कहानीकार मुंशी प्रेमचंद ने कई रचनाएं अपने गांव लमही के किरदारों पर लिखीं। फिर चाहे वो मैकू के ताड़ीखाने पहुंचने की कहानी हो या हामिद और उसकी दादी हों। सब इसी गांव से जुड़े हैं। गोदान, कफन, ईदगाह, दो बैलों की कहानी इस गांव के आस-पास बुनी गई। लमही गांव बदला, वैसे-वैसे गांव के ये किरदार भी बदलते चले गए। जिस ईदगाह को मुंशी प्रेमचंद ने कहानी में गढ़ा, उसकी दीवारें आज पक्की हो चुकी हैं। हम मैकू के वंशजों से मिलने पहुंचे। यहां 2 मंजिल का पक्का मकान खड़ा मिला। यहां उनके बेटे ने कहानी लिखने की स्टोरी सुना दी। भड़भूजा रघु के परपोते के घर के बाहर अब भट्ठी नहीं लगती, यहां एक शानदार दुकान दिखी। कहानी कफन के किरदार घीसू के परिवार में उनकी परनातिन मिलीं, जो अब कॉलेज में पढ़ती हैं। आज मुंशी प्रेमचंद की 144वीं जयंती हैं। इस दिन को जीवंत करने के लिए दैनिक भास्कर की टीम वाराणसी से 10 किमी दूर लमही गांव पहुंची… सबसे पहले हम मुंशीजी की कहानी के किरदार मैकू के घर पहुंचे। नई बस्ती में बने घर में मैकूलाल के 4 लड़के रहते हैं। इनमें कैलाश प्रसाद प्रजापति और राजेंद्र प्रसाद प्रजापति मिट्टी के सामान बनाते हैं। कैलाश ने कहा- हमारे पिता पर कहानी लिखे जाने के पीछे भी एक कहानी है, जोकि हमारी मां ने हमें बताई। ताड़ीखाने में ताड़ी पीने के दौरान मुंशी प्रेमचंद और हमारे पापा मैकू की मुलाकात हुई। फिर उन्हें प्रेस में काम दिया गया। इसके बाद मुंशीजी ने उनके ऊपर कहानी लिख डाली। हमने इस बातचीत के बीच कैलाश के घर पर ध्यान दिया। उस पर प्लास्टर नहीं था। कमरे के कोने में एक पुराना ब्लैक एंड वाइट टीवी लगा हुआ है। कैलाश ने कहा- हमारा मकान कच्चा था, लेकिन अब पक्का हो गया है, हालांकि अभी प्लास्टर नहीं करवा पाए हैं। कैलाश के एक बेटे धर्मेंद्र प्रजापति आबकारी विभाग में बैक ऑफिस में संविदा पर नौकरी करते हैं। दूसरे बेटे महेंद्र साड़ी की छपाई के कारखाने में काम करते हैं। महेंद्र ने कहा- मैंने हाई स्कूल तक पढ़ाई की है। कोई जॉब नहीं है। हमें रोजगार चाहिए। अब मुंशी प्रेमचंद के गांव के बारे में पढ़िए… गांव का रास्ता कहानियों के किरदार से कराता है रुबरू
मुंशी प्रेमचंद का लमही गांव वाराणसी-आजमगढ़ हाईवे पर है। यह रास्ता गोदान के होरी-धनिया, पूस की रात के हलकू जैसे तमाम किरदारों से रुबरू कराता है। मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही का प्रवेश द्वार है, इसके दोनों ओर बैठे बैल हीरा और मोती की याद दिलाते हैं। वहीं हल लिए किसान को देखकर ‘गोदान’ के हीरो-होरी की यादें ताजा हो जाती हैं। जन्मदिन पर भी स्मृति द्वार की न तो कायदे से साफ-सफाई हुई और न ही वहां बने दो बैलों की जोड़ी की। अब हम प्रेमचंद के घर पहुंचे। मुंशी प्रेमचंद को लमही के लोग आज भी धनपत राय के नाम से ही जानते हैं। इसके ठीक सामने प्रेमचंद रिसर्च सेंटर हैं। उनके घर में एक पुराना कुआं आज भी मौजूद है। यहां पास में प्रेमचंद का स्मारक बना हुआ है। यहां एक चिमटा टंगा है, जो ईदगाह कहानी के हामिद और उसकी दादी की याद दिलाता है। चिमटे के बगल में खिड़की पर एक गुल्ली-डंडा लटका है। गांव के लोगों ने बताया कि प्रेमचंद को गुल्ली-डंडे का खेल बहुत पसंद था। प्रेमचंद जहां लिखते थे कहानी, वो जगह अब बदहाल
दुनिया को गांव, गरीबी और जन आंदोलनों की कहानी से रुबरू कराने वाले मुंशी प्रेमचंद की कर्मस्थली 2 दशक से अपने दिन बहुरने का इंतजार कर रही है। प्रेमचंद ने अपने इस कमरे से कई रचनाओं को लिखा, अब ये कमरे बदहाल हैं। भवन की दीवारें चटक गई हैं। स्मारक का हाल बद से भी बदतर है। लाइब्रेरी के ठीक बगल में प्रेमचंद का वह बैठका भी है, जिसके हर कोने में उनकी यादें दीमक चाट रही हैं। इसी बैठक के सबसे ऊपर के कमरे में प्रेमचंद लिखने-पढ़ने का काम करते थे। सबसे नीचे वाले हिस्से में किचन था। मेहमानों के ठहरने का इंतजाम किया गया था। तीन मंजिला के इस मकान के बीच में आंगन है। आंगन से होते हुए सीढ़ी पहली और दूसरी मंजिल तक ले जाती है। मकान में सबसे ऊपर दो कमरे बने हैं, जिसमें बैठकर मुंशीजी ने कई कालजयी रचनाएं लिखीं। बैठका के पश्चिम में बना कुआं तो है, लेकिन उस में पानी नहीं है। लोहे की बाड़ से उसे ढक दिया गया है। बनारस के साहित्यकारों के हस्तक्षेप के बाद उनके आवास को स्मारक के रूप में सहेजा गया। लेकिन दो छोटे-छोटे कमरों के अलावा अब यहां कुछ भी नहीं है। यहां न तो पर्यटकों की आवाजाही है और न ही साहित्यकारों की। विरासत की हिफाजत नहीं हो रही
मुंशी प्रेमचंद के प्रपौत्र दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव ने कहा- हर साल जयंती समारोह पर घोषणाएं तो होती हैं, मगर हुआ कुछ नहीं। साल 2005 में लमही में मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक बनाने की घोषणा हुई। म्यूजियम और पुस्तकालय बनाने का वादा किया गया। कुछ साल पहले शासन ने 7 करोड़ रुपए रिलीज भी किए, लेकिन नौकरशाही ने प्रेमचंद स्मारक को विवादित बताते हुए समूचा धन लौटा दिया। जबकि कोई विवाद है ही नहीं, क्योंकि इनके बैठका और स्मारक को कई साल पहले बनारस की साहित्यिक संस्था नागरी प्रचारणी सभा को दान में दे दिया गया था। इसके बाद हम मुंशी प्रेमचंद के शोध एवं अध्ययन केंद्र पहुंचे… करोड़ों की कीमत से बना अध्ययन केंद्र बंद मिला
2.80 करोड़ से बना मुंशी प्रेमचंद शोध एवं अध्ययन केंद्र बंद मिला। वजह, अभी तक सरकार की ओर से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी कोई नियुक्ति नहीं हुई। 2005 में यूपी सरकार ने केंद्र सरकार को जमीन मुहैया कराई। इसके बाद मानव संसाधन मंत्रालय ने कमेटी बनाकर BHU के हिंदी विभाग को निर्माण करवाने की जिम्मेदारी दी। निर्माण के बाद 8 साल तक भवन उद्घाटन के लिए तरसता रहा। 