‘अब्बू की कब्र पर जाकर गाना चाहती हूं… लोग कहते हैं लड़कियां वहां नहीं जातीं… तब चुप हो जाती हूं। पर दिल हर बार यही कहता है– बस एक बार गा लूं उनके सामने…’ ये शब्द हैं लखनऊ की दिव्यांग सिंगर शबीना सैफी के, जिनकी आंखों में रोशनी नहीं, पैरों में ताकत नहीं, लेकिन आवाज में ऐसा दर्द और श्रद्धा है कि सुनने वालों की आंखें नम हो जाएं। फादर्स डे पर शबीना की सबसे बड़ी ख्वाहिश है- अपने पिता की कब्र पर जाकर उन्हें गाकर श्रद्धांजलि देना। लेकिन समाज की बंदिशें उसकी राह रोक देती हैं। फिर भी वह हार नहीं मानतीं… हर साल घर के एक कोने में बैठकर गाती हैं अब्बू के लिए वो गाना…जो उन्होंने कभी सुनाया था, और जिसके सुरों में आज भी उसकी दुनिया सांस लेती है। भास्कर रिपोर्टर से दिव्यांग सिंगर से बातचीत पढ़िए “लड़कियां कब्रिस्तान नहीं जातीं…” हर फादर्स डे पर जब यह शब्द शबीना सैफी सुनती हैं, तो उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं… जो आंखें अब दुनिया को नहीं देख सकतीं, लेकिन उनके भीतर एक तस्वीर बसी है—अपने अब्बू की। वे कहती हैं, “पापा की कब्र पर जाकर गाना चाहती हूं। वही गाना जो उन्हें पसंद था। पर कोई साथ नहीं जाता, कहते हैं बेटियां वहां नहीं जातीं।” फादर्स डे पर कोने में बैठकर गाती हैं अब्बू के लिए गाना लखनऊ की रहने वाली शबीना सैफी, 30 साल की हैं। आंखों से देख नहीं सकतीं, पैरों से चल नहीं सकतीं, लेकिन आवाज ऐसी कि हजारों लोग मंत्रमुग्ध हो जाएं। बालागंज के बसंतकुंज में एक कमरे के मकान में मां नूरजहां के साथ रहती हैं। हर साल फादर्स डे पर शबीना अपने घर के कोने में बैठती हैं और अब्बू के नाम एक भजन गाती हैं। वह कहती हैं-“अब्बू जिंदा थे, तो गोद में लेकर इंडियन आइडियल, सारेगामापा जैसे शो में ले जाते थे। पूरा दिन लाइन में खड़े रहते थे। आज जब मैं सिंगर बन गई हूं, तो बस उनकी कब्र पर जाकर गाना गाना चाहती हूं।” पापा को कभी देखा नहीं, लेकिन महसूस हर दिन किया है शबीना कहती हैं, “मैंने उन्हें कभी देखा नहीं, लेकिन उनकी मौजूदगी हमेशा अपने अंदर महसूस की है। उन्होंने ही मुझे बताया था कि दिव्यांग होना कोई रुकावट नहीं, बस हिम्मत मत हारना।” 2.5 साल में खो दी आंखें और पैर, अब्बू ने संभाला मां नूरजहां बताती हैं, “जब शबीना 2 साल की थी, तो पोलियो हो गया। फिर आंखों की रोशनी भी चली गई। ढाई साल की उम्र में वह पूरी तरह दिव्यांग हो गई। बाकी परिवार ने मुंह मोड़ लिया, लेकिन शौकत अली (अब्बू) ने बेटी को गोद में उठाया और गायक बनाने का सपना देख लिया। चार साल की उम्र से रियाज़ शुरू करवा दिया।” अब्बू के नाम पर खुले मेडिकल स्टोर तक पहुंची आवाज 2019 में राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, तब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ चाय पी, कई राष्ट्रीय मंचों पर भजन गाए, ताज महोत्सव से लेकर रामायण उत्सव तक में परफॉर्म किया।शबीना कहती हैं- “पापा न होते, तो मैं कुछ नहीं कर पाती। जो भी मिला है, उनके भरोसे और संघर्ष से मिला है।” चार भाई छोड़ गए, मां ही हैं सहारा पिता की मौत के बाद शबीना और उनकी मां नूरजहां अकेली रह गईं। चार भाई अब उनके साथ नहीं रहते। मां ही उनका सहारा हैं। वह कहती हैं,“मेरे गाने से मिलने वाली कमाई से घर चलाती हूं। सरकारी कार्यक्रमों और स्टेज शो से मां का खर्च उठाती हूं। पापा का सपना था कि मैं कभी किसी पर बोझ न बनूं।” ‘अब्बू की कब्र पर जाकर गाना चाहती हूं… लोग कहते हैं लड़कियां वहां नहीं जातीं… तब चुप हो जाती हूं। पर दिल