यूपी के जिला संभल में प्राचीन तीर्थ स्थलों और कुंओं की खुदाई में निकली बावड़ी की चर्चा हर जगह चल रही है। ये बावड़ी जमीन से 10 फीट नीचे से शुरू हो जाती है। इसकी गहराई करीब 30 फुट मानी जा रही है। बावड़ी में एक कुआं और 100 मीटर से ज्यादा लंबी सुरंग मौजूद है। कभी ये बावड़ी सहसपुर स्टेट की मिल्कियत हुआ करती थी। सैनिकों की टुकड़ियां इस बावड़ी में रुकती थीं। बावड़ी जमीन के अंदर इतनी गहराई पर थी कि उस पर तोप-गोलों का असर भी संभव नहीं था। बाद में इस बावड़ी का इस्तेमाल आसपास खेतीबाड़ी करने के रूप में हुआ। ये बावड़ी डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है, जो बीते 29 साल से बंद पड़ी थी। दैनिक भास्कर कस्बा चंदौसी में पहुंचा। बावड़ी का स्ट्रक्चर कैसा है? इसके पुश्तैनी मालिक कौन हैं? ये बावड़ी इस हालत में कैसे पहुंची? पढ़िए पूरी रिपोर्ट… सबसे पहले बावड़ी के मालिक सहसपुर स्टेट के बारे में सब कुछ जानिए राजघराने में आते थे 400 गांव, 1990 में बेची संपत्ति
सहसपुर राजघराने की रियासत में यूपी के बदायूं, मुरादाबाद, संभल और बिजनौर जिले के करीब 400 गांव आते थे। इसका इतिहास सन 1500 से भी पुराना है। संभल जिले के कस्बा चंदौसी में जो बावड़ी मिली, वो इसी रियासत का हिस्सा है। इस पूरी रियासत के मालिक कस्बा बिलारी निवासी राजा जगत सिंह और उनकी पत्नी रानी प्रीतम कुंवर थे। साल, 1934 में अलीगढ़ जाते वक्त एक कार दुर्घटना में राजा जगत सिंह की मौत हो गई। फिर 1982 में रानी प्रीतम कुंवर का निधन हो गया। हालांकि, राजा जगत सिंह और रानी प्रीतम कुंवर से पहले भी उनके पूर्वज इस रियासत के राजा रहे हैं। निधन से पहले रानी प्रीतम कुंवर ने ये पूरी रियासत अपनी पुत्रवधू रानी सुरेंद्रबाला के नाम कर दी थी। बाद में ये संपत्ति सुरेंद्रबाला के दत्तक पुत्र विष्णु कुमार उर्फ लल्ला बाबू के हिस्से में आ गई। लल्ला बाबू ने 1990 में रियासत की ज्यादातर जमीनें किसी मेहंदीरत्ता नामक प्रॉपर्टी डीलर को बेच दीं। इसमें सिर्फ चंदौसी की बावड़ी वाला हिस्सा छोड़ दिया गया। बावड़ी के चारों तरफ मकान खड़े हो गए। धीरे-धीरे ये बावड़ी कूड़ा-करकट से पाट दी गई। फिर वो जमीन में दबती चली गई। (ये जानकारी रानी सुरेंद्रबाला की पोती शिप्रा गेरा ने दी) रानी की पोती बोलीं- हम 1995 तक यहां खूब आते थे
शिप्रा गेरा को जब बावड़ी की खुदाई की खबर मिली, तो 22 दिसंबर को वो कस्बा चंदौसी में पहुंचीं। उन्होंने इच्छा जताई कि जिला प्रशासन इस बावड़ी को प्राचीन धरोहर घोषित कर दे। शिप्रा गेरा ने बताया- हम 1995 से पहले तक इस बावड़ी पर खूब आते थे। यहां अमरूद और कई फलों के पेड़ लगे थे। पूरा बाग था। एक कुआं था, उसका पानी पीते थे। ‘खेती के काम आते थे कुएं और ट्यूबवेल’
रानी सुरेंद्र बाला के पौत्र दिनेश कुमार ने बताया- दादी ने अपने बेटे की बजाय बहन के बेटे विष्णु कुमार को ये सारी संपत्ति दे दी थी। आज भी ये जमीन विष्णु कुमार के नाम पर है। इसके बाद विष्णु कुमार ने बावड़ी वाली जमीन छोड़कर बाकी प्रॉपर्टी बेच दी। बावड़ी में पहले रहट का कुआं था। फिर इस कुएं में बिजली की मोटर लगवाई। बाद में एक ट्यूबवेल लगवाई गई, ताकि बाग और खेतों की सिंचाई हो सके। जितना मुझे याद है, ये बावड़ी दो मंजिला है। मैं इस बावड़ी में कई बार आ चुका हूं। यहां अमरूदों का बाग था। कुएं के बराबर में कमर तक का पेड़ था। कौशल किशोर की शिकायत पर हुई बावड़ी की खुदाई
सनातन सेवक संघ के प्रांत प्रमुख हैं कौशल किशोर। इन्हीं की शिकायत पर इस बावड़ी की खुदाई हो रही है। हमने इनसे विस्तार से बात की। कौशल किशोर ने बताया- 21 दिसंबर को चंदौसी में तहसील दिवस था। इसमें DM-SP आए थे। मैं वहां पहुंचा। अफसरों को बताया कि चंदौसी में एक प्राचीन धरोहर है, जिस पर कब्जा किया गया है। अफसरों ने तुरंत एक टीम अतिक्रमण हटवाने को भेज दी। जब यहां खुदाई हुई, तो बावड़ी दिखी। कौशल किशोर बताते हैं- 1857 में ये रानी सुरेंद्रबाला की रियासत हुआ करती थी। उनकी फौज की टुकड़ियां इस बावड़ी में रुकती थीं। हमें करीब 20-25 साल पहले ये भी पता चला कि यहां बाद में किन्नर जाति के लोग भी रहे हैं। व्यापारी नेता बोले- मंदिर का भी जीर्णोद्धार हो
अनुज वार्ष्णेय कस्बा चंदौसी के रहने वाले हैं। व्यापारी सुरक्षा फोरम के प्रदेश प्रभारी हैं। वह बताते हैं- ये बावड़ी 1857 की बनी है। पुराने राजा-महाराजा अपनी सैनिक टुकड़ी और व्यापारियों को ठहराने के लिए इन बावड़ियों का निर्माण कराते थे। बावड़ी के पीछे राधा कृष्ण मंदिर है। बावड़ी से निकलने वाली सुरंग इसी मंदिर तक जाती है। हमने डीएम से कहा है कि जर्जर पड़े राधा कृष्ण मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया जाए। क्या है बावड़ी, किस काम आती है?
इस सवाल पर अनुज वार्ष्णेय कहते हैं- प्राचीन काल में जल प्रबंधन के लिए ये बावड़ियां बनाई जाती थीं। एक जगह में पत्थर की संरचना बनाकर उसमें पानी के आने और उसे स्टोरेज करने की व्यवस्था को बावड़ी कहा जाता था। बावड़ी पत्थर या ईंटों से बनाई जाती थीं। ये कई-कई मंजिला होती थीं। हर मंजिल पर पानी के स्तर के आधार पर सीढ़ियां होती थीं। बारिश के पानी को एकत्र करने, भूजल स्तर को बनाए रखने, लोगों को पानी मुहैया कराने, पशुओं के लिए पानी देने और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए इन बावड़ी का प्रयोग किया जाता था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और राज्य सरकारें मौजूदा वक्त में करीब 800 बावड़ियों की देखरेख करती हैं। हालांकि इनकी संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। ज्यादातर बावड़ियां समय के साथ मिट्टी में दब गईं या अतिक्रमण की वजह से अस्तित्व से मिट गईं। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा बावड़ी हैं। अब बावड़ी का स्ट्रक्चर समझिए लाल पत्थर की सीढ़ियां, दोनों तरफ दो-दो कमरे बने
संभल जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर कस्बा चंदौसी है। यहां का मोहल्ला लक्ष्मणगंज मुस्लिम बाहुल्य इलाका है। इन घरों के बीच करीब 200 मीटर का एक प्लॉट लंबे वक्त से खाली पड़ा था। 