राहुल-प्रियंका के करीबी और पश्चिमी यूपी के कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने साफ कर दिया कि 80 में 17 का फॉर्मूला अब स्वीकार नहीं। मसूद ने साफ कहा कि हम लोग इस बार किसी को जिताने या हराने के लिए नहीं लड़ेंगे। हमारा संघर्ष कांग्रेस के आधार को वापस लाने के लिए होगा। इमरान मसूद का बयान ऐसे वक्त आया है, जब कांग्रेस ने प्रदेश में जिलाध्यक्षों और महानगर अध्यक्षों की सूची में पिछड़ों के बाद सबसे ज्यादा जगह मुस्लिमों को दी है। सवाल यह है कि जिस सपा-कांग्रेस गठबंधन ने भाजपा को बहुमत पाने से रोक दिया था, क्या उसकी गांठें ढीली हो चुकी हैं? गठबंधन टूटने का किसे फायदा या नुकसान होगा? पढ़िए यह रिपोर्ट… इन दो मौकों पर दिखी तल्खी
पहला- संभल हिंसा के बाद जब राहुल-प्रियंका वहां जाना चाहते थे, तो सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कमेंट किया। बिना नाम लिए कहा था- जो लोग वहां जा सकते थे, उन्हें जाने देना चाहिए था। इससे स्थिति सुधर सकती थी। दूसरा- सपा संभल हिंसा को लोकसभा में जोरदार तरीके से उठाना चाहती थी, लेकिन कांग्रेस ने नहीं सुना। इस पर अखिलेश यादव ने कांग्रेस पर कटाक्ष किया था। गठबंधन में किसका फायदा, किसे नुकसान
राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह की इस बारे में बेबाक राय है। वह कहते हैं- 2017 विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन के परिणामों को देखें तो सपा ही फायदे में रही। सपा का दोनों बार जीत का स्ट्राइक रेट कांग्रेस की तुलना में अच्छा रहा। 2017 के विधानसभा में सपा का स्ट्राइक रेट 15.77% और कांग्रेस का 6% था। लोकसभा 2024 में सपा का स्ट्राइक रेट 59% और कांग्रेस का 35% रहा। कांग्रेस का दूसरा नुकसान यह हुआ कि कम सीटों पर लड़ने की वजह से बाकी जगह के कार्यकर्ता उससे दूर होते चले गए। गठबंधन में कांग्रेस का वोटबैंक भले ही 9.46% था, लेकिन इसमें सपा वोटरों की संख्या अधिक थी। लेकिन, इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि गठबंधन ने ही प्रदेश में मृतप्राय समझी जा रही कांग्रेस को फिर से जीवित कर दिया है। गठबंधन में चुनाव लड़ चुके सपा के कुछ वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि यूपी में कांग्रेस से गठबंधन नहीं होता तो शायद सपा की सीटें 37 से ज्यादा होतीं। अब क्यों गठबंधन में दिखने लगी दरार
दोनों दलों के कुछ वरिष्ठ नेताओं से बात करने पर पता चलता है कि इस गठबंधन में पहली बार दरार यूपी की 10 विधानसभा सीटों के उपचुनाव को लेकर सामने आई। गठबंधन में कांग्रेस ने कम से कम 3 सीटों की मांग रखी थी। फिर वह 2 सीटों पर राजी भी हो गई। लेकिन, कांग्रेस जो दो सीटें चाहती थी, उसे न देकर सपा उसे भाजपा की मजबूत प्रत्याशी वाली सीट दे रही थी। ऐसे में कांग्रेस ने मन मसोस कर उपचुनाव से खुद को अलग कर लिया। कांग्रेस ने उपचुनाव में सपा को सभी 10 सीटों पर इकतरफा समर्थन देने की बात कही। लेकिन, कांग्रेस अंदरखाने सहयोग की बजाय विरोध की रणनीति पर चली। परिणाम आया. तो सपा सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई। सपा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में इसका बदला लिया। उसने दिल्ली चुनाव में केजरीवाल (AAP) को समर्थन दे दिया, जबकि कांग्रेस से गठबंधन में है। अब सपा बिहार चुनाव में भी कांग्रेस की बजाय लालू प्रसाद की राजद को समर्थन देने जा रही है। इससे भी कांग्रेस को नाराज होने का मौका दे दिया है। कांग्रेस ने बदली रणनीति, संगठन मजबूत करने में जुटी
यूपी विधानसभा चुनाव में अभी 2 साल का समय है। 2027 में जब चुनाव में भाजपा उतरेगी, तो वह सत्ता में 10 साल रह चुकी होगी। ऐसे में कांग्रेस को उम्मीद है कि सरकार के प्रति होने वाली नाराजगी का उसे फायदा मिल सकता है। इसी के तहत कांग्रेस अपना संगठन मजबूत करने में जुटी है। हाल ही में प्रदेश संगठन ने एक साथ 134 जिला अध्यक्षों की सूची जारी की। इसमें ओबीसी, मुस्लिम, दलित और ब्राह्मणों को तरजीह देकर उसने साफ कर दिया है कि वह अपने 40 साल पुराने फॉर्मूले की ओर लौट आई है। इस फॉर्मूले से वह प्रदेश की 85 फीसदी आबादी को साधने की जुगत में है। संगठन की मजबूती के साथ कांग्रेस सपा पर भी दबाव की रणनीति पर आगे बढ़ती दिख रही है। वह अब 2027 के विधानसभा चुनाव में 2024 में हुए यूपी की 10 विधानसभा उपचुनाव के रिजल्ट का हवाला देकर सम्मानजनक समझौते के मूड में है। यूपी कांग्रेस के रणनीतिकारों में शामिल सहारनपुर सांसद इमरान मसूद ने भी दैनिक भास्कर से इंटरव्यू में इसी ओर इशारा किया था। उन्होंने कहा था कि अब 80 में 17 का फॉर्मूला नहीं चलेगा। 2027 में भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए सपा को कांग्रेस की जरूरत है। न कि कांग्रेस को सपा की जरूरत है। हम सम्मानजनक सीट मिलने पर ही समझौता करेंगे। उनका इशारा 175-200 सीटों की ओर था। लेकिन मसूद एक्चुअल संख्या बताने के सवाल को चतुराई से यह कहकर टाल गए कि ये पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राहुल-प्रियंका तय करेंगे। हमने उनकी ‘सम्मानजनक सीटों’ की बात को राजनीतिक एक्सपर्ट से समझने की कोशिश की। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह कहते हैं- 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 17 सीटों पर लड़ा था। इसको विधानसभा सीटों में गिनें, तो कुल 111 सीटें होती हैं। इससे पहले कांग्रेस 2017 में सपा के साथ गठबंधन में 105 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। दोनों बार के हालात अलग थे। गठबंधन की उम्मीदें धूमिल, अलग राह की तैयारी?
यूपी की सियासत के जानकारों की मानें, तो सपा और कांग्रेस के बीच रिश्तों में तनाव और दूरी काफी बढ़ गई है। उनकी राहें कभी भी जुदा हो सकती हैं। गांधी परिवार ने पहले अयोध्या धाम और फिर प्रयागराज महाकुंभ से दूरी बनाकर और बाद में संगठन में मुस्लिमों को पर्याप्त मौका देकर साफ कर दिया है कि वह किसी गठबंधन के भरोसे नहीं रहने वाली। अल्पसंख्यक अध्यक्षों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देकर वह अपने अल्पसंख्यक वोटों को मजबूत करने में जुटी है। पश्चिमी यूपी में उसके पास इमरान मसूद जैसे मजबूत नेताओं की पकड़ का फायदा भी मिलता दिख रहा है। इमरान मसूद के दैनिक भास्कर को दिए गए बयान ‘भाजपा को रोकने का ठेका अकेले कांग्रेस ने नहीं लिया है’, यह इशारा है कि कांग्रेस अब सपा के साथ ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका स्वीकार नहीं करना चाहती। वहीं, सपा यूपी उपचुनाव अकेले लड़कर और दिल्ली में AAP को समर्थन देकर इसका संकेत दे चुकी है कि वह भी अपने रास्ते पर अकेले चलने को तैयार है। रही-सही कसर बिहार चुनाव में पूरी हो जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो यूपी में भाजपा को सीधे तौर पर फायदा होगा। पढ़िए इमरान मसूद का पूरा इंटरव्यू… क्या संकेत मिल रहे? सपा और कांग्रेस कब-कब यूपी में मजबूत रही
