राधा के पति का नाम अनय घोष, उनकी सास का नाम जटिला और ननद का नाम कुटिला था। राधाजी का विवाह छाता में हुआ था। राधाजी बरसाना की नहीं, रावल की रहने वाली थीं। बरसाना में तो राधाजी के पिता की कचहरी थी, जहां वह साल भर में एक बार आती थीं। -पंडित प्रदीप मिश्रा, कथावाचक 4 श्लोक क्या पढ़ लिए, प्रवक्ता बन गए? तुझे नरक से कोई नहीं बचा सकता। हमें गाली दो तो चलेगा। लेकिन तुम हमारे इष्ट, हमारे गुरु, हमारे धर्म के खिलाफ बोलेगे, उनका अपमान करोगे, तो हम ये बर्दाश्त नहीं करेंगे। तुम्हें बोलने लायक नहीं छोड़ेंगे। -प्रेमानंद महाराज, संत राधारानी के जन्म और श्रीकृष्ण से उनके विवाह को लेकर देश के प्रसिद्ध कथावाचक पंडित प्रदीप मिश्रा और संत प्रेमानंद महाराज में विवाद शुरू हो गया है। एक शिव के भक्त हैं, दूसरे राधा रानी के। प्रदीप मिश्रा मध्यप्रदेश के सीहोर में रहते हैं, तो प्रेमानंद जी वृंदावन में। आइए, जानते हैं दोनों के बचपन से लेकर प्रसिद्ध कथावाचक और संत बनने की कहानी… 13 साल की उम्र में प्रेमानंद जी महाराज ने घर छोड़ दिया था
उत्तर प्रदेश में कानपुर जिले का नरवल तहसील का अखरी गांव। ये जगह है, जहां प्रेमानंद महाराज का जन्म और पालन-पोषण हुआ। यहीं से निकलकर वो इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी में बस गए। उनके बड़े भाई गणेश दत्त पांडे बताते हैं- मेरे पिता शंभू नारायण पांडे और मां रामा देवी हैं। हम 3 भाई हैं, प्रेमानंद मंझले हैं। वो बताते हैं कि प्रेमानंद हमेशा से प्रेमानंद महाराज नहीं थे। बचपन में मां-पिता ने बड़े प्यार से उनका नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे रखा था। हर पीढ़ी में कोई न कोई एक बड़ा साधु-संत निकला
गणेश पांडे बताते हैं- हमारे पिताजी पुरोहित का काम करते थे। मेरे घर की हर पीढ़ी में कोई न कोई बड़ा साधु-संत होकर निकलता है। पीढ़ी दर पीढ़ी अध्यात्म की ओर झुकाव होने के चलते अनिरुद्ध भी बचपन से ही आध्यात्मिक रहे। बचपन में पूरा परिवार रोजाना एक साथ बैठकर पूजा-पाठ करता था। अनिरुद्ध यह सब बड़े ध्यान से सभी देखा-सुना करता था। शिव मंदिर में चबूतरा बनाने से रोका, तो घर छोड़ दिया
बचपन में अनिरुद्ध ने अपनी सखा टोली के साथ शिव मंदिर के लिए एक चबूतरा बनाना चाहा। इसका निर्माण भी शुरू करवाया, लेकिन कुछ लोगों ने रोक दिया। इससे वह मायूस हो गए। उनका मन इस कदर टूटा कि घर छोड़ने का फैसला कर लिया। एक दिन देर रात खाना खाया और रोज की तरह छत पर बने कच्चे कमरे में जाकर सो गए। अगली सुबह जब बड़े भाई ने जगाने के लिए आवाज लगाई, कमरे से कोई जवाब नहीं आया। उन्होंने ऊपर जाकर देखा तो अनिरुद्ध कमरे में नहीं थे। खोजबीन शुरू की गई। काफी मशक्कत के बाद पता चला कि वो सरसौल में नंदेश्वर मंदिर पर रुके हैं। घरवालों ने उन्हें घर लाने का हर जतन किया, लेकिन अनिरुद्ध नहीं माने। फिर कुछ दिनों बाद बची-खुची मोह माया भी छोड़कर वह सरसौल से भी चले गए। नंदेश्वर से महराजपुर, कानपुर और फिर काशी पहुंचे