2016 में केंद्रीय मंत्री महेंद्रनाथ पांडेय ने उद्घाटन किया। इसके बाद भी कोई कार्य नहीं हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रांतीय महासचिव डॉ. संजय श्रीवास्तव ने कहा- तमाम प्रयास के बाद इस शोध केंद्र को खोला गया। मगर, केंद्र सरकार से इसके लिए निदेशक, शोध विशेषज्ञों और कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं हुई। इसके चलते शिक्षण कार्य शुरू नहीं हुआ। BHU हिंदी विभाग के पूर्व प्रो. कुमार पंकज ने कहा- निदेशक, लाइब्रेरियन की नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालय के कुलपति को प्रपोजल दिया गया था। मगर, इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ। BHU हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ अनूप ने बताया- अभी तक शोध केंद्र के संबंध में कोई बातचीत नहीं हुई है। सरकार के स्तर से भी नियुक्ति की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की गई है। यह भी पढ़ें :- प्रेमचंद की जयंती पर उनकी 10 सबसे बड़ी सीख:सियासत से लेकर प्रेम तक; प्रेमचंद ने जो लिखा वह अमर हो गया प्रेमचंद! वह लेखक, जिसने अपने लिखे से सबको दीवाना बना लिया। जिनका लिखा आज उनकी मौत के लगभग 90 वर्षों बाद भी उतना ही कारगर, वैसा ही जादू जगाता हुआ। कबीर को अगर ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा गया, तो प्रेमचंद ‘कलम के सिपाही’ थे। पैदा हुए 1880 में। उसी वाराणसी में, जिसे मोक्षदायिनी भी कहते हैं। पढ़िए पूरी खबर… कहानीकार मुंशी प्रेमचंद ने कई रचनाएं अपने गांव लमही के किरदारों पर लिखीं। फिर चाहे वो मैकू के ताड़ीखाने पहुंचने की कहानी हो या हामिद और उसकी दादी हों। सब इसी गांव से जुड़े हैं। गोदान, कफन, ईदगाह, दो बैलों की कहानी इस गांव के आस-पास बुनी गई। लमही गांव बदला, वैसे-वैसे गांव के ये किरदार भी बदलते चले गए। जिस ईदगाह को मुंशी प्रेमचंद ने कहानी में गढ़ा, उसकी दीवारें आज पक्की हो चुकी हैं। हम मैकू के वंशजों से मिलने पहुंचे। यहां 2 मंजिल का पक्का मकान खड़ा मिला। यहां उनके बेटे ने कहानी लिखने की स्टोरी सुना दी। भड़भूजा रघु के परपोते के घर के बाहर अब भट्ठी नहीं लगती, यहां एक शानदार दुकान दिखी। कहानी कफन के किरदार घीसू के परिवार में उनकी परनातिन मिलीं, जो अब कॉलेज में पढ़ती हैं। आज मुंशी प्रेमचंद की 144वीं जयंती हैं। इस दिन को जीवंत करने के लिए दैनिक भास्कर की टीम वाराणसी से 10 किमी दूर लमही गांव पहुंची… सबसे पहले हम मुंशीजी की कहानी के किरदार मैकू के घर पहुंचे। नई बस्ती में बने घर में मैकूलाल के 4 लड़के रहते हैं। इनमें कैलाश प्रसाद प्रजापति और राजेंद्र प्रसाद प्रजापति मिट्टी के सामान बनाते हैं। कैलाश ने कहा- हमारे पिता पर कहानी लिखे जाने के पीछे भी एक कहानी है, जोकि हमारी मां ने हमें बताई। ताड़ीखाने में ताड़ी पीने के दौरान मुंशी प्रेमचंद और हमारे पापा मैकू की मुलाकात हुई। फिर उन्हें प्रेस में काम दिया गया। इसके बाद मुंशीजी ने उनके ऊपर कहानी लिख डाली। हमने इस बातचीत के बीच कैलाश के घर पर ध्यान दिया। उस पर प्लास्टर नहीं था। कमरे के कोने में एक पुराना ब्लैक एंड वाइट टीवी लगा हुआ है। कैलाश ने कहा- हमारा मकान कच्चा था, लेकिन अब पक्का हो गया है, हालांकि अभी प्लास्टर नहीं करवा पाए हैं। कैलाश के एक बेटे धर्मेंद्र प्रजापति आबकारी विभाग में बैक ऑफिस में संविदा पर नौकरी करते हैं। दूसरे बेटे महेंद्र साड़ी की छपाई के कारखाने में काम करते हैं। महेंद्र ने कहा- मैंने हाई स्कूल तक पढ़ाई की है। कोई जॉब नहीं है। हमें रोजगार चाहिए। अब मुंशी प्रेमचंद के गांव के बारे में पढ़िए… गांव का रास्ता कहानियों के किरदार से कराता है रुबरू
मुंशी प्रेमचंद का लमही गांव वाराणसी-आजमगढ़ हाईवे पर है। यह रास्ता गोदान के होरी-धनिया, पूस की रात के हलकू जैसे तमाम किरदारों से रुबरू कराता है। मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही का प्रवेश द्वार है, इसके दोनों ओर बैठे बैल हीरा और मोती की याद दिलाते हैं। वहीं हल लिए किसान को देखकर ‘गोदान’ के हीरो-होरी की यादें ताजा हो जाती हैं। जन्मदिन पर भी स्मृति द्वार की न तो कायदे से साफ-सफाई हुई और न ही वहां बने दो बैलों की जोड़ी की। अब हम प्रेमचंद के घर पहुंचे। मुंशी प्रेमचंद को लमही के लोग आज भी धनपत राय के नाम से ही जानते हैं। इसके ठीक सामने प्रेमचंद रिसर्च सेंटर हैं। उनके घर में एक पुराना कुआं आज भी मौजूद है। यहां पास में प्रेमचंद का स्मारक बना हुआ है। यहां एक चिमटा टंगा है, जो ईदगाह कहानी के हामिद और उसकी दादी की याद दिलाता है। चिमटे के बगल में खिड़की पर एक गुल्ली-डंडा लटका है। गांव के लोगों ने बताया कि प्रेमचंद को गुल्ली-डंडे का खेल बहुत पसंद था। प्रेमचंद जहां लिखते थे कहानी, वो जगह अब बदहाल
दुनिया को गांव, गरीबी और जन आंदोलनों की कहानी से रुबरू कराने वाले मुंशी प्रेमचंद की कर्मस्थली 2 दशक से अपने दिन बहुरने का इंतजार कर रही है। प्रेमचंद ने अपने इस कमरे से कई रचनाओं को लिखा, अब ये कमरे बदहाल हैं। भवन की दीवारें चटक गई हैं। स्मारक का हाल बद से भी बदतर है। लाइब्रेरी के ठीक बगल में प्रेमचंद का वह बैठका भी है, जिसके हर कोने में उनकी यादें दीमक चाट रही हैं। इसी बैठक के सबसे ऊपर के कमरे में प्रेमचंद लिखने-पढ़ने का काम करते थे। सबसे नीचे वाले हिस्से में किचन था। मेहमानों के ठहरने का इंतजाम किया गया था। तीन मंजिला के इस मकान के बीच में आंगन है। आंगन से होते हुए सीढ़ी पहली और दूसरी मंजिल तक ले जाती है। मकान में सबसे ऊपर दो कमरे बने हैं, जिसमें बैठकर मुंशीजी ने कई कालजयी रचनाएं लिखीं। बैठका के पश्चिम में बना कुआं तो है, लेकिन उस में पानी नहीं है। लोहे की बाड़ से उसे ढक दिया गया है। बनारस के साहित्यकारों के हस्तक्षेप के बाद उनके आवास को स्मारक के रूप में सहेजा गया। लेकिन दो छोटे-छोटे कमरों के अलावा अब यहां कुछ भी नहीं है। यहां न तो पर्यटकों की आवाजाही है और न ही साहित्यकारों की। विरासत की हिफाजत नहीं हो रही