अस्सी के दशक को छोड़ दें तो 2000 के बाद यूपी में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 के लोकसभा चुनाव में था। तब कांग्रेस को 80 सीटों में 21 पर जीत मिली थी। उसका वोट शेयर 18.25% था। यह सपा के 23.03% (23 सीटें जीतीं) और बसपा के 27.42% (20 सीटें जीतीं) वोट शेयर के बाद तीसरे नंबर का था। तब भाजपा को 10 सीटों के साथ 17.50% वोट ही मिले थे। सपा की बात करें, तो (2004 लोकसभा चुनाव को छोड़ दें) वह सबसे मजबूत 2012 के विधानसभा चुनाव में नजर आई थी। तब उसे 29.15% वोट शेयर के साथ 224 सीटें मिली थीं। बसपा को 25.91%(80 सीटें जीतीं), भाजपा 15% (47 सीटें जीतीं) वोट ही मिले थे। कांग्रेस 11.63% वोटर शेयर के साथ सिर्फ 28 सीटें जीत पाई थी। गठबंधन में सपा-कांग्रेस का कब-कैसा प्रदर्शन रहा?
अब बात करते हैं सपा-कांग्रेस गठबंधन में किसे फायदा मिला और किसे घाटा हुआ? सपा-कांग्रेस ने गठबंधन में पहली बार 2017 विधानसभा का चुनाव लड़ा था। तब सपा के सामने अपनी 5 साल की सत्ता बचाने की चुनौती थी। वहीं, 2014 लोकसभा चुनाव में 1 सीट पर सिमट चुकी कांग्रेस को अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद थी। गठबंधन में सपा ने 298 और कांग्रेस ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा था। परिणाम आया तो सूबे में भाजपा 312 सीटों के प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटी। उसका वोट 2012 विधानसभा की तुलना में सीधे 15 से बढ़कर 39.67% पर पहुंच गया। जबकि गठबंधन का वोट शेयर 28.07% (सपा-21.82% व कांग्रेस- 6.25%) पर सिमट गया था। सपा को 298 में 47 और कांग्रेस को 105 में 7 सीट पर ही जीत मिली थी। बाद में दोनों ने ये कहते हुए गठबंधन तोड़ लिया था कि एक-दूसरे के प्रति जनता में फैली नाराजगी की वजह से ऐसा परिणाम आया। 2019 के लोकसभा और 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-सपा की राहें अलग-अलग रहीं। अलग-अलग लड़ चुकी कांग्रेस-सपा 2024 के लोकसभा चुनाव में फिर गठबंधन में उतरीं। इस बार सपा ने 63 तो कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा। परिणाम आया तो गठबंधन ने मिलकर 80 में 43 सीटें जीत ली थीं। भाजपा को 33 सीटों पर समेट दिया। परिणाम ये रहा कि भाजपा तीसरी बार केंद्र की सत्ता में लौटी जरूर, लेकिन अकेले बहुमत से 32 सीटें पीछे रह गई। ————————- ये खबर भी पढ़ें… क्रिकेटर मो. शमी की दीदी-जीजा मनरेगा मजदूर, अमरोहा में फर्जीवाड़ा; MBBS छात्र-वकील-इंजीनियर को भी मिल रही मजदूरी उत्तर प्रदेश के अमरोहा के एक गांव में मनरेगा योजना में बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया है। करोड़पति ग्राम प्रधान ने अपने परिवार के सभी सदस्यों, जानने वालों और चहेतों को मजदूर बना दिया। बाकायदा इनके खाते में पैसा आया और निकाला भी गया। इनमें सबसे बड़ा नाम भारतीय क्रिकेट टीम के तेज गेंदबाज मोहम्मद शमी की बहन शबीना और जीजा गजनबी का है। वकील, MBBS छात्र, ठेकेदार, इंजीनियर जैसे लोगों के नाम पर भी मजदूरी के जॉब कार्ड बने हैं। पढ़ें पूरी खबर राहुल-प्रियंका के करीबी और पश्चिमी यूपी के कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने साफ कर दिया कि 80 में 17 का फॉर्मूला अब स्वीकार नहीं। मसूद ने साफ कहा कि हम लोग इस बार किसी को जिताने या हराने के लिए नहीं लड़ेंगे। हमारा संघर्ष कांग्रेस के आधार को वापस लाने के लिए होगा। इमरान मसूद का बयान ऐसे वक्त आया है, जब कांग्रेस ने प्रदेश में जिलाध्यक्षों और महानगर अध्यक्षों की सूची में पिछड़ों के बाद सबसे ज्यादा जगह मुस्लिमों को दी है। सवाल यह है कि जिस सपा-कांग्रेस गठबंधन ने भाजपा को बहुमत पाने से रोक दिया था, क्या उसकी गांठें ढीली हो चुकी हैं? गठबंधन टूटने का किसे फायदा या नुकसान होगा? पढ़िए यह रिपोर्ट… इन दो मौकों पर दिखी तल्खी
पहला- संभल हिंसा के बाद जब राहुल-प्रियंका वहां जाना चाहते थे, तो सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कमेंट किया। बिना नाम लिए कहा था- जो लोग वहां जा सकते थे, उन्हें जाने देना चाहिए था। इससे स्थिति सुधर सकती थी। दूसरा- सपा संभल हिंसा को लोकसभा में जोरदार तरीके से उठाना चाहती थी, लेकिन कांग्रेस ने नहीं सुना। इस पर अखिलेश यादव ने कांग्रेस पर कटाक्ष किया था। गठबंधन में किसका फायदा, किसे नुकसान
राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह की इस बारे में बेबाक राय है। वह कहते हैं- 2017 विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन के परिणामों को देखें तो सपा ही फायदे में रही। सपा का दोनों बार जीत का स्ट्राइक रेट कांग्रेस की तुलना में अच्छा रहा। 2017 के विधानसभा में सपा का स्ट्राइक रेट 15.77% और कांग्रेस का 6% था। लोकसभा 2024 में सपा का स्ट्राइक रेट 59% और कांग्रेस का 35% रहा। कांग्रेस का दूसरा नुकसान यह हुआ कि कम सीटों पर लड़ने की वजह से बाकी जगह के कार्यकर्ता उससे दूर होते चले गए। गठबंधन में कांग्रेस का वोटबैंक भले ही 9.46% था, लेकिन इसमें सपा वोटरों की संख्या अधिक थी। लेकिन, इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि गठबंधन ने ही प्रदेश में मृतप्राय समझी जा रही कांग्रेस को फिर से जीवित कर दिया है। गठबंधन में चुनाव लड़ चुके सपा के कुछ वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि यूपी में कांग्रेस से गठबंधन नहीं होता तो शायद सपा की सीटें 37 से ज्यादा होतीं। अब क्यों गठबंधन में दिखने लगी दरार
दोनों दलों के कुछ वरिष्ठ नेताओं से बात करने पर पता चलता है कि इस गठबंधन में पहली बार दरार यूपी की 10 विधानसभा सीटों के उपचुनाव को लेकर सामने आई। गठबंधन में कांग्रेस ने कम से कम 3 सीटों की मांग रखी थी। फिर वह 2 सीटों पर राजी भी हो गई। लेकिन, कांग्रेस जो दो सीटें चाहती थी, उसे न देकर सपा उसे भाजपा की मजबूत प्रत्याशी वाली सीट दे रही थी। ऐसे में कांग्रेस ने मन मसोस कर उपचुनाव से खुद को अलग कर लिया। कांग्रेस ने उपचुनाव में सपा को सभी 10 सीटों पर इकतरफा समर्थन देने की बात कही। लेकिन, कांग्रेस अंदरखाने सहयोग की बजाय विरोध की रणनीति पर चली। परिणाम आया. तो सपा सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई। सपा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में इसका बदला लिया। उसने दिल्ली चुनाव में केजरीवाल (AAP) को समर्थन दे दिया, जबकि कांग्रेस से गठबंधन में है। अब सपा बिहार चुनाव में भी कांग्रेस की बजाय लालू प्रसाद की राजद को समर्थन देने जा रही है। इससे भी कांग्रेस को नाराज होने का मौका दे दिया है। कांग्रेस ने बदली रणनीति, संगठन मजबूत करने में जुटी
यूपी विधानसभा चुनाव में अभी 2 साल का समय है। 2027 में जब चुनाव में भाजपा उतरेगी, तो वह सत्ता में 10 साल रह चुकी होगी। ऐसे में कांग्रेस को उम्मीद है कि सरकार के प्रति होने वाली नाराजगी का उसे फायदा मिल सकता है। इसी के तहत कांग्रेस अपना संगठन मजबूत करने में जुटी है। हाल ही में प्रदेश संगठन ने एक साथ 134 जिला अध्यक्षों की सूची जारी की। इसमें ओबीसी, मुस्लिम, दलित और ब्राह्मणों को तरजीह देकर उसने साफ कर दिया है कि वह अपने 40 साल पुराने फॉर्मूले की ओर लौट आई है। इस फॉर्मूले से वह प्रदेश की 85 फीसदी आबादी को साधने की जुगत में है। संगठन की मजबूती के साथ कांग्रेस सपा पर भी दबाव की रणनीति पर आगे बढ़ती दिख रही है। वह अब 2027 के विधानसभा चुनाव में 2024 में हुए यूपी की 10 विधानसभा उपचुनाव के रिजल्ट का हवाला देकर सम्मानजनक समझौते के मूड में है। यूपी कांग्रेस के रणनीतिकारों में शामिल सहारनपुर सांसद इमरान मसूद ने भी दैनिक भास्कर से इंटरव्यू में इसी ओर इशारा किया था। उन्होंने कहा था कि अब 80 में 17 का फॉर्मूला नहीं चलेगा। 2027 में भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए सपा को कांग्रेस की जरूरत है। न कि कांग्रेस को सपा की जरूरत है। हम सम्मानजनक सीट मिलने पर ही समझौता करेंगे। उनका इशारा 175-200 सीटों की ओर था। लेकिन मसूद एक्चुअल संख्या बताने के सवाल को चतुराई से यह कहकर टाल गए कि ये पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राहुल-प्रियंका तय करेंगे। हमने उनकी ‘सम्मानजनक सीटों’ की बात को राजनीतिक एक्सपर्ट से समझने की कोशिश की। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह कहते हैं- 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 17 सीटों पर लड़ा था। इसको विधानसभा सीटों में गिनें, तो कुल 111 सीटें होती हैं। इससे पहले कांग्रेस 2017 में सपा के साथ गठबंधन में 105 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। दोनों बार के हालात अलग थे। गठबंधन की उम्मीदें धूमिल, अलग राह की तैयारी?
यूपी की सियासत के जानकारों की मानें, तो सपा और कांग्रेस के बीच रिश्तों में तनाव और दूरी काफी बढ़ गई है। उनकी राहें कभी भी जुदा हो सकती हैं। गांधी परिवार ने पहले अयोध्या धाम और फिर प्रयागराज महाकुंभ से दूरी बनाकर और बाद में संगठन में मुस्लिमों को पर्याप्त मौका देकर साफ कर दिया है कि वह किसी गठबंधन के भरोसे नहीं रहने वाली। अल्पसंख्यक अध्यक्षों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देकर वह अपने अल्पसंख्यक वोटों को मजबूत करने में जुटी है। पश्चिमी यूपी में उसके पास इमरान मसूद जैसे मजबूत नेताओं की पकड़ का फायदा भी मिलता दिख रहा है। इमरान मसूद के दैनिक भास्कर को दिए गए बयान ‘भाजपा को रोकने का ठेका अकेले कांग्रेस ने नहीं लिया है’, यह इशारा है कि कांग्रेस अब सपा के साथ ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका स्वीकार नहीं करना चाहती। वहीं, सपा यूपी उपचुनाव अकेले लड़कर और दिल्ली में AAP को समर्थन देकर इसका संकेत दे चुकी है कि वह भी अपने रास्ते पर अकेले चलने को तैयार है। रही-सही कसर बिहार चुनाव में पूरी हो जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो यूपी में भाजपा को सीधे तौर पर फायदा होगा। पढ़िए इमरान मसूद का पूरा इंटरव्यू… क्या संकेत मिल रहे? सपा और कांग्रेस कब-कब यूपी में मजबूत रही