आज जिन प्रेमानंद महाराज के भक्तों में आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटी तक शुमार हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई सिर्फ 8वीं कक्षा तक हुई है। 9वीं में भास्करानंद विद्यालय में एडमिशन दिलाया गया था, लेकिन 4 महीने में ही स्कूल छोड़ दिया। इसके बाद वह भगवान की भक्ति में लीन हो गए। सरसौल नंदेश्वर मंदिर से जाने के बाद वह महराजपुर के सैमसी स्थित एक मंदिर में कुछ दिन रुके। फिर कानपुर के बिठूर में रहे। बिठूर के बाद काशी चले गए। प्रेमानंद जी महाराज अपने प्रवचन में बताते हैं, जब वह 5वीं कक्षा में थे, तभी से गीता का पाठ शुरू कर दिया। इस तरह से धीरे-धीरे उनकी रुचि अध्यात्म की ओर बढ़ने लगी। जब 13 साल के हुए तो उन्होंने ब्रह्मचारी बनने का फैसला किया। इसके बाद घर का त्याग कर संन्यासी बन गए। शुरुआत में प्रेमानंद महाराज का नाम ‘आरयन ब्रह्मचारी’ रखा गया। संन्यासी जीवन में कई दिन भूखे रहे
काशी में उन्होंने करीब 15 महीने बिताए। उन्होंने गुरु गौरी शरण जी महाराज से गुरुदीक्षा ली। वाराणसी में संन्यासी जीवन के दौरान वो रोज गंगा में तीन बार स्नान करते। तुलसी घाट पर भगवान शिव और माता गंगा का ध्यान-पूजन करते। दिन में केवल एक बार भोजन करते। प्रेमानंद महाराज भिक्षा मांगने की जगह भोजन प्राप्ति की इच्छा से 10-15 मिनट बैठते थे। अगर इतने समय में भोजन मिला तो उसे ग्रहण करते, नहीं तो सिर्फ गंगाजल पीकर रह जाते। संन्यासी जीवन की दिनचर्या में प्रेमानंद महाराज ने कई दिन बिना कुछ खाए-पीए बिताया। प्रेमानंद जी के वृंदावन पहुंचने की कहानी
प्रेमानंद महाराज के संन्यासी बनने के बाद वृंदावन आने की कहानी बेहद रोचक है। एक दिन प्रेमानंद महाराज से मिलने एक संत आए। उन्होंने कहा- श्री हनुमत धाम विश्वविद्यालय में श्रीराम शर्मा दिन में श्री चैतन्य लीला और रात में रासलीला मंच का आयोजन कर रहे हैं। इसमें आप आमंत्रित हैं। पहले तो प्रेमानंद महाराज ने अपरिचित साधु से वहां आने के लिए मना कर दिया। लेकिन साधु ने उनसे आयोजन में शामिल होने के लिए काफी आग्रह किया। इस पर प्रेमानंद महाराज ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। प्रेमानंद महाराज जब चैतन्य लीला और रासलीला देखने गए, तो उन्हें बहुत पसंद आई। यह आयोजन करीब एक महीने तक चला। चैतन्य लीला और रासलीला समाप्त होने के बाद प्रेमानंद महाराज को आयोजन देखने की व्याकुलता होने लगी। वह उसी साधु के पास गए, जो उन्हें आमंत्रित करने आए थे। उनसे मिलकर महाराज ने कहा- मुझे भी अपने साथ ले चलें। मैं रासलीला को देखूंगा और इसके बदले आपकी सेवा करूंगा। इस पर साधु ने कहा, आप वृंदावन आ जाएं। वहां हर रोज आपको रासलीला देखने को मिलेगी। इसके बाद प्रेमानंद महाराज वृंदावन आ गए। यहां खुद को राधा रानी और श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। साथ ही भगवद प्राप्ति में लग गए। इसके बाद महाराज संन्यास मार्ग से भक्ति मार्ग में आ गए। फिलहाल वह वृंदावन के मधुकरी में रहते हैं। संन्यासी से राधावल्लभी संत बन गए प्रेमानंद महाराज
प्रेमानंद महाराज वृंदावन पहुंचकर हर रोज बांके बिहारी का दर्शन करते। फिर रासलीला रास आई और राधावल्लभ के कार्यक्रमों में जाने लगे। वहां घंटों खड़े रहते। एक दिन एक संत ने श्री राधारससुधानिधि से एक श्लोक पढ़ा, लेकिन महाराज उसे समझ नहीं पाए। फिर एक दिन वृंदावन की परिक्रमा करते समय एक सखी को एक श्लोक गाते हुए सुना। उसे सुनकर महाराज ठिठक गए। श्लोक ऐसा रास आया कि अपना संन्यास धर्म तोड़कर वो उस सखी के पास गए। उससे श्लोक का मतलब पूछा। सखी ने कहा- इसका मतलब समझने के लिए राधावल्लभी होना जरूरी है। इस तरह महाराज राधावल्लभी हो गए। यह संप्रदाय रस की उपासना के लिए जाना जाता है। इस रस की उपासना में कृष्ण की लीलाओं जैसे निकुंज लीला, वन विहार लीला और रासलीला का अनोखे ढंग से वर्णन किया जाता है। घर पर ही जन्म हुआ, क्योंकि अस्पताल में देने के लिए पैसे नहीं थे
प्रदीप मिश्रा का जन्म 16 जून, 1977 में सीहोर में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। अपनी गरीबी का जिक्र करते हुए वो खुद कहते हैं- मेरा जन्म घर के आंगन में तुलसी की क्यारी के पास हुआ था। तब हम इतने गरीब थे कि अस्पताल में जन्म कराने के लिए दाई को देने के लिए पैसे नहीं थे। पिता स्व. रामेश्वर पढ़ नहीं पाए। सड़क पर ठेला लगाते थे। फिर चाय की दुकान खोली। पिता के साथ दुकान पर मैं खुद भी काम किया करता था। लोगों को वहां चाय देता था। प्रदीप मिश्रा का जीवन गरीबी में कटता रहा। सरकारी स्कूल में एडमिशन हो गया। दूसरों के कपड़े पहनकर स्कूल जाते। किताबें भी दूसरों से मांगी हुई रहती। होश संभालने के बाद से ही इस बात का एहसास हो गया था कि परिवार उनकी जिम्मेदारी है। प्रदीप मिश्रा कहते हैं- भगवान शिव की दया रही। उन्होंने पेट भी भरा और जीवन भी संवारा। जब थोड़े बड़े हुए, तब सीहोर में ही एक ब्राह्मण परिवार की गीता बाई पराशर नाम की महिला ने कथावाचक बनने के लिए प्रेरित किया। वो खुद दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम करती थी। प्रदीप मिश्रा उस महिला के घर गए। तब महिला ने उन्हें गुरुदीक्षा के लिए इंदौर भेजा। वहां गुरु श्री विठलेश राय काका ने उन्हें दीक्षा दी। साथ ही पुराणों का ज्ञान दिया। कोरोना काल में ऑनलाइन शिवपुराण सुना कर करोड़ों फॉलोअर्स बना लिए
प्रदीप मिश्रा दीक्षा के बाद सीहोर में ही छोटे-छोटे कार्यक्रम करने लगे। फिर बाद में सत्यनारायण भगवान की कथा की। धीरे-धीरे कथा का दायरा बढ़ा और भागवत कथा का वाचन करने लगे। उन्होंने सभी ज्योतिर्लिंगों की यात्रा की। इस दौरान उन्हें प्रेरणा मिली कि शिवपुराण का वाचन भी करना चाहिए। कोरोना काल में शिवपुराण की ऑनलाइन कथा सुनाने लगे। देखते ही देखते हजारों और फिर लाखों लोग ऑनलाइन जुड़ते चले गए। अब जिनकी संख्या करोड़ों में पहुंच चुकी है। ‘सीहोर वाले’ के नाम से जाने जाते हैं पंडित प्रदीप मिश्रा
