एक समय था, जब लोग नेताओं के चुनावी प्रचार में उनके भाषण सुनने नहीं, उनकी गाड़ी को देखने जाते थे। कच्ची सड़कों पर धूल उड़ती थी, फिर भी बच्चे गाड़ियों के पीछे पर्चे उठाने के लिए भागते थे और लोग सड़कों के किनारे कतार लगाकर खड़े होते थे। हरियाणा में जब पहली बार चुनाव हुआ तो माहौल में इतना चकाचौंध नहीं था, सोशल मीडिया और इंटरनेट का जमाना भी नहीं था, उस वक्त चुनावी प्रचार करने में नेताओं के पसीने छूट जाया करते थे। एक गांव से दूसरे गांव पैदल चलकर जाना, घर-घर वोट मांगना, अपनी पहचान और पार्टी का नाम बताना और लोगों को वोट के महत्त्व के बारे में समझाना आज के समय से कहीं ज्यादा मुश्किल हुआ करता था। 1967 में हुआ था पहला विधानसभा चुनाव हरियाणा में कुछ ही दिनों बाद 15वां विधानसभा का चुनाव होने वाला है, सभी पार्टियां जोर आजमाइश कर रही हैं, किसकी हार होगी और किसकी जीत? यह तो तय नहीं है, मगर ये जरूर तय है कि सत्ता की कुर्सी किसी एक को ही मिलेगी। चुनाव जीतने के लिए सभी पार्टियां करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं, मगर एक वक्त था जब नेताओं के पास अपनी गाड़ी भी नहीं होती थी। उस वक्त चुनावी प्रचार के लिए नेता पैदल या साइकिल से जाते थे। उस दौर में लाउड स्पीकर/साउंड का जमाना नहीं था, इतने शोर-शराबे भी नहीं होते थे। ये बात उस समय की है जब देश अंग्रेजों के चंगुल से नया-नया आजाद हुआ था और पहली बार चुनाव हुआ। वो साल था 1951-52 का, लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे। तब हरियाणा और पंजाब एक ही राज्य हुआ करते थे। जब हरियाणा कटकर अलग हुआ तो 1967 में विधानसभा का पहला चुनाव हुआ। नेताओं के काफिले में बैलगाड़ी होती थी पलवल जिले के न्यू कॉलोनी में रहने वाले 92 वर्षीय तीर्थ दास रहेजा बताते हैं कि “पहले के समय में लोकसभा चुनाव को बड़ी वोट और विधानसभा की चुनाव को छोटी वोट बोला जाता था। आज के समय में उम्मीदवार पैसे को पानी की तरह बहाते हैं, लेकिन एक वक्त था जब उम्मीदवार पैदल-पैदल चलकर ही शहरों व गांवों में वोट मांगने जाया करते थे। उस समय सादगी पूर्ण तरीके से चुनाव प्रचार होता था। वो ऐसा वक्त था जब उम्मीदवार के पास न तो गाड़ी थी, न प्रचार के लिए माइक थे। गांवों में जाने के लिए पक्की सड़कें भी नहीं थी। प्रचार के लिए साधन के रूप में केवल साइकिल का इस्तेमाल होता था या फिर प्रत्याशी को पैदल ही जाना पड़ता था। आज के समय में नेताओं की रैली में हजारों लग्जरी गाड़ियों का काफिला निकलता है, पर उस समय रैली के नाम पर नेताओं के काफिले में बैलगाड़ी और तांगे चला करते थे। उसमें भी अधिकांश प्रत्याशी ऐसे होते, जो ये सुविधाएं भी नहीं जुटा पाते थे।” सोशल मीडिया और इंटरनेट का नहीं था जमाना तीर्थ दास बताते हैं, उस समय की भी अपनी कहानी है। आज के दौर में सोशल मीडिया और इंटरनेट का जमाना है, लोग घर बैठे नेताओं के भाषण सुन लेते हैं, क्षण-क्षण बदलते उनके बयान सुन लेते हैं, टीवी और इंटरनेट पर छपे विज्ञापनों में नेताओं का प्रचार देख लेते हैं। मगर उस दौर में प्रत्याशी को अपनी पहचान बताने के लिए घर-घर जाना पड़ता था, एक-एक व्यक्ति से मिलना पड़ता था। हां मगर उस समय आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला नहीं था, नेता उल्टी-सीधी बयानबाजी भी नहीं करते थे। आज के समय में सोशल मीडिया पर केवल एक पोस्ट वायरल हो जाने से रातों-रात नेताओं की छवि बदल जाती है, जिसका सीधा असर चुनावी नतीजे पर पड़ता है पर उस दौर में ऐसा कुछ भी नहीं होता था। वैलेट पेपर पर डाले जाते थे वोट तीर्थ दास पुरानी यादों के बारे में बताते हुए उस दौर का जिक्र करते हैं, जब देश में पहली बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हुआ था। एक समस्या ये भी थी, कितने लोगों को पता ही नहीं था कि वोट कैसे डाला जाता है, उस टाइम ईवीएम मशीन प्रचलन में नहीं था, वैलेट पेपर पर वोट डाले जाते थे। कितने वोट तो गलत तरीके से डालने के कारण रद्द हो जाते थे। प्रत्याशी चुनावी प्रचार के दौरान वैलेट पेपर का एक नमुना अपने साथ ले जाते और उसे दिखाकर लोगों को वोट डालने के तरीके के बारे में भी समझाते थे। उस समय प्रत्याशी जब चुनाव प्रचार के लिए किसी गांव में पहुंचता तो लोग उसे देखने के लिए इकट्ठे हो जाते थे। तब शहर और गांवों को जोड़ने के लिए कच्चे रास्ते होते थे, पक्की सड़कें या गाड़ी तो थी ही नहीं। उस समय के चुनावों में प्रचार का जिम्मा प्रत्याशी के गांव के लोग, रिश्तेदार व सगे- संबंधी खुद संभालते थे और पैदल-पैदल गांवों में जाकर सादगी के साथ वोट मांगा करते थे। 1967 से 2024 तक चुनावी सफर उस समय चुनावी प्रचार में न तो बैंडबाजे होते थे, न ही लाउड स्पीकर, न जातिवाद न संप्रदायवाद केवल विकास ही मुद्दा होता था। उन्होंने बताया कि 1966 में जब हरियाणा बना तो चुनाव प्रचार में कुछ बदलाव आया। माइक व प्रचार में एक-दो अंबेसडर गाड़ी आ चुकी थी। चुनाव प्रचार के लिए जब गाड़ी गांव में पहुंचती थी तो लोग चुनाव प्रचार को कम, गाड़ी को देखने के लिए ज्यादा एकत्रित होते थे। लेकिन उस समय भी कच्चे रास्ते होते थे, गाड़ी जब निकलती थी तो धूल उड़ती थी, लेकिन उसके बाद भी बच्चे पर्चे लेने के लिए गाड़ी के पीछे काफी दूर तक दौड़ा करते थे। आज के समय में बहुत कुछ बदल गया है, चुनावी प्रचार के तरीके बदल गए, वोट मांगने तरीकों में भी बदलाव आ गया और मुद्दे भी बदल गए। मगर आज भी हरियाणा के कई पिछड़े गांव विकास की राह निहार रहे हैं। जो पक्की सड़क, बेहतर शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था से आज भी अछूते हैं। कौन हैं तीर्थ दास रहेजा? न्यू कॉलोनी पलवल निवासी तीर्थ दास रहेजा की उम्र 92 साल है। उनका जन्म 25 अक्टूबर 1932 को जिला डेरा गाजिखान तहसील जामपुर के नौसरा बैस्ट गांव में हुआ था। जो अब पाकिस्तान में पड़ता है। आठवीं तक की पढ़ाई भी उन्होंने पाकिस्तान के नौसरा बैस्ट गांव में ही की थी। उसके बाद अक्टूबर 1947 को जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो वे जालंधर आ गए। पंजाब में जालंधर से प्रशासनिक अधिकारियों ने उन्हें अप्रैल 1948 को पलवल भेज दिया। पलवल में आकर उन्होंने 1952 में दसवीं पास किया और 1953 में करनाल से जेबीटी की। उस समय हरियाणा, पंजाब व हिमाचल एक थे और करनाल में ही जेबीटी केंद्र था। सितंबर 1953 में मेवात के नंदरायपुर बास स्कूल में वे जेबीटी अध्यापक नियुक्त हुए और 31 अक्टूबर 1990 में सेवानिवृत हो गए। एक समय था, जब लोग नेताओं के चुनावी प्रचार में उनके भाषण सुनने नहीं, उनकी गाड़ी को देखने जाते थे। कच्ची सड़कों पर धूल उड़ती थी, फिर भी बच्चे गाड़ियों के पीछे पर्चे उठाने के लिए भागते थे और लोग सड़कों के किनारे कतार लगाकर खड़े होते थे। हरियाणा में जब पहली बार चुनाव हुआ तो माहौल में इतना चकाचौंध नहीं था, सोशल मीडिया और इंटरनेट का जमाना भी नहीं था, उस वक्त चुनावी प्रचार करने में नेताओं के पसीने छूट जाया करते थे। एक गांव से दूसरे गांव पैदल चलकर जाना, घर-घर वोट मांगना, अपनी पहचान और पार्टी का नाम बताना और लोगों को वोट के महत्त्व के बारे में समझाना आज के समय से कहीं ज्यादा मुश्किल हुआ करता था। 1967 में हुआ था पहला विधानसभा चुनाव हरियाणा में कुछ ही दिनों बाद 15वां विधानसभा का चुनाव होने वाला है, सभी पार्टियां जोर आजमाइश कर रही हैं, किसकी हार होगी और किसकी जीत? यह तो तय नहीं है, मगर ये जरूर तय है कि सत्ता की कुर्सी किसी एक को ही मिलेगी। चुनाव जीतने के लिए सभी पार्टियां करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं, मगर एक वक्त था जब नेताओं के पास अपनी गाड़ी भी नहीं होती थी। उस वक्त चुनावी प्रचार के लिए नेता पैदल या साइकिल से जाते थे। उस दौर में लाउड स्पीकर/साउंड का जमाना नहीं था, इतने शोर-शराबे भी नहीं होते थे। ये बात उस समय की है जब देश अंग्रेजों के चंगुल से नया-नया आजाद हुआ था और पहली बार चुनाव हुआ। वो साल था 1951-52 का, लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे। तब हरियाणा और पंजाब एक ही राज्य हुआ करते थे। जब हरियाणा कटकर अलग हुआ तो 1967 में विधानसभा का पहला चुनाव हुआ। नेताओं के काफिले में बैलगाड़ी होती थी पलवल जिले के न्यू कॉलोनी में रहने वाले 92 वर्षीय तीर्थ दास रहेजा बताते हैं कि “पहले के समय में लोकसभा चुनाव को बड़ी वोट और विधानसभा की चुनाव को छोटी वोट बोला जाता था। आज के समय में उम्मीदवार पैसे को पानी की तरह बहाते हैं, लेकिन एक वक्त था जब उम्मीदवार पैदल-पैदल चलकर ही शहरों व गांवों में वोट मांगने जाया करते थे। उस समय सादगी पूर्ण तरीके से चुनाव प्रचार होता था। वो ऐसा वक्त था जब उम्मीदवार के पास न तो गाड़ी थी, न प्रचार के लिए माइक थे। गांवों में जाने के लिए पक्की सड़कें भी नहीं थी। प्रचार के लिए साधन के रूप में केवल साइकिल का इस्तेमाल होता था या फिर प्रत्याशी को पैदल ही जाना पड़ता था। आज के समय में नेताओं की रैली में हजारों लग्जरी गाड़ियों का काफिला निकलता है, पर उस समय रैली के नाम पर नेताओं के काफिले में बैलगाड़ी और तांगे चला करते थे। उसमें भी अधिकांश प्रत्याशी ऐसे होते, जो ये सुविधाएं भी नहीं जुटा पाते थे।” सोशल मीडिया और इंटरनेट का नहीं था जमाना तीर्थ दास बताते हैं, उस समय की भी अपनी कहानी है। आज के दौर में सोशल मीडिया और इंटरनेट का जमाना है, लोग घर बैठे नेताओं के भाषण सुन लेते हैं, क्षण-क्षण बदलते उनके बयान सुन लेते हैं, टीवी और इंटरनेट पर छपे विज्ञापनों में नेताओं का प्रचार देख लेते हैं। मगर उस दौर में प्रत्याशी को अपनी पहचान बताने के लिए घर-घर जाना पड़ता था, एक-एक व्यक्ति से मिलना पड़ता था। हां मगर उस समय आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला नहीं था, नेता उल्टी-सीधी बयानबाजी भी नहीं करते थे। आज के समय में सोशल मीडिया पर केवल एक पोस्ट वायरल हो जाने से रातों-रात नेताओं की छवि बदल जाती है, जिसका सीधा असर चुनावी नतीजे पर पड़ता है पर उस दौर में ऐसा कुछ भी नहीं होता था। वैलेट पेपर पर डाले जाते थे वोट तीर्थ दास पुरानी यादों के बारे में बताते हुए उस दौर का जिक्र करते हैं, जब देश में पहली बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हुआ था। एक समस्या ये भी थी, कितने लोगों को पता ही नहीं था कि वोट कैसे डाला जाता है, उस टाइम ईवीएम मशीन प्रचलन में नहीं था, वैलेट पेपर पर वोट डाले जाते थे। कितने वोट तो गलत तरीके से डालने के कारण रद्द हो जाते थे। प्रत्याशी चुनावी प्रचार के दौरान वैलेट पेपर का एक नमुना अपने साथ ले जाते और उसे दिखाकर लोगों को वोट डालने के तरीके के बारे में भी समझाते थे। उस समय प्रत्याशी जब चुनाव प्रचार के लिए किसी गांव में पहुंचता तो लोग उसे देखने के लिए इकट्ठे हो जाते थे। तब शहर और गांवों को जोड़ने के लिए कच्चे रास्ते होते थे, पक्की सड़कें या गाड़ी तो थी ही नहीं। उस समय के चुनावों में प्रचार का जिम्मा प्रत्याशी के गांव के लोग, रिश्तेदार व सगे- संबंधी खुद संभालते थे और पैदल-पैदल गांवों में जाकर सादगी के साथ वोट मांगा करते थे। 1967 से 2024 तक चुनावी सफर उस समय चुनावी प्रचार में न तो बैंडबाजे होते थे, न ही लाउड स्पीकर, न जातिवाद न संप्रदायवाद केवल विकास ही मुद्दा होता था। उन्होंने बताया कि 1966 में जब हरियाणा बना तो चुनाव प्रचार में कुछ बदलाव आया। माइक व प्रचार में एक-दो अंबेसडर गाड़ी आ चुकी थी। चुनाव प्रचार के लिए जब गाड़ी गांव में पहुंचती थी तो लोग चुनाव प्रचार को कम, गाड़ी को देखने के लिए ज्यादा एकत्रित होते थे। लेकिन उस समय भी कच्चे रास्ते होते थे, गाड़ी जब निकलती थी तो धूल उड़ती थी, लेकिन उसके बाद भी बच्चे पर्चे लेने के लिए गाड़ी के पीछे काफी दूर तक दौड़ा करते थे। आज के समय में बहुत कुछ बदल गया है, चुनावी प्रचार के तरीके बदल गए, वोट मांगने तरीकों में भी बदलाव आ गया और मुद्दे भी बदल गए। मगर आज भी हरियाणा के कई पिछड़े गांव विकास की राह निहार रहे हैं। जो पक्की सड़क, बेहतर शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था से आज भी अछूते हैं। कौन हैं तीर्थ दास रहेजा? न्यू कॉलोनी पलवल निवासी तीर्थ दास रहेजा की उम्र 92 साल है। उनका जन्म 25 अक्टूबर 1932 को जिला डेरा गाजिखान तहसील जामपुर के नौसरा बैस्ट गांव में हुआ था। जो अब पाकिस्तान में पड़ता है। आठवीं तक की पढ़ाई भी उन्होंने पाकिस्तान के नौसरा बैस्ट गांव में ही की थी। उसके बाद अक्टूबर 1947 को जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो वे जालंधर आ गए। पंजाब में जालंधर से प्रशासनिक अधिकारियों ने उन्हें अप्रैल 1948 को पलवल भेज दिया। पलवल में आकर उन्होंने 1952 में दसवीं पास किया और 1953 में करनाल से जेबीटी की। उस समय हरियाणा, पंजाब व हिमाचल एक थे और करनाल में ही जेबीटी केंद्र था। सितंबर 1953 में मेवात के नंदरायपुर बास स्कूल में वे जेबीटी अध्यापक नियुक्त हुए और 31 अक्टूबर 1990 में सेवानिवृत हो गए। हरियाणा | दैनिक भास्कर
Related Posts
जींद में होटल मालिक को लगाया 1 लाख का चूना:मैनेजर पिछले रिकॉर्ड में कर रहा था एंट्री; सीसीटीवी फुटेज में खुली पोल
जींद में होटल मालिक को लगाया 1 लाख का चूना:मैनेजर पिछले रिकॉर्ड में कर रहा था एंट्री; सीसीटीवी फुटेज में खुली पोल हरियाणा के जींद में होटल के मैनेजर ने अपने मालिक को एक लाख रुपए का चूना लगाया है। इसकी शिकायत होटल संचालक ने शहर थाना पुलिस को दी। पुलिस ने मैनेजर के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया गया है। अभी किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। पुलिस को दी शिकायत में जींद की बुढ़ा बाबा बस्ती निवासी मनीष ने बताया कि उसने रोहतक रोड पर कोर्ट मोड़ के पास डिलाइट होटल किया हुआ है। इसमें खरैंटी गांव निवासी अमन को रिसेप्शन पर मैनेजर के तौर पर रखा हुआ है। मैनेजर के साथ हर तीसरे दिन वह हिसाब-किताब कर लेता था। पिछले कुछ दिन से उनके होटल में आमदनी घटी हुई थी। इसके बारे में अमन से पूछा तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसने बताया कि 21 जुलाई को उसने अपने होटल में लगे सीसीटीवी कैमरे की रिकार्डिंग चेक की और देखा तो अमन रजिस्टर में पिछली तारीखों में एंट्री कर रहा था। इसके बाद उसने रजिस्टर चेक किया तो पिछली तारीखों में कटिंग करी मिली। अमन प्रतिदिन उसे 1500 से 2000 का चूना लगा रहा था। कुल मिलाकर अमन ने उसके साथ एक लाख रुपए की धोखाधड़ी की है। शहर थाना पुलिस ने मनीष की शिकायत पर अमन के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है।
तेलंगाना CM ने हरियाणा कांग्रेस पर सवाल खड़े किए:बोले-लोकल फैक्टर पर वोट मांगे, तभी जाट वर्सेज नॉन जाट हुआ और पार्टी चुनाव हारी
तेलंगाना CM ने हरियाणा कांग्रेस पर सवाल खड़े किए:बोले-लोकल फैक्टर पर वोट मांगे, तभी जाट वर्सेज नॉन जाट हुआ और पार्टी चुनाव हारी हरियाणा में कांग्रेस की हार का मुद्दा अब पार्टी के ही सीनियर नेताओं को बुरी तरीके से अखर रहा है। इसको लेकर अब तेलंगाना के कांग्रेसी CM रेवंत रेड्डी का बयान सामने आया है। उन्होंने यहां के लोकल नेताओं के चुनाव लड़ने के तरीके पर सवाल खड़े किए हैं। रेड्डी ने कहा सोनिया गांधी या राहुल गांधी की जगह हरियाणा के नेताओं ने लोकल फैक्टर पर वोट मांगे, जिस वजह से जाट वर्सेज नॉन जाट जैसे मुद्दे बन गए। उन्होंने हरियाणा के नेताओं को नसीहत भी दी कि लोकल फैक्टर पर चुनाव लड़ने में पसंद-नापसंद स्ट्रॉन्ग रहती है। उन्होंने एक निजी न्यूज संस्थान के दौरान इस पर खुलकर अपनी बात कही। बता दें कि हरियाणा में कांग्रेस ने पूरा चुनाव पूर्व CM भूपेंद्र हुड्डा की अगुआई में लड़ा। नेशनल लेवल पर भी कांग्रेस हाईकमान ने सांसद कुमारी सैलजा, पूर्व मंत्री कैप्टन अजय यादव जैसे नेताओं को नजरअंदाज किया। जिस वजह से अच्छे माहौल के बावजूद कांग्रेस चुनाव हार गई और BJP ने हरियाणा के इतिहास में जीत की हैट्रिक लगाकर तीसरी बार सरकार बना ली। हालांकि हरियाणा कांग्रेस कैंपेन, गुटबाजी, भीतरघात समेत तमाम कारणों को नकारकर EVM को हार के लिए जिम्मेदार ठहरा रही है। उन्होंने पहले चुनाव आयोग से शिकायत की। वहां से आरोप गलत करार दिए जाने पर कांग्रेस हाईकोर्ट जाने की तैयारी में है। वहीं राहुल गांधी ने हार के बाद पहली समीक्षा मीटिंग में कहा था कि यहां नेताओं के हित पार्टी से ऊपर हो गए, जिसकी वजह से अच्छे माहौल के बावजूद पार्टी जीत नहीं पाई। कांग्रेस हाईकमान की बनाई कमेटी में भी हारे उम्मीदवारों ने गुटबाजी और भीतरघात को जिम्मेदार ठहराया था। रेवंत रेड्डी की कहीं 5 अहम बातें,,, 1. हरियाणा को स्टडी किया, तेलंगाना में सोनिया के नाम पर वोट मांगे
तेलंगाना के CM रेवंत रेड्डी ने कहा- हरियाणा को कंपेयर करके बोलने वाला हूं। बाकी का मैंने ज्यादा स्टडी नहीं किया है। तेलंगाना में हम लोगों ने मेहनत की। हमने सोनिया गांधी के नाम पर हार्डवर्क किया। हमने सोनिया गांधी के नाम पर वोट मांगा। 60 साल के बाद उन्होंने तेलंगाना को एक शब्द दिया कि मैं आपके सपनों को पूरा करूंगी। उन्होंने अपना कमिटमेंट निभाया है। 2. हरियाणा में जाट वर्सेज नॉन जाट का परसेप्शन क्रिएट हुआ
मैं मेहनत कर रहा हूं, मैं सिपाही हूं लेकिन मेरी नेता सोनिया गांधी हैं। वोट देना है तो सोनिया गांधी को वोट दो। हरियाणा में परसेप्शन क्रिएट करने वाला काम हुआ। यहां चर्चा हो गई जाट वर्सेज नॉन जाट या और भी अलग-अलग। 3. राहुल गांधी के नाम पर वोट क्यों नहीं मांगे
अगर राहुल गांधी के नाम पर वोट मांगते। उन्होंने कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर और मणिपुर से मुंबई तक पदयात्रा की। अगर हरियाणा जीते तो राहुल गांधी इस देश के नेता बनेंगे। देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। अगर यह नारा लेकर हरियाणा में चुनाव लड़ते तो ये सब माहौल नहीं बनता। हरियाणा में लोकल फैक्टर पर चुनाव लड़ने की कोशिश की गई। मगर, लोकल फैक्टर में पसंद और नापसंद स्ट्रॉन्ग रहती है। 4. भाजपा सरपंच-सोसाइटी चुनाव भी मोदी के नाम पर लड़ती है
उन्होंने पूछा कि क्यों सरपंच इलेक्शन में भी BJP वाले नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगते हैं। सरपंच से मोदी को क्या लेना-देना है। सोसाइटी के चुनाव में भी वह कहते हैं कि मोदी को वोट दो। इसका पूरा मतलब यह है कि लोकल फैक्टर से उबरने के लिए आपको एक ब्रांड की जरूरत है। 5. देश में 2 ही परिवार, परसेप्शन क्रिएट करना चाहिए था
इस देश में दो ही परिवार हैं, मोदी परिवार वर्सेज गांधी परिवार। मोदी जी का संघ परिवार और दूसरा महात्मा गांधी का परिवार। अगर यह परसेप्शन क्रिएट किया जाता तो लोग अपने आप फैसला करते। ********************** ये खबर भी पढ़ें.. हरियाणा में कांग्रेस क्यों हारी: चुनाव प्रचार में नौकरी बांटने वालों का क्या हुआ, बैल्टवाइज रिजल्ट क्या रहा, सवाल-जवाब पढ़िए कांग्रेस के माहौल के दावे के बीच BJP सबको चौंकाते हुए 48 सीटें जीतकर बहुमत में आ गई। BJP की जीत ऐतिहासिक रही क्योंकि हरियाणा में आज तक कोई पार्टी जीत की हैट्रिक यानी लगातार 3 बार सत्ता में नहीं आ पाई (पूरी खबर पढ़ें)
पलवल के श्री विश्वकर्मा विश्वविद्यालय को मिला दूसरा स्थान:स्किल यूनिवर्सिटी एनआईआरएफ रैंकिंग जारी, शिक्षक बोले- नंबर 1 की तैयारी में जुटे
पलवल के श्री विश्वकर्मा विश्वविद्यालय को मिला दूसरा स्थान:स्किल यूनिवर्सिटी एनआईआरएफ रैंकिंग जारी, शिक्षक बोले- नंबर 1 की तैयारी में जुटे पलवल के श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय ने नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (NIRF) की स्किल यूनिवर्सिटी कैटेगरी में दूसरा रैंक हासिल कर इतिहास रच दिया है। केवल 8 साल की विकास यात्रा में इस मुकाम पर पहुंचने वाला यह पहला विश्वविद्यालय बन गया है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा यह रैंकिंग जारी किए जाने पर विश्वविद्यालय में जश्न का माहौल है। सभी ने इस उपलब्धि का श्रेय श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति डॉ. राज नेहरू की नेतृत्व क्षमता को दिया। उन्होंने कहा कि यह सभी शिक्षकों और गैर शिक्षक कर्मचारियों की अथक मेहनत का परिणाम है। नंबर वन रैंक के लिए तैयारी करेंगे कुलसचिव प्रो. ज्योति राणा को सभी डीन और विभागाध्यक्षों ने बधाई दी और भविष्य के लिए और बड़े लक्ष्य अर्जित करने का संकल्प लिया। उन्होंने कहा कि यह उपलब्धि बहुत ही गौरवपूर्ण है। इतने कम समय में विश्वविद्यालय ने यह मुकाम हासिल किया है। यह सब शिक्षकों और कर्मचारियों की मेहनत से संभव हो पाया है। भविष्य में हम नंबर वन रैंक के लिए तैयारी करेंगे। उन्होंने कहा कि बतौर कुलपति डॉ. राज नेहरू ने कौशल शिक्षा का मॉडल पूरे देश को दिया है। आज देश भर से दूसरे राज्य भी उच्च शिक्षा में कौशल के लिए श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय का अनुसरण कर रहे हैं। विश्वविद्यालय में जश्न का माहौल श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय के अकादमिक अधिष्ठाता प्रो. आरएस राठौड़ ने बताया कि इस रैंकिंग के लिए टीचिंग लर्निंग, रिसर्च व अकादमिक उपलब्धि सहित कई अन्य मानक बनाए गए हैं। इन सब में श्रेष्ठता प्रमाणित कर श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय ने यह उपलब्धि प्राप्त की है। इस अवसर पर डीन प्रो. ऋषिपाल, आशीष श्रीवास्तव, कुलवंत सिंह, ऊषा बत्रा, जॉय कुरियाकोजे, प्रो. एके वाटल, उप कुलसचिव डॉ. ललित शर्मा, चंचल भारद्वाज व अंजू मलिक, डॉ. श्रुति गुप्ता, डॉ. संजय सिंह राठौर, डॉ. समर्थ सिंह, डॉ. सविता शर्मा, निदेशक डॉ. मनी कंवर सिंह, असिस्टेंट देवेंद्र गिरी व पीआरओ डॉ. राजेश चौहान उपस्थित थे।