अस्सी के दशक को छोड़ दें तो 2000 के बाद यूपी में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 के लोकसभा चुनाव में था। तब कांग्रेस को 80 सीटों में 21 पर जीत मिली थी। उसका वोट शेयर 18.25% था। यह सपा के 23.03% (23 सीटें जीतीं) और बसपा के 27.42% (20 सीटें जीतीं) वोट शेयर के बाद तीसरे नंबर का था। तब भाजपा को 10 सीटों के साथ 17.50% वोट ही मिले थे। सपा की बात करें, तो (2004 लोकसभा चुनाव को छोड़ दें) वह सबसे मजबूत 2012 के विधानसभा चुनाव में नजर आई थी। तब उसे 29.15% वोट शेयर के साथ 224 सीटें मिली थीं। बसपा को 25.91%(80 सीटें जीतीं), भाजपा 15% (47 सीटें जीतीं) वोट ही मिले थे। कांग्रेस 11.63% वोटर शेयर के साथ सिर्फ 28 सीटें जीत पाई थी। गठबंधन में सपा-कांग्रेस का कब-कैसा प्रदर्शन रहा?
अब बात करते हैं सपा-कांग्रेस गठबंधन में किसे फायदा मिला और किसे घाटा हुआ? सपा-कांग्रेस ने गठबंधन में पहली बार 2017 विधानसभा का चुनाव लड़ा था। तब सपा के सामने अपनी 5 साल की सत्ता बचाने की चुनौती थी। वहीं, 2014 लोकसभा चुनाव में 1 सीट पर सिमट चुकी कांग्रेस को अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद थी। गठबंधन में सपा ने 298 और कांग्रेस ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा था। परिणाम आया तो सूबे में भाजपा 312 सीटों के प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटी। उसका वोट 2012 विधानसभा की तुलना में सीधे 15 से बढ़कर 39.67% पर पहुंच गया। जबकि गठबंधन का वोट शेयर 28.07% (सपा-21.82% व कांग्रेस- 6.25%) पर सिमट गया था। सपा को 298 में 47 और कांग्रेस को 105 में 7 सीट पर ही जीत मिली थी। बाद में दोनों ने ये कहते हुए गठबंधन तोड़ लिया था कि एक-दूसरे के प्रति जनता में फैली नाराजगी की वजह से ऐसा परिणाम आया। 2019 के लोकसभा और 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-सपा की राहें अलग-अलग रहीं। अलग-अलग लड़ चुकी कांग्रेस-सपा 2024 के लोकसभा चुनाव में फिर गठबंधन में उतरीं। इस बार सपा ने 63 तो कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा। परिणाम आया तो गठबंधन ने मिलकर 80 में 43 सीटें जीत ली थीं। भाजपा को 33 सीटों पर समेट दिया। परिणाम ये रहा कि भाजपा तीसरी बार केंद्र की सत्ता में लौटी जरूर, लेकिन अकेले बहुमत से 32 सीटें पीछे रह गई। ————————- ये खबर भी पढ़ें… क्रिकेटर मो. शमी की दीदी-जीजा मनरेगा मजदूर, अमरोहा में फर्जीवाड़ा; MBBS छात्र-वकील-इंजीनियर को भी मिल रही मजदूरी उत्तर प्रदेश के अमरोहा के एक गांव में मनरेगा योजना में बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया है। करोड़पति ग्राम प्रधान ने अपने परिवार के सभी सदस्यों, जानने वालों और चहेतों को मजदूर बना दिया। बाकायदा इनके खाते में पैसा आया और निकाला भी गया। इनमें सबसे बड़ा नाम भारतीय क्रिकेट टीम के तेज गेंदबाज मोहम्मद शमी की बहन शबीना और जीजा गजनबी का है। वकील, MBBS छात्र, ठेकेदार, इंजीनियर जैसे लोगों के नाम पर भी मजदूरी के जॉब कार्ड बने हैं। पढ़ें पूरी खबर उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर
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