हर बार यही कहता है– बस एक बार गा लूं उनके सामने…’ ये शब्द हैं लखनऊ की दिव्यांग सिंगर शबीना सैफी के, जिनकी आंखों में रोशनी नहीं, पैरों में ताकत नहीं, लेकिन आवाज में ऐसा दर्द और श्रद्धा है कि सुनने वालों की आंखें नम हो जाएं। फादर्स डे पर शबीना की सबसे बड़ी ख्वाहिश है- अपने पिता की कब्र पर जाकर उन्हें गाकर श्रद्धांजलि देना। लेकिन समाज की बंदिशें उसकी राह रोक देती हैं। फिर भी वह हार नहीं मानतीं… हर साल घर के एक कोने में बैठकर गाती हैं अब्बू के लिए वो गाना…जो उन्होंने कभी सुनाया था, और जिसके सुरों में आज भी उसकी दुनिया सांस लेती है। भास्कर रिपोर्टर से दिव्यांग सिंगर से बातचीत पढ़िए “लड़कियां कब्रिस्तान नहीं जातीं…” हर फादर्स डे पर जब यह शब्द शबीना सैफी सुनती हैं, तो उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं… जो आंखें अब दुनिया को नहीं देख सकतीं, लेकिन उनके भीतर एक तस्वीर बसी है—अपने अब्बू की। वे कहती हैं, “पापा की कब्र पर जाकर गाना चाहती हूं। वही गाना जो उन्हें पसंद था। पर कोई साथ नहीं जाता, कहते हैं बेटियां वहां नहीं जातीं।” फादर्स डे पर कोने में बैठकर गाती हैं अब्बू के लिए गाना लखनऊ की रहने वाली शबीना सैफी, 30 साल की हैं। आंखों से देख नहीं सकतीं, पैरों से चल नहीं सकतीं, लेकिन आवाज ऐसी कि हजारों लोग मंत्रमुग्ध हो जाएं। बालागंज के बसंतकुंज में एक कमरे के मकान में मां नूरजहां के साथ रहती हैं। हर साल फादर्स डे पर शबीना अपने घर के कोने में बैठती हैं और अब्बू के नाम एक भजन गाती हैं। वह कहती हैं-“अब्बू जिंदा थे, तो गोद में लेकर इंडियन आइडियल, सारेगामापा जैसे शो में ले जाते थे। पूरा दिन लाइन में खड़े रहते थे। आज जब मैं सिंगर बन गई हूं, तो बस उनकी कब्र पर जाकर गाना गाना चाहती हूं।” पापा को कभी देखा नहीं, लेकिन महसूस हर दिन किया है शबीना कहती हैं, “मैंने उन्हें कभी देखा नहीं, लेकिन उनकी मौजूदगी हमेशा अपने अंदर महसूस की है। उन्होंने ही मुझे बताया था कि दिव्यांग होना कोई रुकावट नहीं, बस हिम्मत मत हारना।” 2.5 साल में खो दी आंखें और पैर, अब्बू ने संभाला मां नूरजहां बताती हैं, “जब शबीना 2 साल की थी, तो पोलियो हो गया। फिर आंखों की रोशनी भी चली गई। ढाई साल की उम्र में वह पूरी तरह दिव्यांग हो गई। बाकी परिवार ने मुंह मोड़ लिया, लेकिन शौकत अली (अब्बू) ने बेटी को गोद में उठाया और गायक बनाने का सपना देख लिया। चार साल की उम्र से रियाज़ शुरू करवा दिया।” अब्बू के नाम पर खुले मेडिकल स्टोर तक पहुंची आवाज 2019 में राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, तब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ चाय पी, कई राष्ट्रीय मंचों पर भजन गाए, ताज महोत्सव से लेकर रामायण उत्सव तक में परफॉर्म किया।शबीना कहती हैं- “पापा न होते, तो मैं कुछ नहीं कर पाती। जो भी मिला है, उनके भरोसे और संघर्ष से मिला है।” चार भाई छोड़ गए, मां ही हैं सहारा पिता की मौत के बाद शबीना और उनकी मां नूरजहां अकेली रह गईं। चार भाई अब उनके साथ नहीं रहते। मां ही उनका सहारा हैं। वह कहती हैं,“मेरे गाने से मिलने वाली कमाई से घर चलाती हूं। सरकारी कार्यक्रमों और स्टेज शो से मां का खर्च उठाती हूं। पापा का सपना था कि मैं कभी किसी पर बोझ न बनूं।” उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
‘लड़कियां कब्रिस्तान नहीं जातीं…सुनकर चुप रह जाती हूं:राष्ट्रपति अवॉर्ड पाने वाली दिव्यांग सिंगर बोलीं- फादर्स डे पर दिल कहता है अब्बू की कब्र पर गाना गाऊं
