प्रयागराज में कुंभ 2025 की तैयारियां अब आखिरी चरण में हैं। तमाम अखाड़े भी अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। उनकी इन्हीं तैयारियों में इस बार एक काम और शामिल है, वह है- कुछ नामों को बदलना। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया है कि वो इस बार कुंभ में ‘शाही स्नान’, ‘पेशवाई’ और ‘चेहरा-मोहरा’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे। वजह बताई कि ये उर्दू शब्द हैं, जो मुगलों ने दिए थे। गुलामी के प्रतीक हैं। इसलिए संतों ने कुंभ में उर्दू और फारसी शब्दों का प्रयोग नहीं करने का फैसला किया है। इन शब्दों की जगह संस्कृतनिष्ठ हिंदी के शब्दों के प्रयोग होगा। नए नाम राजसी स्नान और छावनी प्रवेश रखा गया है। परिषद ने नाम बदलने का प्रस्ताव शासन को भी भेज दिया है। अखाड़ों में कहां से आए शाही स्नान और पेशवाई शब्द, क्या है इनका मुगलों से संबंध, क्या हैं अखाड़े? इन सभी सवालों के जवाब भास्कर एक्सप्लेनर में जानिए- सबसे पहले जानिए मामला क्या है?
26 जुलाई को उज्जैन में प्रयागराज महाकुंभ के लिए अखाड़ों की बैठक हुई। नगर प्रवेश, पेशवाई, शाही स्नान, शोभायात्रा और कढ़ी-पकौड़ा की तिथियां तय की गईं। बैठक की अध्यक्षता जूना अखाड़े के अंतरराष्ट्रीय सभापति महंत प्रेम गिरी कर रहे थे। महेंद्र गिरी ने इन शब्दों को बदलने का प्रस्ताव दिया। कहा- उर्दू और फारसी के शब्दों की जगह शुद्ध हिंदी के शब्दों का अखाड़ों में इस्तेमाल होगा। इसके बाद शाही स्नान, पेशवाई और चेहरा-मोहरा शब्दों को बदलने की कवायद शुरू हो गईं। 6 अक्टूबर को सीएम योगी आदित्यनाथ प्रयागराज पहुंचे। उन्होंने महाकुंभ की तैयारियों की समीक्षा के बाद अखाड़ों के संतों से भेंट की। उस दौरान भी इन शब्दों को हटाने पर चर्चा हुई। महेंद्र गिरी ने तर्क दिया कि शाही, उर्दू भाषा का शब्द है। यह नाम मुगलों के समय दिया गया था। शाही शब्द हम लोगों के लिए गुलामी का प्रतीक है। जिस दौर में जिसका शासन रहता है, उस दौर में उसकी भाषा का भी प्रभाव आ जाता है। अंग्रेजों के भारत आने से पहले आक्रांताओं का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया था। इस कारण से उन लोगों की भाषा भी दैनिक जीवन में प्रयोग होने लगी। अब समय बदल चुका है। वो आगे कहते हैं कि यह भाषा जिन लोगों की है, वो हम लोगों को अपना शत्रु मानते हैं। वो लोग वंदे मातरम नहीं बोलते हैं। उन लोगों को भारत माता की जय बोलने में भी परेशानी होती है। ऐसे लोगों की भाषा को हम क्यों ढो रहे हैं? जुलाई में हुई बैठक के बाद से ही परिषद के संतों ने महाकुंभ के आयोजन से ऊर्दू-फारसी शब्दों को बाहर निकालने की मांग शुरू कर दी थी। 5 और 6 अक्टूबर को प्रयागराज में अखाड़ा परिषद की बैठक में इससे जुड़ा प्रस्ताव पास किया गया। इसमें 8 अखाड़े मौजूद रहे। 9वें अखाड़े ने बैठक से दूर रहकर अपना समर्थन दिया। बैठक में 11 प्रस्ताव परिषद ने पास किए। शाही स्नान और पेशवाई क्या है, जिसे बदलने की मांग है संतों का स्नान शाही स्नान, आश्रम से मेला जाना पेशवाई
कुंभ और महाकुंभ मेले में अखाड़ों का जमावड़ा होता है। मेले की रौनक इन अखाड़ों से होती है। ऐसे में, अखाड़ों के संतों के स्नान को ‘शाही स्नान’ कहा जाता रहा है। वहीं, अखाड़े के आश्रम से मेला क्षेत्र में जाने को ‘पेशवाई’ कहा जाता है। इस पेशवाई में अखाड़े, मंडलेश्वर और महामंडलेश्वर के साथ मेला क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। इस पेशवाई में अखाड़ों के संत-महंत के साथ उनके समर्थकों की भीड़ गाजे-बाजे के साथ, हाथी-घोड़े पर सवार होकर भव्यता के साथ मेला क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। कुंभ मेला क्षेत्र में अखाड़े छावनी बनाते हैं। यहां उनकी बैठकें होती हैं। इसी को चेहरा-मोहरा कहा जाता है। यह परंपरा कई सदियों से चली आ रही है। ईरान से निकला फारसी भाषा का शब्द है ‘शाही’
शाही फारसी भाषा का शब्द है। यह राजाओं के लिए इस्तेमाल होता रहा है। पहले राजाओं के शाह पदनाम के रूप में लिखा जाता था। बाद में यही शाही बना रॉयल, राजसी। इसकी जड़ें ईरान में मिलती हैं। उससे लगे अफगानिस्तान में भी फारसी का प्रभाव रहा है। अफगानिस्तान में तीसरी सदी के राजाओं के नाम के साथ शाही शब्द नत्थी मिलता है। ऐसे में, जब आठवीं, नौवीं सदी के बाद भारत में उत्तर-पश्चिम यानी अफगानिस्तान के रास्ते से आक्रमण हुए, तो यह शब्द यहां आया। गुलाम वंश से लेकर मुगल वंश तक भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम राजाओं का शासन रहा। यह दौर संस्कृत, हिंदी, और फारसी भाषाओं के भी एक दूसरे से मिलने का रहा। करीब 700 साल के समय के अखाड़े में ये सभी भाषाएं एक दूसरे में मिलती गईं। और एक नए रंग यानी हिंदुस्तानी जुबान के रूप में निखरीं। माना जाता है कि भारत के इसी मध्यकाल में अखाड़ों के स्नान को ‘शाही स्नान’ कहा जाने लगा। संतों का स्नान भव्य और दिव्य होता है, जैसे राजाओं की यात्रा होती थी। इसी वजह से इसे शाही कहा जाने लगा। हालांकि, इस बीच भाषा में शुद्धता के पैरोकारों ने संस्कृत को हिंदुओं से और फारसी को मुसलमानों से जोड़े रखा। फारसी भाषा का ‘पेशवा’ शब्द मराठा साम्राज्य का हिस्सा रहा
पेशवा भी फारसी भाषा का शब्द है। इसका मतलब होता है- नेता या नायक। मराठा शासन में राजा के बाद प्रधानमंत्री का पद सबसे अहम बनकर उभरा। इन्हें ही ‘पेशवा’ कहा गया। अब बात पेशवाई की। इस शब्द का इस्तेमाल किसी सम्मानित व्यक्ति का, नेता के स्वागत के संदर्भ में होता है। इसे अगवानी करना भी कहते हैं। यही अखाड़ों में इस्तेमाल होता रहा है। उनके आश्रम से मेला क्षेत्र में जाने की प्रक्रिया को पेशवाई कहा गया। शब्दों को बदलने को लेकर एकजुट हुए साधु-संत
26 जुलाई की अखाड़ा परिषद की बैठक के बाद 5 सितंबर को हरिद्वार के संत समाज ने हिंदू धार्मिक संदर्भों से उर्दू शब्दों को हिंदी और संस्कृत के शब्दों से बदलने की मांग रखी। संतों ने कहा- शाही और पेशवाई जैसे उर्दू शब्द मुगल सल्तनत की याद दिलाते हैं। कुंभ में होने वाले स्नान को भी शाही स्नान कहा जाता है। यह शब्द भारतीय संस्कृति की परंपरा में नहीं है। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रविंद्र पुरी महाराज ने कहा- यह प्रस्ताव उन सभी शहरों के प्रशासन को भेजा जाएगा, जहां कुंभ मेला या इसी तरह के धार्मिक आयोजन होते हैं। रविंद्र पुरी के अलावा दूसरे संतों ने भी भाषा के हिंदू-मुस्लिम रंग को लेकर बयान दिया। आह्वान अखाड़ा के महामंडलेश्वर अतुलेशानंद महाराज ने कहा- शाही शब्द एक इस्लामिक शब्द है। मुगल आक्रांताओं द्वारा प्रेषित है। सनातन धर्म में ऐसे किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए। भारत को इस्लामिक शब्द हटाने चाहिए, क्योंकि ये गुलामी के प्रतीक हैं। जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर शैलेशानंद महाराज ने कहा- हमें हमारे मूल स्वरूप में लौटना होगा। मध्य प्रदेश सरकार ने अच्छा निर्णय लिया कि शाही की जगह राजसी सवारी कहा। कुंभ मेले में होने वाले स्नान का नाम भी अमृत स्नान, दिव्य स्नान जैसा होना चाहिए। नाम बदलने की मांग, धर्म और राजनीति में नई नहीं है धर्म: महाकाल की शाही सवारी अब राजसी सवारी
किसी धार्मिक आयोजन में प्रथा का नाम बदलने की यह मांग नई नहीं है। मध्य प्रदेश के उज्जैन में महाकाल की निकलने वाली शाही सवारी का नाम बदलकर भी राजसी सवारी किया जा चुका है। यह बदलाव इसी साल सितंबर में किया गया। यहां भी संतों ने उर्दू-फारसी शब्दों के चलन का विरोध किया। संतों की इस मांग को मानते हुए मध्य प्रदेश के सीएम मोहन यादव ने इसका आधिकारिक रूप से शाही सवारी से नाम बदलकर राजसी सवारी कर दिया। राजनीति: पिछले एक दशक में 11 शहरों के नाम बदले गए
नाम में क्या रखा है! ये सवाल यूपी में कोई पूछे तो जवाब होगा, वोट रखा है नाम में। चाहे वो कोई भी पार्टी हो। राज्य में समय-समय पर सपा, बसपा और भाजपा, इन तीनों ने ही सत्ता में रहने पर अपने कोर वोटबैंक के लिए नाम बदलने के पैंतरे अपनाए हैं। बीते एक दशक की बात करें तो इस बीच 2012 से 2017 तक सपा की सरकार रही और इसके बाद से भाजपा की है। सपा ने अपने कार्यकाल में 9 जिलों के नाम बदले। वहीं, योगी सरकार अब तक फैजाबाद को अयोध्या, इलाहाबाद को प्रयागराज कर चुके हैं। मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल रेलवे स्टेशन किया जा चुका है। ………………………………………………………. ये भी पढ़ें… विजयदशमी पर लगती है साधु-संतों की अदालत:सीएम योगी दंडाधिकारी बन कर करते हैं न्याय, नाथ संप्रदाय में वर्षों से निभाई जा रही परंपरा गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में विजयदशमी के दिन हर साल साधु-संतों की अदालत लगती है। योगी आदित्यनाथ 10 साल से इसमें दंडाधिकारी की भूमिका निभा रहे हैं। वह साधु-संतों से जुड़े विवादों का निपटारा करते हैं। क्या है ये परंपरा? कैसे सीएम योगी को साधु-संतों के विवाद निपटाने का अधिकार मिला? नाथ पंथ से उनका क्या कनेक्शन है? साधु-संतों की अदालत का क्या महत्व है? पढ़ें पूरी खबर… प्रयागराज में कुंभ 2025 की तैयारियां अब आखिरी चरण में हैं। तमाम अखाड़े भी अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। उनकी इन्हीं तैयारियों में इस बार एक काम और शामिल है, वह है- कुछ नामों को बदलना। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया है कि वो इस बार कुंभ में ‘शाही स्नान’, ‘पेशवाई’ और ‘चेहरा-मोहरा’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे। वजह बताई कि ये उर्दू शब्द हैं, जो मुगलों ने दिए थे। गुलामी के प्रतीक हैं। इसलिए संतों ने कुंभ में उर्दू और फारसी शब्दों का प्रयोग नहीं करने का फैसला किया है। इन शब्दों की जगह संस्कृतनिष्ठ हिंदी के शब्दों के प्रयोग होगा। नए नाम राजसी स्नान और छावनी प्रवेश रखा गया है। परिषद ने नाम बदलने का प्रस्ताव शासन को भी भेज दिया है। अखाड़ों में कहां से आए शाही स्नान और पेशवाई शब्द, क्या है इनका मुगलों से संबंध, क्या हैं अखाड़े? इन सभी सवालों के जवाब भास्कर एक्सप्लेनर में जानिए- सबसे पहले जानिए मामला क्या है?
26 जुलाई को उज्जैन में प्रयागराज महाकुंभ के लिए अखाड़ों की बैठक हुई। नगर प्रवेश, पेशवाई, शाही स्नान, शोभायात्रा और कढ़ी-पकौड़ा की तिथियां तय की गईं। बैठक की अध्यक्षता जूना अखाड़े के अंतरराष्ट्रीय सभापति महंत प्रेम गिरी कर रहे थे। महेंद्र गिरी ने इन शब्दों को बदलने का प्रस्ताव दिया। कहा- उर्दू और फारसी के शब्दों की जगह शुद्ध हिंदी के शब्दों का अखाड़ों में इस्तेमाल होगा। इसके बाद शाही स्नान, पेशवाई और चेहरा-मोहरा शब्दों को बदलने की कवायद शुरू हो गईं। 6 अक्टूबर को सीएम योगी आदित्यनाथ प्रयागराज पहुंचे। उन्होंने महाकुंभ की तैयारियों की समीक्षा के बाद अखाड़ों के संतों से भेंट की। उस दौरान भी इन शब्दों को हटाने पर चर्चा हुई। महेंद्र गिरी ने तर्क दिया कि शाही, उर्दू भाषा का शब्द है। यह नाम मुगलों के समय दिया गया था। शाही शब्द हम लोगों के लिए गुलामी का प्रतीक है। जिस दौर में जिसका शासन रहता है, उस दौर में उसकी भाषा का भी प्रभाव आ जाता है। अंग्रेजों के भारत आने से पहले आक्रांताओं का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया था। इस कारण से उन लोगों की भाषा भी दैनिक जीवन में प्रयोग होने लगी। अब समय बदल चुका है। वो आगे कहते हैं कि यह भाषा जिन लोगों की है, वो हम लोगों को अपना शत्रु मानते हैं। वो लोग वंदे मातरम नहीं बोलते हैं। उन लोगों को भारत माता की जय बोलने में भी परेशानी होती है। ऐसे लोगों की भाषा को हम क्यों ढो रहे हैं? जुलाई में हुई बैठक के बाद से ही परिषद के संतों ने महाकुंभ के आयोजन से ऊर्दू-फारसी शब्दों को बाहर निकालने की मांग शुरू कर दी थी। 5 और 6 अक्टूबर को प्रयागराज में अखाड़ा परिषद की बैठक में इससे जुड़ा प्रस्ताव पास किया गया। इसमें 8 अखाड़े मौजूद रहे। 9वें अखाड़े ने बैठक से दूर रहकर अपना समर्थन दिया। बैठक में 11 प्रस्ताव परिषद ने पास किए। शाही स्नान और पेशवाई क्या है, जिसे बदलने की मांग है संतों का स्नान शाही स्नान, आश्रम से मेला जाना पेशवाई
कुंभ और महाकुंभ मेले में अखाड़ों का जमावड़ा होता है। मेले की रौनक इन अखाड़ों से होती है। ऐसे में, अखाड़ों के संतों के स्नान को ‘शाही स्नान’ कहा जाता रहा है। वहीं, अखाड़े के आश्रम से मेला क्षेत्र में जाने को ‘पेशवाई’ कहा जाता है। इस पेशवाई में अखाड़े, मंडलेश्वर और महामंडलेश्वर के साथ मेला क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। इस पेशवाई में अखाड़ों के संत-महंत के साथ उनके समर्थकों की भीड़ गाजे-बाजे के साथ, हाथी-घोड़े पर सवार होकर भव्यता के साथ मेला क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। कुंभ मेला क्षेत्र में अखाड़े छावनी बनाते हैं। यहां उनकी बैठकें होती हैं। इसी को चेहरा-मोहरा कहा जाता है। यह परंपरा कई सदियों से चली आ रही है। ईरान से निकला फारसी भाषा का शब्द है ‘शाही’
शाही फारसी भाषा का शब्द है। यह राजाओं के लिए इस्तेमाल होता रहा है। पहले राजाओं के शाह पदनाम के रूप में लिखा जाता था। बाद में यही शाही बना रॉयल, राजसी। इसकी जड़ें ईरान में मिलती हैं। उससे लगे अफगानिस्तान में भी फारसी का प्रभाव रहा है। अफगानिस्तान में तीसरी सदी के राजाओं के नाम के साथ शाही शब्द नत्थी मिलता है। ऐसे में, जब आठवीं, नौवीं सदी के बाद भारत में उत्तर-पश्चिम यानी अफगानिस्तान के रास्ते से आक्रमण हुए, तो यह शब्द यहां आया। गुलाम वंश से लेकर मुगल वंश तक भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम राजाओं का शासन रहा। यह दौर संस्कृत, हिंदी, और फारसी भाषाओं के भी एक दूसरे से मिलने का रहा। करीब 700 साल के समय के अखाड़े में ये सभी भाषाएं एक दूसरे में मिलती गईं। और एक नए रंग यानी हिंदुस्तानी जुबान के रूप में निखरीं। माना जाता है कि भारत के इसी मध्यकाल में अखाड़ों के स्नान को ‘शाही स्नान’ कहा जाने लगा। संतों का स्नान भव्य और दिव्य होता है, जैसे राजाओं की यात्रा होती थी। इसी वजह से इसे शाही कहा जाने लगा। हालांकि, इस बीच भाषा में शुद्धता के पैरोकारों ने संस्कृत को हिंदुओं से और फारसी को मुसलमानों से जोड़े रखा। फारसी भाषा का ‘पेशवा’ शब्द मराठा साम्राज्य का हिस्सा रहा
पेशवा भी फारसी भाषा का शब्द है। इसका मतलब होता है- नेता या नायक। मराठा शासन में राजा के बाद प्रधानमंत्री का पद सबसे अहम बनकर उभरा। इन्हें ही ‘पेशवा’ कहा गया। अब बात पेशवाई की। इस शब्द का इस्तेमाल किसी सम्मानित व्यक्ति का, नेता के स्वागत के संदर्भ में होता है। इसे अगवानी करना भी कहते हैं। यही अखाड़ों में इस्तेमाल होता रहा है। उनके आश्रम से मेला क्षेत्र में जाने की प्रक्रिया को पेशवाई कहा गया। शब्दों को बदलने को लेकर एकजुट हुए साधु-संत
26 जुलाई की अखाड़ा परिषद की बैठक के बाद 5 सितंबर को हरिद्वार के संत समाज ने हिंदू धार्मिक संदर्भों से उर्दू शब्दों को हिंदी और संस्कृत के शब्दों से बदलने की मांग रखी। संतों ने कहा- शाही और पेशवाई जैसे उर्दू शब्द मुगल सल्तनत की याद दिलाते हैं। कुंभ में होने वाले स्नान को भी शाही स्नान कहा जाता है। यह शब्द भारतीय संस्कृति की परंपरा में नहीं है। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रविंद्र पुरी महाराज ने कहा- यह प्रस्ताव उन सभी शहरों के प्रशासन को भेजा जाएगा, जहां कुंभ मेला या इसी तरह के धार्मिक आयोजन होते हैं। रविंद्र पुरी के अलावा दूसरे संतों ने भी भाषा के हिंदू-मुस्लिम रंग को लेकर बयान दिया। आह्वान अखाड़ा के महामंडलेश्वर अतुलेशानंद महाराज ने कहा- शाही शब्द एक इस्लामिक शब्द है। मुगल आक्रांताओं द्वारा प्रेषित है। सनातन धर्म में ऐसे किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए। भारत को इस्लामिक शब्द हटाने चाहिए, क्योंकि ये गुलामी के प्रतीक हैं। जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर शैलेशानंद महाराज ने कहा- हमें हमारे मूल स्वरूप में लौटना होगा। मध्य प्रदेश सरकार ने अच्छा निर्णय लिया कि शाही की जगह राजसी सवारी कहा। कुंभ मेले में होने वाले स्नान का नाम भी अमृत स्नान, दिव्य स्नान जैसा होना चाहिए। नाम बदलने की मांग, धर्म और राजनीति में नई नहीं है धर्म: महाकाल की शाही सवारी अब राजसी सवारी
किसी धार्मिक आयोजन में प्रथा का नाम बदलने की यह मांग नई नहीं है। मध्य प्रदेश के उज्जैन में महाकाल की निकलने वाली शाही सवारी का नाम बदलकर भी राजसी सवारी किया जा चुका है। यह बदलाव इसी साल सितंबर में किया गया। यहां भी संतों ने उर्दू-फारसी शब्दों के चलन का विरोध किया। संतों की इस मांग को मानते हुए मध्य प्रदेश के सीएम मोहन यादव ने इसका आधिकारिक रूप से शाही सवारी से नाम बदलकर राजसी सवारी कर दिया। राजनीति: पिछले एक दशक में 11 शहरों के नाम बदले गए
नाम में क्या रखा है! ये सवाल यूपी में कोई पूछे तो जवाब होगा, वोट रखा है नाम में। चाहे वो कोई भी पार्टी हो। राज्य में समय-समय पर सपा, बसपा और भाजपा, इन तीनों ने ही सत्ता में रहने पर अपने कोर वोटबैंक के लिए नाम बदलने के पैंतरे अपनाए हैं। बीते एक दशक की बात करें तो इस बीच 2012 से 2017 तक सपा की सरकार रही और इसके बाद से भाजपा की है। सपा ने अपने कार्यकाल में 9 जिलों के नाम बदले। वहीं, योगी सरकार अब तक फैजाबाद को अयोध्या, इलाहाबाद को प्रयागराज कर चुके हैं। मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल रेलवे स्टेशन किया जा चुका है। ………………………………………………………. ये भी पढ़ें… विजयदशमी पर लगती है साधु-संतों की अदालत:सीएम योगी दंडाधिकारी बन कर करते हैं न्याय, नाथ संप्रदाय में वर्षों से निभाई जा रही परंपरा गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में विजयदशमी के दिन हर साल साधु-संतों की अदालत लगती है। योगी आदित्यनाथ 10 साल से इसमें दंडाधिकारी की भूमिका निभा रहे हैं। वह साधु-संतों से जुड़े विवादों का निपटारा करते हैं। क्या है ये परंपरा? कैसे सीएम योगी को साधु-संतों के विवाद निपटाने का अधिकार मिला? नाथ पंथ से उनका क्या कनेक्शन है? साधु-संतों की अदालत का क्या महत्व है? पढ़ें पूरी खबर… उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर