हरियाणा में 3 ऐसे गांव हैं, जहां होलिका दहन नहीं होता है। हालांकि 2 गांवों में तो रंगों की होली खेली जाती है, लेकिन एक गांव में बिल्कुल भी रंग नहीं उड़ाया जाता है। तीनों गांवों में होलिका दहन न करने के अलग-अलग कारण हैं। वहीं एक गांव में त्योहार के अगले दिन होली खेली जाती है। कैथल के गांव में 300 सालों से होली नहीं मनाई जा रही है। यहां होलिका दहन के दिन मजाक करने से गुस्से हुए साधु ने आग में कूदकर जान दे दी थी। उस वक्त साधु ने श्राप दिया था कि जो होली मनाएगा उसके साथ अनहोनी होगी। तब से यहां होली नहीं मनाई जा रही। रेवाड़ी के गांव में 500 साल से होलिका दहन नहीं हुआ। यहां एक बाबा ने होलिका दहन न करने का नियम बनाया था। जिसे लोग मानते हैं, लेकिन अगले दिन होली खेलते हैं। झज्जर के भी एक गांव में कई सालों से होलिका दहन नहीं हुआ। यहां होलिका दहन के दौरान एक गोवंश की आग में झुलसकर मौत हो गई थी। तब से यहां पूजा तो की जाती है, लेकिन होलिका दहन नहीं किया जाता। अब विस्तार से चारों गांवों की कहानियां पढ़िए…. कैथल: 300 साल पहले साधु ने दिया था श्राप
कैथल के दुसेरपुर गांव में 300 साल से होली का त्योहार नहीं मनाया जा रहा। ग्रामीण बताते हैं कि यहां 300 साल पहले होली दहन के लिए गांव के लोग सूखी लकड़ियां, उपले और अन्य चीजें इकट्ठा कर रहे थे। इस बीच कुछ युवाओं ने समय से पहले ही होलिका दहन कर दिया। ऐसा होता देख गांव के स्नेही राम साधु ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन वो नहीं माने। बात मानना तो दूर उन युवकों ने साधु के छोटे कद का मजाक उड़ाया। इससे साधु गुस्सा हो गए। वह जलती हुई होलिका में कूद गए। जलते हुए उन्होंने श्राप दिया कि आज के बाद इस गांव में होली नहीं मनेगी। जो भी होली मनाएगा, उसके साथ अनहोनी होना शुरू हो जाएगी। इस सूचना पर गांव के मौजिज व्यक्ति मौके पर पहुंच गए और साधु से श्राप मुक्ति के लिए प्रार्थना की। श्राप से मुक्ति का उपाय भी बताया
ग्रामीणों को गिड़गिड़ाते देख साधु ने कहा कि अगर गांव में होली के दिन कोई गाय बछड़े को जन्म दे या किसी घर में बच्चा पैदा हो जाए तो इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी। 300 साल हो चुके हैं, मगर न तो कोई बछड़ा होली के दिन पैदा हुआ और न ही बच्चा। इस गांव के लोग आज भी पर्व मनाने के लिए घरों से बाहर नहीं निकलते। रेवाड़ी: बाबा ने होलिका दहन न करने का नियम बनाया
रेवाड़ी के टीकला गांव में 500 साल से होलिका दहन नहीं हो रहा। बाबा भगवानदास ने होलिका दहन नहीं करने का नियम बनाया था, जिस पर ग्रामीण आज भी कायम हैं। इस गांव में बाबा भगवानदास ने तपस्या की थी और यहीं पर समाधि ली। यहां समाधि स्थल पर मंदिर बनाया गया है। बाबा ने तपस्या के समय ग्रामीणों को अनावश्यक खर्च से बचाने को नियम बनाया था कि वह केवल धुलेंडी (फाग) का त्योहार ही मनाएंगें। होलिका दहन नहीं होगा। इस दिन भी बाजार से मिठाई लाने की बजाए घर पर ही लोग खीर-हलवा और चूरमा बना सकते हैं। उसके बाद से लोग बाबा का नियम मानते हुए केवल धुलेंडी के दिन धूमधाम से फाग खेलते हैं। लोग हुक्का-बीड़ी नहीं पीते
यही नहीं बाबा ने ग्रामीणों से हुक्का, बीड़ी और शराब से दूरी बनाने का आह्वान किया था। बाबा के आदेश को मानते हुए इतने साल बाद भी हुक्का-बीड़ी काे ग्रामीण हाथ नहीं लगा रहे। ज्यादातर ग्रामीण शराब भी नहीं पीते। इतना ही नहीं, आसपास के कुछ गांवों में भी बाबा की मान्यता है। बाबा का आदेश बन गया नियम
टीकला पंचायत के सरपंच प्रतिनिधि बिरेंद्र टोकस ने बताया कि 500 साल से गांव में बाबा भगवानदास का नियम चला आ रहा है। जिसके कारण होलिका दहन नहीं होता। बाबा फिजूलखर्ची के सख्त खिलाफ थे, इसी वजह से यहां केवल धुलेंडी का त्योहार मनाया जाता है। झज्जर: जलती होलिका में गिर गए थे 2 गोवंश
झज्जर के झासंवा गांव में होली के दिन पूजा तो की जाती है, लेकिन शाम के समय में होलिका दहन नहीं किया जाता। बुजुर्गों के मुताबिक जब गांव में होलिका पूजन के बाद होलिका दहन किया जा रहा था तो उसी समय 2 गोवंश आपस में लड़ते हुए जलती हुई होलिका में गिर पड़े। लोगों ने उन्हें बचाने का काफी प्रयास किया, लेकिन एक की ज्यादा झुलसने के कारण मौत हो गई। इसके बाद ग्रामीणों ने मिलकर फैसला किया कि अब होलिका दहन नहीं किया जाएगा। हर साल गांव में होलिका पूजन होता है, लेकिन कभी होलिका दहन नहीं किया जाता। ग्रामीणों ने बताया कि होलिका दहन गांव में तब तक नहीं होगा, जब तक कोई गाय इसी दिन बछड़ा पैदा न कर ले। वहीं अगर गांव में होली के दिन अगर किसी घर में बेटा पैदा होता है या गाय बछड़ा देती है तो होलिका दहन फिर मनाना शुरू कर दिया जाएगा। दादरी: 167 साल से अगले दिन मनाई जाती है धुलेंडी
चरखी दादरी जिले के गांव चांदवास में 167 साल से होली का त्योहार फाग के दूसरे दिन मनाया जाता है। ग्रामीण रामभगत ने बताया कि वे पूर्वजों से सुनते आ रहे हैं कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद जींद रियासत अंग्रेजों ने एक सरदार को सौंपी थी। उसने गांव से अनुसूचित वर्ग के लोगों को निकालकर पास में अलग से बसाया था। उन लोगों ने वहां अपनी झोपड़ियां बनाई हुई थीं। रामभगत के अनुसार 1858 में रात को होलिका दहन हुआ था और अगले दिन वहां रहने वाले लोग गांव में धुलेंडी खेलने के लिए गए हुए थे। उस दौरान तेज आंधी आ गई और जहां होलिका दहन हुआ था वहां से चिंगारी निकली और झोपड़ियों में आग लग गई। फाग खेल रहे लोगों ने आग की लपटें देखी तो वहां पहुंचे और अपने स्तर पर आग पर काबू पाने का प्रयास किया, लेकिन आग फैल चुकी थी और आंधी चलने के कारण काबू नहीं पाया जा सका। इस आग में वहां रह रहे 15 से 20 परिवारों की झोपड़ियों के साथ घरेलू सामान, गाय, बकरी व दो से तीन छोटे बच्चे जल गए थे। बाद में ग्रामीणों ने होलिका दहन का स्थान बदला। उसके बाद से ग्रामीण धुलेंडी दूसरे दिन खेलते हैं। झज्जर के प्रसाद गिरी मंदिर में होली पर चढ़ते हैं पंखे
झज्जर के बाबा प्रसाद गिरी मंदिर में होली के दिन पंखे चढ़ाए जाते हैं। जिन लोगों की मन्नतें पूरी हो जाती हैं वे यहां पंखे दान करते हैं। यह परंपरा 300 सालों से चली आ रही है। हर साल की तरह इस बार भी समारोह और भंडारे की तैयारी है। मंदिर के महंत परमानंद महाराज ने बताया कि पहले के जमाने में लोग कागज के पंखे दान करते थे। आज कल लोग मोटर के पंखे, कूलर और एसी दान करने लगे हैं। जिन भक्तों की मन्नतें पूरी होती हैं वे मंदिर में दान देते हैं। हरियाणा में 3 ऐसे गांव हैं, जहां होलिका दहन नहीं होता है। हालांकि 2 गांवों में तो रंगों की होली खेली जाती है, लेकिन एक गांव में बिल्कुल भी रंग नहीं उड़ाया जाता है। तीनों गांवों में होलिका दहन न करने के अलग-अलग कारण हैं। वहीं एक गांव में त्योहार के अगले दिन होली खेली जाती है। कैथल के गांव में 300 सालों से होली नहीं मनाई जा रही है। यहां होलिका दहन के दिन मजाक करने से गुस्से हुए साधु ने आग में कूदकर जान दे दी थी। उस वक्त साधु ने श्राप दिया था कि जो होली मनाएगा उसके साथ अनहोनी होगी। तब से यहां होली नहीं मनाई जा रही। रेवाड़ी के गांव में 500 साल से होलिका दहन नहीं हुआ। यहां एक बाबा ने होलिका दहन न करने का नियम बनाया था। जिसे लोग मानते हैं, लेकिन अगले दिन होली खेलते हैं। झज्जर के भी एक गांव में कई सालों से होलिका दहन नहीं हुआ। यहां होलिका दहन के दौरान एक गोवंश की आग में झुलसकर मौत हो गई थी। तब से यहां पूजा तो की जाती है, लेकिन होलिका दहन नहीं किया जाता। अब विस्तार से चारों गांवों की कहानियां पढ़िए…. कैथल: 300 साल पहले साधु ने दिया था श्राप
कैथल के दुसेरपुर गांव में 300 साल से होली का त्योहार नहीं मनाया जा रहा। ग्रामीण बताते हैं कि यहां 300 साल पहले होली दहन के लिए गांव के लोग सूखी लकड़ियां, उपले और अन्य चीजें इकट्ठा कर रहे थे। इस बीच कुछ युवाओं ने समय से पहले ही होलिका दहन कर दिया। ऐसा होता देख गांव के स्नेही राम साधु ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन वो नहीं माने। बात मानना तो दूर उन युवकों ने साधु के छोटे कद का मजाक उड़ाया। इससे साधु गुस्सा हो गए। वह जलती हुई होलिका में कूद गए। जलते हुए उन्होंने श्राप दिया कि आज के बाद इस गांव में होली नहीं मनेगी। जो भी होली मनाएगा, उसके साथ अनहोनी होना शुरू हो जाएगी। इस सूचना पर गांव के मौजिज व्यक्ति मौके पर पहुंच गए और साधु से श्राप मुक्ति के लिए प्रार्थना की। श्राप से मुक्ति का उपाय भी बताया
ग्रामीणों को गिड़गिड़ाते देख साधु ने कहा कि अगर गांव में होली के दिन कोई गाय बछड़े को जन्म दे या किसी घर में बच्चा पैदा हो जाए तो इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी। 300 साल हो चुके हैं, मगर न तो कोई बछड़ा होली के दिन पैदा हुआ और न ही बच्चा। इस गांव के लोग आज भी पर्व मनाने के लिए घरों से बाहर नहीं निकलते। रेवाड़ी: बाबा ने होलिका दहन न करने का नियम बनाया
रेवाड़ी के टीकला गांव में 500 साल से होलिका दहन नहीं हो रहा। बाबा भगवानदास ने होलिका दहन नहीं करने का नियम बनाया था, जिस पर ग्रामीण आज भी कायम हैं। इस गांव में बाबा भगवानदास ने तपस्या की थी और यहीं पर समाधि ली। यहां समाधि स्थल पर मंदिर बनाया गया है। बाबा ने तपस्या के समय ग्रामीणों को अनावश्यक खर्च से बचाने को नियम बनाया था कि वह केवल धुलेंडी (फाग) का त्योहार ही मनाएंगें। होलिका दहन नहीं होगा। इस दिन भी बाजार से मिठाई लाने की बजाए घर पर ही लोग खीर-हलवा और चूरमा बना सकते हैं। उसके बाद से लोग बाबा का नियम मानते हुए केवल धुलेंडी के दिन धूमधाम से फाग खेलते हैं। लोग हुक्का-बीड़ी नहीं पीते
यही नहीं बाबा ने ग्रामीणों से हुक्का, बीड़ी और शराब से दूरी बनाने का आह्वान किया था। बाबा के आदेश को मानते हुए इतने साल बाद भी हुक्का-बीड़ी काे ग्रामीण हाथ नहीं लगा रहे। ज्यादातर ग्रामीण शराब भी नहीं पीते। इतना ही नहीं, आसपास के कुछ गांवों में भी बाबा की मान्यता है। बाबा का आदेश बन गया नियम
टीकला पंचायत के सरपंच प्रतिनिधि बिरेंद्र टोकस ने बताया कि 500 साल से गांव में बाबा भगवानदास का नियम चला आ रहा है। जिसके कारण होलिका दहन नहीं होता। बाबा फिजूलखर्ची के सख्त खिलाफ थे, इसी वजह से यहां केवल धुलेंडी का त्योहार मनाया जाता है। झज्जर: जलती होलिका में गिर गए थे 2 गोवंश
झज्जर के झासंवा गांव में होली के दिन पूजा तो की जाती है, लेकिन शाम के समय में होलिका दहन नहीं किया जाता। बुजुर्गों के मुताबिक जब गांव में होलिका पूजन के बाद होलिका दहन किया जा रहा था तो उसी समय 2 गोवंश आपस में लड़ते हुए जलती हुई होलिका में गिर पड़े। लोगों ने उन्हें बचाने का काफी प्रयास किया, लेकिन एक की ज्यादा झुलसने के कारण मौत हो गई। इसके बाद ग्रामीणों ने मिलकर फैसला किया कि अब होलिका दहन नहीं किया जाएगा। हर साल गांव में होलिका पूजन होता है, लेकिन कभी होलिका दहन नहीं किया जाता। ग्रामीणों ने बताया कि होलिका दहन गांव में तब तक नहीं होगा, जब तक कोई गाय इसी दिन बछड़ा पैदा न कर ले। वहीं अगर गांव में होली के दिन अगर किसी घर में बेटा पैदा होता है या गाय बछड़ा देती है तो होलिका दहन फिर मनाना शुरू कर दिया जाएगा। दादरी: 167 साल से अगले दिन मनाई जाती है धुलेंडी
चरखी दादरी जिले के गांव चांदवास में 167 साल से होली का त्योहार फाग के दूसरे दिन मनाया जाता है। ग्रामीण रामभगत ने बताया कि वे पूर्वजों से सुनते आ रहे हैं कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद जींद रियासत अंग्रेजों ने एक सरदार को सौंपी थी। उसने गांव से अनुसूचित वर्ग के लोगों को निकालकर पास में अलग से बसाया था। उन लोगों ने वहां अपनी झोपड़ियां बनाई हुई थीं। रामभगत के अनुसार 1858 में रात को होलिका दहन हुआ था और अगले दिन वहां रहने वाले लोग गांव में धुलेंडी खेलने के लिए गए हुए थे। उस दौरान तेज आंधी आ गई और जहां होलिका दहन हुआ था वहां से चिंगारी निकली और झोपड़ियों में आग लग गई। फाग खेल रहे लोगों ने आग की लपटें देखी तो वहां पहुंचे और अपने स्तर पर आग पर काबू पाने का प्रयास किया, लेकिन आग फैल चुकी थी और आंधी चलने के कारण काबू नहीं पाया जा सका। इस आग में वहां रह रहे 15 से 20 परिवारों की झोपड़ियों के साथ घरेलू सामान, गाय, बकरी व दो से तीन छोटे बच्चे जल गए थे। बाद में ग्रामीणों ने होलिका दहन का स्थान बदला। उसके बाद से ग्रामीण धुलेंडी दूसरे दिन खेलते हैं। झज्जर के प्रसाद गिरी मंदिर में होली पर चढ़ते हैं पंखे
झज्जर के बाबा प्रसाद गिरी मंदिर में होली के दिन पंखे चढ़ाए जाते हैं। जिन लोगों की मन्नतें पूरी हो जाती हैं वे यहां पंखे दान करते हैं। यह परंपरा 300 सालों से चली आ रही है। हर साल की तरह इस बार भी समारोह और भंडारे की तैयारी है। मंदिर के महंत परमानंद महाराज ने बताया कि पहले के जमाने में लोग कागज के पंखे दान करते थे। आज कल लोग मोटर के पंखे, कूलर और एसी दान करने लगे हैं। जिन भक्तों की मन्नतें पूरी होती हैं वे मंदिर में दान देते हैं। हरियाणा | दैनिक भास्कर