21 दिसंबर को अतिक्रमण की एक शिकायत पर पुलिस-प्रशासन ने इस प्लॉट की खुदाई कराई, तो नीचे एक स्ट्रक्चर दिखा। इसके बाद खुदाई और तेज हुई। बावड़ी में नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़ियां बनी हैं। अब तक लाल पत्थर की 8 सीढ़ियां दिखाई दे चुकी हैं। इन सीढ़ियों से हम नीचे उतरे, तो दोनों तरफ करीब 3-4 फुट ऊंचाई वाले 5-5 गेट बने हुए दिखे। इन गेटों के अंदर दो-दो बड़े कमरे बने हैं। दाएं हाथ वाले कमरे के अंदर से एक सुरंग निकलती है। कहा जाता है, ये सुरंग इस बावड़ी से करीब 100 मीटर दूर राधा कृष्ण मंदिर पर पहुंचकर निकलती है। ये मंदिर एक तालाब के पास है, जो अब पूरी तरह खंडहर हो चुका है। दीवारों पर लिखे भगवान के नामों से ही पता चलता है कि कभी ये मंदिर रहा होगा। हालांकि स्थानीय युवक इसकी पुष्टि करते हैं कि बाबरी विध्वंस से पूर्व इस मंदिर में मूर्तियां स्थापित थीं और पूजा-अर्चना होती थी। बावड़ी के पुश्तैनी मालिक परिवार के लोग बताते हैं कि ये करीब तीन मंजिला बनी है। नगर पालिका अभी सिर्फ 10-15 फीट खुदाई कर पाई है। ऐसे में माना जा रहा है कि बावड़ी की गहराई 30 फीट तक जा सकती है। DM बोले- जरूरत पड़ने पर ASI को भी लेटर भेजेंगे
संभल के डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट (DM) राजेंद्र पेंसिया ने बताया- बावड़ी की खुदाई के लिए 40 से ज्यादा मजदूर लगाए हुए हैं। अभी खुदाई में थोड़ा और वक्त लग सकता है। इसके बाद ही जमीन के नीचे मौजूद पूरा स्ट्रक्चर समझ आ पाएगा। जरूरत पड़ी, तो इसके सर्वे के लिए ASI को पत्र लिखा जाएगा। ये प्राचीन धरोहर है। इसको संरक्षित किया जाएगा। ———————– ये खबर भी पढ़ें… ग्राउंड रिपोर्ट संभल में हरि मंदिर के चारों तरफ 68 तीर्थ-19 कुएं, 350 साल पहले लिखी किताब में जिक्र संभल में विवाद सिर्फ जामा मस्जिद को लेकर था। अब प्राचीन कल्कि मंदिर से लेकर 68 तीर्थ और 19 कुओं (कूप) का सर्वे भी शुरू हो गया। इसे लेकर लोगों के मन में दो बड़े सवाल हैं। सर्वे क्यों हो रहा है? सर्वे के बाद क्या होगा?पढ़िए पूरी रिपोर्ट… यूपी के जिला संभल में प्राचीन तीर्थ स्थलों और कुंओं की खुदाई में निकली बावड़ी की चर्चा हर जगह चल रही है। ये बावड़ी जमीन से 10 फीट नीचे से शुरू हो जाती है। इसकी गहराई करीब 30 फुट मानी जा रही है। बावड़ी में एक कुआं और 100 मीटर से ज्यादा लंबी सुरंग मौजूद है। कभी ये बावड़ी सहसपुर स्टेट की मिल्कियत हुआ करती थी। सैनिकों की टुकड़ियां इस बावड़ी में रुकती थीं। बावड़ी जमीन के अंदर इतनी गहराई पर थी कि उस पर तोप-गोलों का असर भी संभव नहीं था। बाद में इस बावड़ी का इस्तेमाल आसपास खेतीबाड़ी करने के रूप में हुआ। ये बावड़ी डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है, जो बीते 29 साल से बंद पड़ी थी। दैनिक भास्कर कस्बा चंदौसी में पहुंचा। बावड़ी का स्ट्रक्चर कैसा है? इसके पुश्तैनी मालिक कौन हैं? ये बावड़ी इस हालत में कैसे पहुंची? पढ़िए पूरी रिपोर्ट… सबसे पहले बावड़ी के मालिक सहसपुर स्टेट के बारे में सब कुछ जानिए राजघराने में आते थे 400 गांव, 1990 में बेची संपत्ति