मुंशी प्रेमचंद के प्रपौत्र दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव ने कहा- हर साल जयंती समारोह पर घोषणाएं तो होती हैं, मगर हुआ कुछ नहीं। साल 2005 में लमही में मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक बनाने की घोषणा हुई। म्यूजियम और पुस्तकालय बनाने का वादा किया गया। कुछ साल पहले शासन ने 7 करोड़ रुपए रिलीज भी किए, लेकिन नौकरशाही ने प्रेमचंद स्मारक को विवादित बताते हुए समूचा धन लौटा दिया। जबकि कोई विवाद है ही नहीं, क्योंकि इनके बैठका और स्मारक को कई साल पहले बनारस की साहित्यिक संस्था नागरी प्रचारणी सभा को दान में दे दिया गया था। इसके बाद हम मुंशी प्रेमचंद के शोध एवं अध्ययन केंद्र पहुंचे… करोड़ों की कीमत से बना अध्ययन केंद्र बंद मिला
2.80 करोड़ से बना मुंशी प्रेमचंद शोध एवं अध्ययन केंद्र बंद मिला। वजह, अभी तक सरकार की ओर से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी कोई नियुक्ति नहीं हुई। 2005 में यूपी सरकार ने केंद्र सरकार को जमीन मुहैया कराई। इसके बाद मानव संसाधन मंत्रालय ने कमेटी बनाकर BHU के हिंदी विभाग को निर्माण करवाने की जिम्मेदारी दी। निर्माण के बाद 8 साल तक भवन उद्घाटन के लिए तरसता रहा। 2016 में केंद्रीय मंत्री महेंद्रनाथ पांडेय ने उद्घाटन किया। इसके बाद भी कोई कार्य नहीं हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रांतीय महासचिव डॉ. संजय श्रीवास्तव ने कहा- तमाम प्रयास के बाद इस शोध केंद्र को खोला गया। मगर, केंद्र सरकार से इसके लिए निदेशक, शोध विशेषज्ञों और कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं हुई। इसके चलते शिक्षण कार्य शुरू नहीं हुआ। BHU हिंदी विभाग के पूर्व प्रो. कुमार पंकज ने कहा- निदेशक, लाइब्रेरियन की नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालय के कुलपति को प्रपोजल दिया गया था। मगर, इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ। BHU हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ अनूप ने बताया- अभी तक शोध केंद्र के संबंध में कोई बातचीत नहीं हुई है। सरकार के स्तर से भी नियुक्ति की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की गई है। यह भी पढ़ें :- प्रेमचंद की जयंती पर उनकी 10 सबसे बड़ी सीख:सियासत से लेकर प्रेम तक; प्रेमचंद ने जो लिखा वह अमर हो गया प्रेमचंद! वह लेखक, जिसने अपने लिखे से सबको दीवाना बना लिया। जिनका लिखा आज उनकी मौत के लगभग 90 वर्षों बाद भी उतना ही कारगर, वैसा ही जादू जगाता हुआ। कबीर को अगर ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा गया, तो प्रेमचंद ‘कलम के सिपाही’ थे। पैदा हुए 1880 में। उसी वाराणसी में, जिसे मोक्षदायिनी भी कहते हैं। पढ़िए पूरी खबर… उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
जहां मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ, वहां से रिपोर्ट:लमही के जिस ईदगाह पर कहानी लिखी, उसकी दीवारें पक्की हुईं; मैकू के वंशज ने सुनाई कहानियां
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