वर्ग को केवल आरक्षण के दायरे तक सीमित रखा। सरकार की कैबिनेट से लेकर विधान परिषद और राज्यसभा में दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में नेतृत्व नहीं दिया गया। अयोध्या में भारी पड़ा सपा का पासी कार्ड भाजपा ने अयोध्या से दलित वर्ग को संदेश देने के लिए हवाई अड्डे का नाम महर्षि वाल्मीकि के नाम पर रखा। सपा ने भाजपा के नहले पर दहला मारते हुए अयोध्या वाली फैजाबाद संसदीय सीट पर दलित वर्ग के अवधेश प्रसाद को प्रत्याशी बनाया। अवधेश प्रसाद पासी समाज से आते हैं। पासी समाज ने चुनाव में नारा दिया मथुरा न काशी, अबकी बार अवधेश पासी। फैजाबाद में मुस्लिम और यादव के साथ दलित वोट जुड़ने से अवधेश प्रसाद की राह आसान हो गई। विधान परिषद में कम होता गया दलितों का नेतृत्व
विधान परिषद की 100 सीटों में से भाजपा के 78 सदस्य हैं। लेकिन एससी वर्ग से लालजी निर्मल और सुरेंद्र चौधरी मात्र दो दलित सदस्य हैं। वहीं, क्षत्रिय समाज से 25, ब्राह्मण समाज से 13 सदस्य हैं। बीते 6-7 सालों में परिषद में दलितों का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। दलित नेता लक्ष्मण आचार्य को राज्यपाल बनाए जाने से खाली हुई सीट पर पद्मसेन चौधरी को सदस्य नियुक्त किया गया। बनवारी लाल दोहरे के निधन से खाली हुई सीट पर भी गैर दलित को मौका दिया गया। आबादी की तुलना में राज्यसभा में भी नेतृत्व कम
यूपी में दलितों की आबादी करीब 6 करोड़ है। यानी यह प्रदेश की कुल आबादी का 22 फीसदी है। इतनी बड़ी आबादी के बावजूद भाजपा ने यूपी कोटे की राज्यसभा सीटों पर दलित वर्ग को पर्याप्त नेतृत्व नहीं दिया है। राज्यसभा में यूपी कोटे के 31 सदस्य के लिए जगह है। इसमें से भाजपा के कुल 24 राज्यसभा सदस्य हैं, जिसमें सिर्फ पुलिस महानिदेशक रहे बृजलाल ही दलित वर्ग से हैं। कैबिनेट में भी केवल एक ही दलित मंत्री
2022 में योगी आदित्यनाथ ने बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश में दोबारा सरकार बनाई। जीत बड़ी थी। इस लिहाज से दलितों को अपने प्रतिनिधित्व को लेकर सरकार से उम्मीदें थीं। इसके बावजूद 22 सदस्यीय कैबिनेट में भाजपा से मात्र एक बेबी रानी मौर्य ही दलित मंत्री हैं। असीम अरुण और गुलाब देवी राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार हैं। दिनेश खटीक, अनूप प्रधान वाल्मीकि, विजय लक्ष्मी गौतम, सुरेश राही और मनोहरलाल मन्नू कोरी राज्यमंत्री हैं। आरएसएस की नाराजगी भी रही वजह
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से प्रदेश की मलिन बस्तियों में लगातार सामाजिक समरसता कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। दलित वर्ग को संघ से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। संघ के पदाधिकारी दावा भी करते हैं कि दलित वर्ग की सभी जातियों में उनका आधार बढ़ा है। चुनाव के दौरान भाजपा कार्यकर्ता दलित वर्ग को साधने में चूक गए। वहीं संघ और उसके वैचारिक संगठनों की उदासीनता ने भी नुकसान पहुंचाया। आरक्षित सीटों पर 50-50 रहा मुकाबला
प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 15 सीटों में भाजपा और सपा के बीच मुकाबला 50-50 प्रतिशत रहा। भाजपा और सपा को 7-7 सीटें मिली। जबकि, नगीना में आजाद समाज पार्टी का खाता खुला। एससी के लिए आरक्षित बहराइच, बासगांव, बुलंदशहर, हाथरस, आगरा, हरदोई और मिश्रिख में भाजपा जीती। वहीं, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, लालगंज और मछलीशहर में सपा की साइकिल दौड़ी। एससी आयोग चार साल से खाली
उत्तर प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों के पद बीते चार साल से खाली पड़े हैं। इसके बाद भी पार्टी की ओर से आयोग के अध्यक्ष और सदस्य नियुक्त करने का प्रस्ताव तक नहीं दिया गया। पार्टी के दलित नेता इस बात से भी खफा हैं कि निगम, आयोग और बोर्ड में भी उनके समाज के लोगों को मौका नहीं मिल रहा है। दलितों को साधने के लिए समिति ने दिए 5 सुझाव ठोस कदम नहीं उठाए तो 2027 की राह कठिन होगी
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक विश्वंभर नाथ भट्ट कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने का मुद्दा खास रहा। दलित वर्ग इस बात से भी नाराज दिखा कि शासन और सत्ता में उनकी भागीदारी कम है। भाजपा को जातीय समीकरण को लेकर समीक्षा करनी होगी। जिसके बल वो लोकसभा चुनाव 2014, विधानसभा चुनाव 2017, लोकसभा चुनाव 2019 और विधानसभा चुनाव 2022 में जीती थी। वह समीकरण 2024 लोकसभा चुनाव में क्यों फेल हुआ? अगर भाजपा ने समय रहते इसकी समीक्षा कर सुधार नहीं किया तो पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव 2027 की राह आसान नहीं होगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटें कम होने से संगठन के अंदर जो हलचल है, वो शांत होने का नाम नहीं ले रही। पार्टी लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन की समीक्षा कर रही है, ताकि सबक लेकर आने वाले चुनाव में हालात सुधार जा सके। 3 साल बाद 2027 में विधानसभा चुनाव होना है। अब तक की समीक्षा में एक अहम बात सामने आई है, जिस पर सबसे अधिक चर्चा है। वो है दलित का पार्टी से मोहभंग होना। भाजपा एससी मोर्चा ने इसका जिक्र अपनी रिपोर्ट में किया है। कमजोर प्रदर्शन के कई और भी कारण गिनाए हैं, कुछ सुझाव भी दिए हैं। पढ़िए दैनिक भास्कर की खास रिपोर्ट… यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं। भाजपा को 2019 के आम चुनाव में 49.98 फीसदी वोट मिले थे, जबकि इस बार करीब साढ़े आठ फीसदी की गिरावट आ गई। पार्टी को 41.37 फीसदी वोट मिले। नतीजा 26 सीटें कम हो गईं। इस तरह भाजपा की सीटों और वोट प्रतिशत में गिरावट की बड़ी वजह दलित वोट बैंक रहा। यह नतीजों के बाद समीक्षा की प्राथमिक रिपोर्ट में सामने आया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इंडिया गठबंधन ने आरक्षण समाप्त करने और संविधान बदलने का मुद्दा उठाया, जो दलित बस्तियों में छा गया। मोर्चे की ओर से चुनाव में हार के कारणों के साथ दलितों को एक बार फिर भाजपा की ओर लाने के सुझाव भी दिए गए। एससी मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र कनौजिया ने पार्टी के प्रदेश संगठन को रिपोर्ट सौंपी है। सपा ने भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में सेंध लगाई
भाजपा ने लोकसभा चुनाव 2014 में सामाजिक समीकरण के तहत दलित वोट बैंक साधने के लिए गैर जाटव वोट बैंक पर फोकस किया। पार्टी ने पासी, कोरी, धोबी, सोनकर, वाल्मीकि, मुसहर, कटेरिया और धरकार समाज को अधिक प्रतिनिधित्व दिया। यही वजह रही कि 2014 से 2022 तक दलित वोट बैंक बसपा से खिसक कर भाजपा में शिफ्ट हो गया। नतीजा, चार चुनावों में भगवा परचम फहरा। इस बार लोकसभा चुनाव में सपा ने भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में सेंध लगाते हुए पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का फार्मूला दिया। फैजाबाद से भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह सहित अन्य नेताओं की ओर से संविधान बदलने के बयान दिए गए। इसने इंडिया गठबंधन के लिए सोने पर सुहागा होने जैसा काम किया। बसपा से दलित वोटर दूर होने पर भाजपा को गलतफहमी
जानकार मानते हैं, दलित वोट भाजपा से खिसकने में केवल आरक्षण या संविधान ही मुद्दा नहीं रहे, बीते चार-पांच साल में भाजपा की एक और गलतफहमी भी मुख्य वजह रही। उसे लगा कि बसपा के कमजोर होने के चलते दलित वोट बैंक के पास भाजपा ही विकल्प है। इसी गलतफहमी में पार्टी ने दलित वर्ग को केवल आरक्षण के दायरे तक सीमित रखा। सरकार की कैबिनेट से लेकर विधान परिषद और राज्यसभा में दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में नेतृत्व नहीं दिया गया। अयोध्या में भारी पड़ा सपा का पासी कार्ड भाजपा ने अयोध्या से दलित वर्ग को संदेश देने के लिए हवाई अड्डे का नाम महर्षि वाल्मीकि के नाम पर रखा। सपा ने भाजपा के नहले पर दहला मारते हुए अयोध्या वाली फैजाबाद संसदीय सीट पर दलित वर्ग के अवधेश प्रसाद को प्रत्याशी बनाया। अवधेश प्रसाद पासी समाज से आते हैं। पासी समाज ने चुनाव में नारा दिया मथुरा न काशी, अबकी बार अवधेश पासी। फैजाबाद में मुस्लिम और यादव के साथ दलित वोट जुड़ने से अवधेश प्रसाद की राह आसान हो गई। विधान परिषद में कम होता गया दलितों का नेतृत्व
विधान परिषद की 100 सीटों में से भाजपा के 78 सदस्य हैं। लेकिन एससी वर्ग से लालजी निर्मल और सुरेंद्र चौधरी मात्र दो दलित सदस्य हैं। वहीं, क्षत्रिय समाज से 25, ब्राह्मण समाज से 13 सदस्य हैं। बीते 6-7 सालों में परिषद में दलितों का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। दलित नेता लक्ष्मण आचार्य को राज्यपाल बनाए जाने से खाली हुई सीट पर पद्मसेन चौधरी को सदस्य नियुक्त किया गया। बनवारी लाल दोहरे के निधन से खाली हुई सीट पर भी गैर दलित को मौका दिया गया। आबादी की तुलना में राज्यसभा में भी नेतृत्व कम
यूपी में दलितों की आबादी करीब 6 करोड़ है। यानी यह प्रदेश की कुल आबादी का 22 फीसदी है। इतनी बड़ी आबादी के बावजूद भाजपा ने यूपी कोटे की राज्यसभा सीटों पर दलित वर्ग को पर्याप्त नेतृत्व नहीं दिया है। राज्यसभा में यूपी कोटे के 31 सदस्य के लिए जगह है। इसमें से भाजपा के कुल 24 राज्यसभा सदस्य हैं, जिसमें सिर्फ पुलिस महानिदेशक रहे बृजलाल ही दलित वर्ग से हैं। कैबिनेट में भी केवल एक ही दलित मंत्री
2022 में योगी आदित्यनाथ ने बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश में दोबारा सरकार बनाई। जीत बड़ी थी। इस लिहाज से दलितों को अपने प्रतिनिधित्व को लेकर सरकार से उम्मीदें थीं। इसके बावजूद 22 सदस्यीय कैबिनेट में भाजपा से मात्र एक बेबी रानी मौर्य ही दलित मंत्री हैं। असीम अरुण और गुलाब देवी राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार हैं। दिनेश खटीक, अनूप प्रधान वाल्मीकि, विजय लक्ष्मी गौतम, सुरेश राही और मनोहरलाल मन्नू कोरी राज्यमंत्री हैं। आरएसएस की नाराजगी भी रही वजह
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से प्रदेश की मलिन बस्तियों में लगातार सामाजिक समरसता कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। दलित वर्ग को संघ से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। संघ के पदाधिकारी दावा भी करते हैं कि दलित वर्ग की सभी जातियों में उनका आधार बढ़ा है। चुनाव के दौरान भाजपा कार्यकर्ता दलित वर्ग को साधने में चूक गए। वहीं संघ और उसके वैचारिक संगठनों की उदासीनता ने भी नुकसान पहुंचाया। आरक्षित सीटों पर 50-50 रहा मुकाबला
प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 15 सीटों में भाजपा और सपा के बीच मुकाबला 50-50 प्रतिशत रहा। भाजपा और सपा को 7-7 सीटें मिली। जबकि, नगीना में आजाद समाज पार्टी का खाता खुला। एससी के लिए आरक्षित बहराइच, बासगांव, बुलंदशहर, हाथरस, आगरा, हरदोई और मिश्रिख में भाजपा जीती। वहीं, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, लालगंज और मछलीशहर में सपा की साइकिल दौड़ी। एससी आयोग चार साल से खाली
उत्तर प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों के पद बीते चार साल से खाली पड़े हैं। इसके बाद भी पार्टी की ओर से आयोग के अध्यक्ष और सदस्य नियुक्त करने का प्रस्ताव तक नहीं दिया गया। पार्टी के दलित नेता इस बात से भी खफा हैं कि निगम, आयोग और बोर्ड में भी उनके समाज के लोगों को मौका नहीं मिल रहा है। दलितों को साधने के लिए समिति ने दिए 5 सुझाव ठोस कदम नहीं उठाए तो 2027 की राह कठिन होगी
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक विश्वंभर नाथ भट्ट कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने का मुद्दा खास रहा। दलित वर्ग इस बात से भी नाराज दिखा कि शासन और सत्ता में उनकी भागीदारी कम है। भाजपा को जातीय समीकरण को लेकर समीक्षा करनी होगी। जिसके बल वो लोकसभा चुनाव 2014, विधानसभा चुनाव 2017, लोकसभा चुनाव 2019 और विधानसभा चुनाव 2022 में जीती थी। वह समीकरण 2024 लोकसभा चुनाव में क्यों फेल हुआ? अगर भाजपा ने समय रहते इसकी समीक्षा कर सुधार नहीं किया तो पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव 2027 की राह आसान नहीं होगी। उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
यूपी में संविदा नौकरियों में भी आरक्षण का सुझाव:भाजपा SC मोर्चे ने दी समीक्षा रिपोर्ट, बताया क्यों प्रदेश में दलित भाजपा से हुए दूर
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