सहसपुर राजघराने की रियासत में यूपी के बदायूं, मुरादाबाद, संभल और बिजनौर जिले के करीब 400 गांव आते थे। इसका इतिहास सन 1500 से भी पुराना है। संभल जिले के कस्बा चंदौसी में जो बावड़ी मिली, वो इसी रियासत का हिस्सा है। इस पूरी रियासत के मालिक कस्बा बिलारी निवासी राजा जगत सिंह और उनकी पत्नी रानी प्रीतम कुंवर थे। साल, 1934 में अलीगढ़ जाते वक्त एक कार दुर्घटना में राजा जगत सिंह की मौत हो गई। फिर 1982 में रानी प्रीतम कुंवर का निधन हो गया। हालांकि, राजा जगत सिंह और रानी प्रीतम कुंवर से पहले भी उनके पूर्वज इस रियासत के राजा रहे हैं। निधन से पहले रानी प्रीतम कुंवर ने ये पूरी रियासत अपनी पुत्रवधू रानी सुरेंद्रबाला के नाम कर दी थी। बाद में ये संपत्ति सुरेंद्रबाला के दत्तक पुत्र विष्णु कुमार उर्फ लल्ला बाबू के हिस्से में आ गई। लल्ला बाबू ने 1990 में रियासत की ज्यादातर जमीनें किसी मेहंदीरत्ता नामक प्रॉपर्टी डीलर को बेच दीं। इसमें सिर्फ चंदौसी की बावड़ी वाला हिस्सा छोड़ दिया गया। बावड़ी के चारों तरफ मकान खड़े हो गए। धीरे-धीरे ये बावड़ी कूड़ा-करकट से पाट दी गई। फिर वो जमीन में दबती चली गई। (ये जानकारी रानी सुरेंद्रबाला की पोती शिप्रा गेरा ने दी) रानी की पोती बोलीं- हम 1995 तक यहां खूब आते थे
शिप्रा गेरा को जब बावड़ी की खुदाई की खबर मिली, तो 22 दिसंबर को वो कस्बा चंदौसी में पहुंचीं। उन्होंने इच्छा जताई कि जिला प्रशासन इस बावड़ी को प्राचीन धरोहर घोषित कर दे। शिप्रा गेरा ने बताया- हम 1995 से पहले तक इस बावड़ी पर खूब आते थे। यहां अमरूद और कई फलों के पेड़ लगे थे। पूरा बाग था। एक कुआं था, उसका पानी पीते थे। ‘खेती के काम आते थे कुएं और ट्यूबवेल’
रानी सुरेंद्र बाला के पौत्र दिनेश कुमार ने बताया- दादी ने अपने बेटे की बजाय बहन के बेटे विष्णु कुमार को ये सारी संपत्ति दे दी थी। आज भी ये जमीन विष्णु कुमार के नाम पर है। इसके बाद विष्णु कुमार ने बावड़ी वाली जमीन छोड़कर बाकी प्रॉपर्टी बेच दी। बावड़ी में पहले रहट का कुआं था। फिर इस कुएं में बिजली की मोटर लगवाई। बाद में एक ट्यूबवेल लगवाई गई, ताकि बाग और खेतों की सिंचाई हो सके। जितना मुझे याद है, ये बावड़ी दो मंजिला है। मैं इस बावड़ी में कई बार आ चुका हूं। यहां अमरूदों का बाग था। कुएं के बराबर में कमर तक का पेड़ था। कौशल किशोर की शिकायत पर हुई बावड़ी की खुदाई
सनातन सेवक संघ के प्रांत प्रमुख हैं कौशल किशोर। इन्हीं की शिकायत पर इस बावड़ी की खुदाई हो रही है। हमने इनसे विस्तार से बात की। कौशल किशोर ने बताया- 21 दिसंबर को चंदौसी में तहसील दिवस था। इसमें DM-SP आए थे। मैं वहां पहुंचा। अफसरों को बताया कि चंदौसी में एक प्राचीन धरोहर है, जिस पर कब्जा किया गया है। अफसरों ने तुरंत एक टीम अतिक्रमण हटवाने को भेज दी। जब यहां खुदाई हुई, तो बावड़ी दिखी। कौशल किशोर बताते हैं- 1857 में ये रानी सुरेंद्रबाला की रियासत हुआ करती थी। उनकी फौज की टुकड़ियां इस बावड़ी में रुकती थीं। हमें करीब 20-25 साल पहले ये भी पता चला कि यहां बाद में किन्नर जाति के लोग भी रहे हैं। व्यापारी नेता बोले- मंदिर का भी जीर्णोद्धार हो
अनुज वार्ष्णेय कस्बा चंदौसी के रहने वाले हैं। व्यापारी सुरक्षा फोरम के प्रदेश प्रभारी हैं। वह बताते हैं- ये बावड़ी 1857 की बनी है। पुराने राजा-महाराजा अपनी सैनिक टुकड़ी और व्यापारियों को ठहराने के लिए इन बावड़ियों का निर्माण कराते थे। बावड़ी के पीछे राधा कृष्ण मंदिर है। बावड़ी से निकलने वाली सुरंग इसी मंदिर तक जाती है। हमने डीएम से कहा है कि जर्जर पड़े राधा कृष्ण मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया जाए। क्या है बावड़ी, किस काम आती है?
इस सवाल पर अनुज वार्ष्णेय कहते हैं- प्राचीन काल में जल प्रबंधन के लिए ये बावड़ियां बनाई जाती थीं। एक जगह में पत्थर की संरचना बनाकर उसमें पानी के आने और उसे स्टोरेज करने की व्यवस्था को बावड़ी कहा जाता था। बावड़ी पत्थर या ईंटों से बनाई जाती थीं। ये कई-कई मंजिला होती थीं। हर मंजिल पर पानी के स्तर के आधार पर सीढ़ियां होती थीं। बारिश के पानी को एकत्र करने, भूजल स्तर को बनाए रखने, लोगों को पानी मुहैया कराने, पशुओं के लिए पानी देने और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए इन बावड़ी का प्रयोग किया जाता था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और राज्य सरकारें मौजूदा वक्त में करीब 800 बावड़ियों की देखरेख करती हैं। हालांकि इनकी संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। ज्यादातर बावड़ियां समय के साथ मिट्टी में दब गईं या अतिक्रमण की वजह से अस्तित्व से मिट गईं। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा बावड़ी हैं। अब बावड़ी का स्ट्रक्चर समझिए लाल पत्थर की सीढ़ियां, दोनों तरफ दो-दो कमरे बने
संभल जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर कस्बा चंदौसी है। यहां का मोहल्ला लक्ष्मणगंज मुस्लिम बाहुल्य इलाका है। इन घरों के बीच करीब 200 मीटर का एक प्लॉट लंबे वक्त से खाली पड़ा था। 21 दिसंबर को अतिक्रमण की एक शिकायत पर पुलिस-प्रशासन ने इस प्लॉट की खुदाई कराई, तो नीचे एक स्ट्रक्चर दिखा। इसके बाद खुदाई और तेज हुई। बावड़ी में नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़ियां बनी हैं। अब तक लाल पत्थर की 8 सीढ़ियां दिखाई दे चुकी हैं। इन सीढ़ियों से हम नीचे उतरे, तो दोनों तरफ करीब 3-4 फुट ऊंचाई वाले 5-5 गेट बने हुए दिखे। इन गेटों के अंदर दो-दो बड़े कमरे बने हैं। दाएं हाथ वाले कमरे के अंदर से एक सुरंग निकलती है। कहा जाता है, ये सुरंग इस बावड़ी से करीब 100 मीटर दूर राधा कृष्ण मंदिर पर पहुंचकर निकलती है। ये मंदिर एक तालाब के पास है, जो अब पूरी तरह खंडहर हो चुका है। दीवारों पर लिखे भगवान के नामों से ही पता चलता है कि कभी ये मंदिर रहा होगा। हालांकि स्थानीय युवक इसकी पुष्टि करते हैं कि बाबरी विध्वंस से पूर्व इस मंदिर में मूर्तियां स्थापित थीं और पूजा-अर्चना होती थी। बावड़ी के पुश्तैनी मालिक परिवार के लोग बताते हैं कि ये करीब तीन मंजिला बनी है। नगर पालिका अभी सिर्फ 10-15 फीट खुदाई कर पाई है। ऐसे में माना जा रहा है कि बावड़ी की गहराई 30 फीट तक जा सकती है। DM बोले- जरूरत पड़ने पर ASI को भी लेटर भेजेंगे
संभल के डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट (DM) राजेंद्र पेंसिया ने बताया- बावड़ी की खुदाई के लिए 40 से ज्यादा मजदूर लगाए हुए हैं। अभी खुदाई में थोड़ा और वक्त लग सकता है। इसके बाद ही जमीन के नीचे मौजूद पूरा स्ट्रक्चर समझ आ पाएगा। जरूरत पड़ी, तो इसके सर्वे के लिए ASI को पत्र लिखा जाएगा। ये प्राचीन धरोहर है। इसको संरक्षित किया जाएगा। ———————– ये खबर भी पढ़ें… ग्राउंड रिपोर्ट संभल में हरि मंदिर के चारों तरफ 68 तीर्थ-19 कुएं, 350 साल पहले लिखी किताब में जिक्र संभल में विवाद सिर्फ जामा मस्जिद को लेकर था। अब प्राचीन कल्कि मंदिर से लेकर 68 तीर्थ और 19 कुओं (कूप) का सर्वे भी शुरू हो गया। इसे लेकर लोगों के मन में दो बड़े सवाल हैं। सर्वे क्यों हो रहा है? सर्वे के बाद क्या होगा?पढ़िए पूरी रिपोर्ट… उत्तरप्रदेश | दैनिक भास्कर