प्रदीप मिश्रा पहले सीहोर में ही कथा और भजन करते थे। धीरे-धीरे शोहरत बढ़ती गई। आज अंतरराष्ट्रीय कथावाचक के रूप में पहचान है। मिश्रा का सीहोर के प्रति गहरा लगाव है। इसलिए नाम के पीछे सीहोर वाले लगाते हैं। सीहोर से अपने रिश्ते के बारे में पंडित प्रदीप मिश्रा बताते हैं- वहां एक भवन में एक सेठ के लड़की की शादी थी। मेरे ऊपर मेरी बहन की शादी की जिम्मेदारी थी, लेकिन पैसे नहीं थे। तब मैंने सेठ से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वो डेकोरेशन रहने दें, ताकि मैं अपनी बहन की शादी कर सकूं। परीक्षा में पास होने टोटका बताया तो ट्रोल भी हुए
पं. मिश्रा कुछ महीने पहले ही सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए। इसमें वे दावा कर रहे हैं कि शिवजी को जो बेलपत्र चढ़ाया जाता है, उसका भाग भी स्थापित है। जब आपका बच्चा परीक्षा देने जा रहा है, आपको लग रहा है कि बच्चे ने पढ़ाई नहीं की और पास नहीं होगा तो बेलपत्र के बीच वाली पत्ती पर शहद लगा लीजिए। इसके बाद बच्चे के हाथ से इस पत्ती को शिवलिंग पर चिपकवा दीजिए। बच्चे ने भले ही साल भर पढ़ाई नहीं की हो, लेकिन एग्जाम के दिन वह यह काम करेगा। उस विषय में पास होने से उसे कोई रोक नहीं सकता। बोर्ड परीक्षा से पहले उनका यह वीडियो खूब वायरल हुआ। इस पर उन्हें ट्रोल भी किया गया। उनके बताए गए टोटके काफी वायरल होते हैं। राधा के पति का नाम अनय घोष, उनकी सास का नाम जटिला और ननद का नाम कुटिला था। राधाजी का विवाह छाता में हुआ था। राधाजी बरसाना की नहीं, रावल की रहने वाली थीं। बरसाना में तो राधाजी के पिता की कचहरी थी, जहां वह साल भर में एक बार आती थीं। -पंडित प्रदीप मिश्रा, कथावाचक 4 श्लोक क्या पढ़ लिए, प्रवक्ता बन गए? तुझे नरक से कोई नहीं बचा सकता। हमें गाली दो तो चलेगा। लेकिन तुम हमारे इष्ट, हमारे गुरु, हमारे धर्म के खिलाफ बोलेगे, उनका अपमान करोगे, तो हम ये बर्दाश्त नहीं करेंगे। तुम्हें बोलने लायक नहीं छोड़ेंगे। -प्रेमानंद महाराज, संत राधारानी के जन्म और श्रीकृष्ण से उनके विवाह को लेकर देश के प्रसिद्ध कथावाचक पंडित प्रदीप मिश्रा और संत प्रेमानंद महाराज में विवाद शुरू हो गया है। एक शिव के भक्त हैं, दूसरे राधा रानी के। प्रदीप मिश्रा मध्यप्रदेश के सीहोर में रहते हैं, तो प्रेमानंद जी वृंदावन में। आइए, जानते हैं दोनों के बचपन से लेकर प्रसिद्ध कथावाचक और संत बनने की कहानी… 13 साल की उम्र में प्रेमानंद जी महाराज ने घर छोड़ दिया था
उत्तर प्रदेश में कानपुर जिले का नरवल तहसील का अखरी गांव। ये जगह है, जहां प्रेमानंद महाराज का जन्म और पालन-पोषण हुआ। यहीं से निकलकर वो इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी में बस गए। उनके बड़े भाई गणेश दत्त पांडे बताते हैं- मेरे पिता शंभू नारायण पांडे और मां रामा देवी हैं। हम 3 भाई हैं, प्रेमानंद मंझले हैं। वो बताते हैं कि प्रेमानंद हमेशा से प्रेमानंद महाराज नहीं थे। बचपन में मां-पिता ने बड़े प्यार से उनका नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे रखा था। हर पीढ़ी में कोई न कोई एक बड़ा साधु-संत निकला
गणेश पांडे बताते हैं- हमारे पिताजी पुरोहित का काम करते थे। मेरे घर की हर पीढ़ी में कोई न कोई बड़ा साधु-संत होकर निकलता है। पीढ़ी दर पीढ़ी अध्यात्म की ओर झुकाव होने के चलते अनिरुद्ध भी बचपन से ही आध्यात्मिक रहे। बचपन में पूरा परिवार रोजाना एक साथ बैठकर पूजा-पाठ करता था। अनिरुद्ध यह सब बड़े ध्यान से सभी देखा-सुना करता था। शिव मंदिर में चबूतरा बनाने से रोका, तो घर छोड़ दिया
बचपन में अनिरुद्ध ने अपनी सखा टोली के साथ शिव मंदिर के लिए एक चबूतरा बनाना चाहा। इसका निर्माण भी शुरू करवाया, लेकिन कुछ लोगों ने रोक दिया। इससे वह मायूस हो गए। उनका मन इस कदर टूटा कि घर छोड़ने का फैसला कर लिया। एक दिन देर रात खाना खाया और रोज की तरह छत पर बने कच्चे कमरे में जाकर सो गए। अगली सुबह जब बड़े भाई ने जगाने के लिए आवाज लगाई, कमरे से कोई जवाब नहीं आया। उन्होंने ऊपर जाकर देखा तो अनिरुद्ध कमरे में नहीं थे। खोजबीन शुरू की गई। काफी मशक्कत के बाद पता चला कि वो सरसौल में नंदेश्वर मंदिर पर रुके हैं। घरवालों ने उन्हें घर लाने का हर जतन किया, लेकिन अनिरुद्ध नहीं माने। फिर कुछ दिनों बाद बची-खुची मोह माया भी छोड़कर वह सरसौल से भी चले गए। नंदेश्वर से महराजपुर, कानपुर और फिर काशी पहुंचे
आज जिन प्रेमानंद महाराज के भक्तों में आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटी तक शुमार हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई सिर्फ 8वीं कक्षा तक हुई है। 9वीं में भास्करानंद विद्यालय में एडमिशन दिलाया गया था, लेकिन 4 महीने में ही स्कूल छोड़ दिया। इसके बाद वह भगवान की भक्ति में लीन हो गए। सरसौल नंदेश्वर मंदिर से जाने के बाद वह महराजपुर के सैमसी स्थित एक मंदिर में कुछ दिन रुके। फिर कानपुर के बिठूर में रहे। बिठूर के बाद काशी चले गए। प्रेमानंद जी महाराज अपने प्रवचन में बताते हैं, जब वह 5वीं कक्षा में थे, तभी से गीता का पाठ शुरू कर दिया। इस तरह से धीरे-धीरे उनकी रुचि अध्यात्म की ओर बढ़ने लगी। जब 13 साल के हुए तो उन्होंने ब्रह्मचारी बनने का फैसला किया। इसके बाद घर का त्याग कर संन्यासी बन गए। शुरुआत में प्रेमानंद महाराज का नाम ‘आरयन ब्रह्मचारी’ रखा गया। संन्यासी जीवन में कई दिन भूखे रहे
काशी में उन्होंने करीब 15 महीने बिताए। उन्होंने गुरु गौरी शरण जी महाराज से गुरुदीक्षा ली। वाराणसी में संन्यासी जीवन के दौरान वो रोज गंगा में तीन बार स्नान करते। तुलसी घाट पर भगवान शिव और माता गंगा का ध्यान-पूजन करते। दिन में केवल एक बार भोजन करते। प्रेमानंद महाराज भिक्षा मांगने की जगह भोजन प्राप्ति की इच्छा से 10-15 मिनट बैठते थे। अगर इतने समय में भोजन मिला तो उसे ग्रहण करते, नहीं तो सिर्फ गंगाजल पीकर रह जाते। संन्यासी जीवन की दिनचर्या में प्रेमानंद महाराज ने कई दिन बिना कुछ खाए-पीए बिताया। प्रेमानंद जी के वृंदावन पहुंचने की कहानी
प्रेमानंद महाराज के संन्यासी बनने के बाद वृंदावन आने की कहानी बेहद रोचक है। एक दिन प्रेमानंद महाराज से मिलने एक संत आए। उन्होंने कहा- श्री हनुमत धाम विश्वविद्यालय में श्रीराम शर्मा दिन में श्री चैतन्य लीला और रात में रासलीला मंच का आयोजन कर रहे हैं। इसमें आप आमंत्रित हैं। पहले तो प्रेमानंद महाराज ने अपरिचित साधु से वहां आने के लिए मना कर दिया। लेकिन साधु ने उनसे आयोजन में शामिल होने के लिए काफी आग्रह किया। इस पर प्रेमानंद महाराज ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। प्रेमानंद महाराज जब चैतन्य लीला और रासलीला देखने गए, तो उन्हें बहुत पसंद आई। यह आयोजन करीब एक महीने तक चला। चैतन्य लीला और रासलीला समाप्त होने के बाद प्रेमानंद महाराज को आयोजन देखने की व्याकुलता होने लगी। वह उसी साधु के पास गए, जो उन्हें आमंत्रित करने आए थे। उनसे मिलकर महाराज ने कहा- मुझे भी अपने साथ ले चलें। मैं रासलीला को देखूंगा और इसके बदले आपकी सेवा करूंगा। इस पर साधु ने कहा, आप वृंदावन आ जाएं। वहां हर रोज आपको रासलीला देखने को मिलेगी। इसके बाद प्रेमानंद महाराज वृंदावन आ गए। यहां खुद को राधा रानी और श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। साथ ही भगवद प्राप्ति में लग गए। इसके बाद महाराज संन्यास मार्ग से भक्ति मार्ग में आ गए। फिलहाल वह वृंदावन के मधुकरी में रहते हैं। संन्यासी से राधावल्लभी संत बन गए प्रेमानंद महाराज
प्रेमानंद महाराज वृंदावन पहुंचकर हर रोज बांके बिहारी का दर्शन करते। फिर रासलीला रास आई और राधावल्लभ के कार्यक्रमों में जाने लगे। वहां घंटों खड़े रहते। एक दिन एक संत ने श्री राधारससुधानिधि से एक श्लोक पढ़ा, लेकिन महाराज उसे समझ नहीं पाए। फिर एक दिन वृंदावन की परिक्रमा करते समय एक सखी को एक श्लोक गाते हुए सुना। उसे सुनकर महाराज ठिठक गए। श्लोक ऐसा रास आया कि अपना संन्यास धर्म तोड़कर वो उस सखी के पास गए। उससे श्लोक का मतलब पूछा। सखी ने कहा- इसका मतलब समझने के लिए राधावल्लभी होना जरूरी है। इस तरह महाराज राधावल्लभी हो गए। यह संप्रदाय रस की उपासना के लिए जाना जाता है। इस रस की उपासना में कृष्ण की लीलाओं जैसे निकुंज लीला, वन विहार लीला और रासलीला का अनोखे ढंग से वर्णन किया जाता है। घर पर ही जन्म हुआ, क्योंकि अस्पताल में देने के लिए पैसे नहीं थे
प्रदीप मिश्रा का जन्म 16 जून, 1977 में सीहोर में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। अपनी गरीबी का जिक्र करते हुए वो खुद कहते हैं- मेरा जन्म घर के आंगन में तुलसी की क्यारी के पास हुआ था। तब हम इतने गरीब थे कि अस्पताल में जन्म कराने के लिए दाई को देने के लिए पैसे नहीं थे। पिता स्व. रामेश्वर पढ़ नहीं पाए। सड़क पर ठेला लगाते थे। फिर चाय की दुकान खोली। पिता के साथ दुकान पर मैं खुद भी काम किया करता था। लोगों को वहां चाय देता था। प्रदीप मिश्रा का जीवन गरीबी में कटता रहा। सरकारी स्कूल में एडमिशन हो गया। दूसरों के कपड़े पहनकर स्कूल जाते। किताबें भी दूसरों से मांगी हुई रहती। होश संभालने के बाद से ही इस बात का एहसास हो गया था कि परिवार उनकी जिम्मेदारी है। प्रदीप मिश्रा कहते हैं- भगवान शिव की दया रही। उन्होंने पेट भी भरा और जीवन भी संवारा। जब थोड़े बड़े हुए, तब सीहोर में ही एक ब्राह्मण परिवार की गीता बाई पराशर नाम की महिला ने कथावाचक बनने के लिए प्रेरित किया। वो खुद दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम करती थी। प्रदीप मिश्रा उस महिला के घर गए। तब महिला ने उन्हें गुरुदीक्षा के लिए इंदौर भेजा। वहां गुरु श्री विठलेश राय काका ने उन्हें दीक्षा दी। साथ ही पुराणों का ज्ञान दिया। कोरोना काल में ऑनलाइन शिवपुराण सुना कर करोड़ों फॉलोअर्स बना लिए
प्रदीप मिश्रा दीक्षा के बाद सीहोर में ही छोटे-छोटे कार्यक्रम करने लगे। फिर बाद में सत्यनारायण भगवान की कथा की। धीरे-धीरे कथा का दायरा बढ़ा और भागवत कथा का वाचन करने लगे। उन्होंने सभी ज्योतिर्लिंगों की यात्रा की। इस दौरान उन्हें प्रेरणा मिली कि शिवपुराण का वाचन भी करना चाहिए। कोरोना काल में शिवपुराण की ऑनलाइन कथा सुनाने लगे। देखते ही देखते हजारों और फिर लाखों लोग ऑनलाइन जुड़ते चले गए। अब जिनकी संख्या करोड़ों में पहुंच चुकी है। ‘सीहोर वाले’ के नाम से जाने जाते हैं पंडित प्रदीप मिश्रा
प्रदीप मिश्रा पहले सीहोर में ही कथा और भजन करते थे। धीरे-धीरे शोहरत बढ़ती गई। आज अंतरराष्ट्रीय कथावाचक के रूप में पहचान है। मिश्रा का सीहोर के प्रति गहरा लगाव है। इसलिए नाम के पीछे सीहोर वाले लगाते हैं। सीहोर से अपने रिश्ते के बारे में पंडित प्रदीप मिश्रा बताते हैं- वहां एक भवन में एक सेठ के लड़की की शादी थी। मेरे ऊपर मेरी बहन की शादी की जिम्मेदारी थी, लेकिन पैसे नहीं थे। तब मैंने सेठ से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वो डेकोरेशन रहने दें, ताकि मैं अपनी बहन की शादी कर सकूं। परीक्षा में पास होने टोटका बताया तो ट्रोल भी हुए
पं. मिश्रा कुछ महीने पहले ही सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए। इसमें वे दावा कर रहे हैं कि शिवजी को जो बेलपत्र चढ़ाया जाता है, उसका भाग भी स्थापित है। जब आपका बच्चा परीक्षा देने जा रहा है, आपको लग रहा है कि बच्चे ने पढ़ाई नहीं की और पास नहीं होगा तो बेलपत्र के बीच वाली पत्ती पर शहद लगा लीजिए। इसके बाद बच्चे के हाथ से इस पत्ती को शिवलिंग पर चिपकवा दीजिए। बच्चे ने भले ही साल भर पढ़ाई नहीं की हो, लेकिन एग्जाम के दिन वह यह काम करेगा। उस विषय में पास होने से उसे कोई रोक नहीं सकता। बोर्ड परीक्षा से पहले उनका यह वीडियो खूब वायरल हुआ। इस पर उन्हें ट्रोल भी किया गया। उनके बताए गए टोटके काफी वायरल होते हैं। उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर