हाईकोर्ट ने कहा-अंधाधुंध गिरफ्तारियां मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन:वाराणसी गो हत्या के मामले में फैसला, व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत ही कीमती मौलिक अधिकार

हाईकोर्ट ने कहा-अंधाधुंध गिरफ्तारियां मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन:वाराणसी गो हत्या के मामले में फैसला, व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत ही कीमती मौलिक अधिकार

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी पुलिस की कार्यशैली पर ही सवाल उठा दिए। कोर्ट ने गो हत्या के एक मामले में एक आरोपी को अग्रिम जमानत देते हुए कहा कि तर्कहीन एवं अंधाधुंध गिरफ्तारियां मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं। कोर्ट ने कहा-अदालतों ने बार-बार कहा है कि पुलिस के लिए गिरफ्तारी अंतिम विकल्प होना चाहिए। और इसे केवल उन असाधारण मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिए, जहां आरोपी को गिरफ्तार करना अनिवार्य हो या हिरासत में लेकर उससे पूछताछ की आवश्यकता हो। इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले आरोपी मोहम्मद ताबिश राजा को गो हत्या अधिनियम की धारा 3, 5- ए, 5- बी और 8, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम की धारा 11 और आईपीसी की धारा 429 के तहत फंसाया गया था। मामला थाना लंका वाराणसी का है। आरोपी ने तर्क दिया कि यह पहली बार था जब उसे इस तरह के मामले में झूठा फंसाया गया। अदालत ने कहा- गिरफ्तारी पुलिस के पास अंतिम विकल्प
जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने कहा, एफआईआर दर्ज होने के बाद पुलिस अपनी इच्छानुसार गिरफ्तारी कर सकती है। जिस आरोपी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस के पास कोई निश्चित समय नहीं है। अदालतों ने बार-बार कहा है कि गिरफ्तारी पुलिस के लिए अंतिम विकल्प होना चाहिए और इसे केवल उन असाधारण मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिए, जहां आरोपी को गिरफ्तार करना अनिवार्य हो या हिरासत में लेकर उससे पूछताछ की आवश्यकता हो। तर्कहीन और अंधाधुंध गिरफ्तारियां मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हैं। अग्रिम जमानत की प्रार्थना का विरोध इसलिए किया गया क्योंकि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप गंभीर थे। याचिका का विरोध यह कहते हुए किया गया क्योंकि केवल काल्पनिक भय के आधार पर अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने कहा कि यद्यपि आवेदक के खिलाफ मामला दर्ज है । यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पुलिस उसे कब गिरफ्तार कर सकती है। जस्टिस सिद्धार्थ ने 1994 के जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला दिया , जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की तीसरी रिपोर्ट का हवाला दिया था। जिसमें उल्लेख किया गया था कि भारत में पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारियां पुलिस में भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत हैं। रिपोर्ट में आगे बताया गया कि लगभग 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां या तो अनावश्यक थीं या अनुचित थीं और ऐसी अनुचित पुलिस कार्रवाई जेलों के खर्च का 43.2 प्रतिशत थी। हाईकोर्ट ने कहा- व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक बहुत ही कीमती मौलिक अधिकार है और इसे तभी कम किया जाना चाहिए जब यह अनिवार्य हो जाए। किसी भी मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार ही आरोपी की गिरफ़्तारी की जानी चाहिए। परिणामस्वरूप कोर्ट ने मामले के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त किए बिना और आरोप की प्रकृति पर विचार किए बिना कहा कि आवेदक सीमित अवधि के लिए अग्रिम जमानत पर रिहा होने का हकदार है। कोर्ट ने कहा कि गिरफ्तारी की स्थिति में, आवेदक को सक्षम न्यायालय के समक्ष धारा 173 (2) सीआरपीसी के तहत पुलिस रिपोर्ट, यदि कोई हो, प्रस्तुत करने तक अग्रिम जमानत पर रिहा किया जाएगा। तदनुसार हाईकोर्ट ने जांच अधिकारी को मामले की जांच शीघ्रता से पूरी करने का निर्देश दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी पुलिस की कार्यशैली पर ही सवाल उठा दिए। कोर्ट ने गो हत्या के एक मामले में एक आरोपी को अग्रिम जमानत देते हुए कहा कि तर्कहीन एवं अंधाधुंध गिरफ्तारियां मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं। कोर्ट ने कहा-अदालतों ने बार-बार कहा है कि पुलिस के लिए गिरफ्तारी अंतिम विकल्प होना चाहिए। और इसे केवल उन असाधारण मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिए, जहां आरोपी को गिरफ्तार करना अनिवार्य हो या हिरासत में लेकर उससे पूछताछ की आवश्यकता हो। इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले आरोपी मोहम्मद ताबिश राजा को गो हत्या अधिनियम की धारा 3, 5- ए, 5- बी और 8, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम की धारा 11 और आईपीसी की धारा 429 के तहत फंसाया गया था। मामला थाना लंका वाराणसी का है। आरोपी ने तर्क दिया कि यह पहली बार था जब उसे इस तरह के मामले में झूठा फंसाया गया। अदालत ने कहा- गिरफ्तारी पुलिस के पास अंतिम विकल्प
जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने कहा, एफआईआर दर्ज होने के बाद पुलिस अपनी इच्छानुसार गिरफ्तारी कर सकती है। जिस आरोपी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस के पास कोई निश्चित समय नहीं है। अदालतों ने बार-बार कहा है कि गिरफ्तारी पुलिस के लिए अंतिम विकल्प होना चाहिए और इसे केवल उन असाधारण मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिए, जहां आरोपी को गिरफ्तार करना अनिवार्य हो या हिरासत में लेकर उससे पूछताछ की आवश्यकता हो। तर्कहीन और अंधाधुंध गिरफ्तारियां मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हैं। अग्रिम जमानत की प्रार्थना का विरोध इसलिए किया गया क्योंकि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप गंभीर थे। याचिका का विरोध यह कहते हुए किया गया क्योंकि केवल काल्पनिक भय के आधार पर अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने कहा कि यद्यपि आवेदक के खिलाफ मामला दर्ज है । यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पुलिस उसे कब गिरफ्तार कर सकती है। जस्टिस सिद्धार्थ ने 1994 के जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला दिया , जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की तीसरी रिपोर्ट का हवाला दिया था। जिसमें उल्लेख किया गया था कि भारत में पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारियां पुलिस में भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत हैं। रिपोर्ट में आगे बताया गया कि लगभग 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां या तो अनावश्यक थीं या अनुचित थीं और ऐसी अनुचित पुलिस कार्रवाई जेलों के खर्च का 43.2 प्रतिशत थी। हाईकोर्ट ने कहा- व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक बहुत ही कीमती मौलिक अधिकार है और इसे तभी कम किया जाना चाहिए जब यह अनिवार्य हो जाए। किसी भी मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार ही आरोपी की गिरफ़्तारी की जानी चाहिए। परिणामस्वरूप कोर्ट ने मामले के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त किए बिना और आरोप की प्रकृति पर विचार किए बिना कहा कि आवेदक सीमित अवधि के लिए अग्रिम जमानत पर रिहा होने का हकदार है। कोर्ट ने कहा कि गिरफ्तारी की स्थिति में, आवेदक को सक्षम न्यायालय के समक्ष धारा 173 (2) सीआरपीसी के तहत पुलिस रिपोर्ट, यदि कोई हो, प्रस्तुत करने तक अग्रिम जमानत पर रिहा किया जाएगा। तदनुसार हाईकोर्ट ने जांच अधिकारी को मामले की जांच शीघ्रता से पूरी करने का निर्देश दिया है।   उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर